"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 346 श्लोक 1-22": अवतरणों में अंतर

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==तीन सौ छियालीसवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (मोक्षधर्मपर्व)==
==षट्चत्वारिंशदधिकत्रिशततम (346) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)==
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: षट्चत्वारिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्तिपर्व : तीन सौ छियालीसवाँ अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद</div>
 


नारायण की महिमा सम्बन्धी उपाख्यान का उपसंहार
नारायण की महिमा सम्बन्धी उपाख्यान का उपसंहार
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत शानितपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में नारायण की महिमा विषयक तीन सौ छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत शानितपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में नारायण की महिमा विषयक तीन सौ छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>  


{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत शान्तिपर्व अध्याय 345 श्लोक 1-28|अगला=महाभारत शान्तिपर्व अध्याय 347 श्लोक 1-30}}
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 345 श्लोक 20-28|अगला=महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 347 श्लोक 1-19}}
 


==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

०८:३५, २ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

षट्चत्वारिंशदधिकत्रिशततम (346) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: षट्चत्वारिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद

नारायण की महिमा सम्बन्धी उपाख्यान का उपसंहार

वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! नर-नारायण का वह कथन सुनकर भगवान के प्रति नारदजी की भक्ति बहुत बढ़ गयी। वे उनके अनन्य भक्त हो गये। ना-नारायण के आश्रम में भगवान की कथा सुनते और प्रतिदिन अविनाशी श्रीहरि का दर्शन करते हुए जब नारदजीके एक हजार दिव्य वर्ष पूरे हा गये तब वे शीघ्र ही हिमालय पर्वत के उस भाग में चले गये, जहाँ उनका अपना आश्रम था। तत्पशच् वे विख्यात तपस्वी नर-नारायण ऋषि भी पुनः उसी रमणीय आश्रम में रहते हुए उत्तम तपस्या में संलग्न हो गये। जनमेजय । तुम पाण्डवों के कुलभूषण और अत्यन्त पराक्रमी हो। तुम भी प्रारम्भ से ही इस कथा को सुनकर आज परम पवित्र हो गये हो। नृपश्रेष्ठ ! जो मन, वाणी, और क्रिया द्वारा अविनाशी भगवान विष्णु के साथ द्वेष रखता है, उसका न इस लोक में ठिकाना है और न परलोक में। जो देवश्रेष्ठ भगवान नारायण हरि से द्वेष करता है, उसके पितर सदा के लिये नरक में डूब जाते हैं। पुरुषसिंह ! भगवान विष्णु को सबका आत्मा जानना चाहिये। यही वास्तविक स्थिति है। कोई भी मनुष्य भला अपने आत्मा के साथ द्वेष कैसे कर सकता है ? तात ! ये जो हम लोगों के गुरु गन्धवतीपुत्र महर्षि व्यास बैठे हैं, इन्होंने ही भगवान के परम उत्तम अविनाशी माहात्म्य का वर्णन किया है। निष्पाप ! उन्हीं से मैंने यह सब सुना है और मेरे द्वारा तुमको भी कहा गया है। नरेश्वर ! देवर्षि नरद ने तो रहस्य और संग्रह सहित इस धर्म को साक्षात् जगदीश्वर नारायण से ही प्राप्त किया था। नृपश्रेष्ठ ! इस प्रकार यह महान् धर्म मैंने तुम्हें पहले हरिगीता में संक्षेप से बताया है। पुरुषसिंह ! तुम कृष्णद्वैपायन व्यास को इस भूतल पर नारायण का ही स्वरूप समझो। भला, भगवान के सिवा दूसरा कौन महाभारत का कर्ता हो सकता है ? भगवान के सिवा दूसरा कौन ऐसा है, जो नाना प्रकार के धर्मों का वर्णन कर सके ? तुम्हारा यह महान् यज्ञ, जैसा कि तुमने संकल्व कर रखा है, निरन्तर चाले रहे। तुमने अश्वमेघ-यज्ञ करने का संकल्प लिया है और सब धर्मों का यथार्थ रूप से श्रवध किया है।

सूतपुत्र कहते हैं - शौनक ! वैशम्पायनजी के मुख से यह महान् उपाख्यान सुनकर राजाओं में श्रेष्ठ जनमेजय ने अपने यज्ञ को पूर्ण करने का सारा कार्य आरम्भ किया।। शौनक ! आज तुम्हारे प्रश्न के उनुसार इन नैमिषारण्य निवासी मुनियों के समीप मैंने यहाँ यह नारायण का माहात्म्य सम्बन्धी उपाख्यान तुम्हें सुनाया है। राजन् । पूर्वकाल में नारदजी ने ऋषियों, पाण्डवों, श्रीकृष्ण तथा भीष्म के सुनते हुए यह प्रसंग मेरे गुरु व्यासजी को बताया था। वे परम गुरु, जनपति, भुवनपति, विशाल पृथ्वी को धारण करने चाले, वेदज्ञान और विनय के भण्डार , शम और नियम की निधि, ब्राह्मणों के परम हितैषी तथा देवताओं के हितचिंतक श्रीहरि तुम्हारे आश्रय हों। असुरों का वध करने वाले, तपस्या की निधि, विशाल यश के भाजन, मधु और कैटभ के हन्ता, सत्ययुग के धर्मों का ज्ञान रखकर उनका पालन करने वालों को सद्गति प्रदान करने वाले, अभयदाता तथा यज्ञ का भाग ग्रहण करने वाले भगवान नारायण तुम्हें शरण दें। जो तीनों गुणों से विशिष्ट होते हुए भी निर्गुण हैं, वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध नामक चार विग्रहों को धारण करने वाले हैं, इष्ट (यज्ञ-याग आदि), आपूर्त (वापी, कूप, तड़ाग-निर्माण आदि) के फलभाग को ग्रहण करने वाले हैं, जो कभी किसी से पराजित नहीं होते तथा धैर्य या मर्यादा से विचलित नहीं होते, वे भगवान श्रीहरि पुध्यात्मा ऋष्यिों को आत्मज्ञानजन्य सद्गति प्रदान करें। जो सम्पूर्ण जगत् के साक्षी, अजन्मा, अन्तर्यामी, पुराणपुरुष, सूर्य के समान तेजस्वी, ईश्वर और सब प्रकार से सबकी गति हैं, उन परमेश्वर को तुम सब लोग एकाग्रचित्त होकर प्रणाम करो; क्योंकि उन वासुदेव स्वरूप नारायण ऋषि को शेषशायी भी प्रणाम करते हैं। वे इस जगत् के आदिकारण, अमृतपद (मोक्ष के आश्रय) सूक्ष्मस्वरूप, दूसरे को शरण देने वाले, अविचल और सनातन पद हैं। उदार शौनक ! अपने मन को वश में रखने वाले सांख्ययोगी बंद्धि के द्वारा उन्हीं का वरण करते हैं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शानितपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में नारायण की महिमा विषयक तीन सौ छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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