"महाभारत आदि पर्व अध्याय 162 श्लोक 1-17" के अवतरणों में अंतर

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भीमसेन का भोजन-सामग्री लेकर बकासुर के पास जाना और स्‍वयं भोजन करना तथा युद्ध  करके उसे मार गिराना
 
भीमसेन का भोजन-सामग्री लेकर बकासुर के पास जाना और स्‍वयं भोजन करना तथा युद्ध  करके उसे मार गिराना
  
युधिष्ठिर बोले-मां ! आपने समझ-बूझकर जो कुछ निश्‍चय किया है, वह सब उचित है। आपने संकट में पड़े हुए ब्राह्मण पर दया करके ही ऐसा विचार किया है। निश्‍चय ही भीमसेन उस राक्षस को मारकर लौट आयेंगे; क्‍योंकि आप सर्वथा ब्राह्मण की रक्षा के लिये ही उस पर इतनी दयालु हुई हैं।आपको यत्‍नपूर्वक ब्राह्मण पर अनुग्रह तो करना ही चाहिये; किंतु ब्राह्मण से यह कह देना चाहिये कि वे इस प्रकार मौन रहें कि नगर निवासियों को यह बात मालूम न होने पाये।  वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! ब्राह्मण (की रक्षा) के निमित्‍त युधिष्ठिर से इस प्रकार सलाह करके कुन्‍ती देवी ने भीतर जाकर समस्‍त ब्राह्मण-परिवार को सान्‍त्‍वना दी। तदनन्‍तर रात बीतने पर पाण्‍डुनन्‍दन भीमसेन भोजन-सामग्री लेकर उस स्‍थान पर गये, जहां वह नरभक्षी राक्षस रहता था। बक राक्षस के वन में पहुंचकर महाबली पाण्‍डुकुमार भीमसेन उसके लिये लाये हुए अन्‍न को स्‍वयं खाते हुए राक्षस का नाम- ले लेकर उसे पुकारने लगे। भीम के इस प्रकार पुकारने से वह राक्षस कुपित हो उठा और अत्‍यन्‍त क्रोध में भरकर जहां भीमसेन बैठकर भोजन कर रहे थे, वहां आया। उसका शरीर बहुत बड़ा था। वह इतने महान् वेग से चलता था, मानो पृथ्‍वी को विदीर्ण कर देगा। उसकी आंखे रोष से लाल हो रही थीं। आकृति बड़ी विकराल जान पड़ती थी। उसके दाढ़ी, मूंछ और सिर के बाल लाल रंग के थे। मुंह का फैलाव कानों के समीप तक था, कान भी शंक्‍ख के समान लंबे और नुकिले थे। बड़ा भयानक था वह राक्षस । उसने  भौंहें ऐसी टेढ़ी कर रखी थीं कि वहां तीन रेखाएं उभड़ आयी थीं और वह दांतों से ओठ चबा रहा था। भीमसेन को वह अन्‍न खाते देख राक्षस का क्रोध बहुत बढ़ गया और उसने आंखें तरेरकर कहा-‘यमलोक में जाने की इच्‍छा रखनेवाला यह कौन दुर्बुद्धि  मनुष्‍य है, जो मेरी आंखों के सामने मेरे ही लिये तैयार करके लाये हुए इस अन्‍न को स्‍वयं खा रहा है ?’ । भारत ! उसकी बात सुनकर भीमसेन मानो जोर-जोर से हंसने लगे और उस राक्षस की अवहेलना करते हुए मुंह फेरकर खाते ही रह गये।  अब तो वह नरभक्षी राक्षस भीमसेन को मार डालने की इच्‍छा से भयंकर गर्जना करता हुआ दोनों हाथ ऊपर उठाकर उनकी ओर दौड़ा। तो भी शत्रु वीरों का संहार करनेवाले पाण्‍डुनन्‍दन भीमसेन उस राक्षस की ओर देखते हुए उसका तिरस्‍कार करके उस अन्‍न को खाते ही रहे। तब उसने अत्‍यन्‍त अमर्ष में भरकर कुन्‍तीनन्‍दन भीमसेन के पीछे खड़े हो अपने दोनों हा‍थों से उनकी पीठ पर प्रहार किया। इस प्रकार बलवान् राक्षस के दोनों हाथों से भयानक चोट खाकर भी भीमसेन ने उसकी ओर देखा तक नहीं, वे भोजन करने में ही संलग्‍न रहे।।  तब उस बलवान् राक्षस ने पुन: अत्‍यन्‍त कुपित हो एक वृक्ष उखाड़कर भीमसेन को मारने के लिये फिर उन पर धावा किया। तदनन्‍तर नरश्रेष्‍ठ महाबली भीमसेन ने धीरे-धीरे वह सब अन्‍न खाकर, आचमन करके मुंह-हाथ धो लिये, फिर वे अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न हो युद्ध  के लिये डट गये।
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युधिष्ठिर बोले-मां ! आपने समझ-बूझकर जो कुछ निश्‍चय किया है, वह सब उचित है। आपने संकट में पड़े हुए ब्राह्मण पर दया करके ही ऐसा विचार किया है। निश्‍चय ही भीमसेन उस राक्षस को मारकर लौट आयेंगे; क्‍योंकि आप सर्वथा ब्राह्मण की रक्षा के लिये ही उस पर इतनी दयालु हुई हैं।आपको यत्‍नपूर्वक ब्राह्मण पर अनुग्रह तो करना ही चाहिये; किंतु ब्राह्मण से यह कह देना चाहिये कि वे इस प्रकार मौन रहें कि नगर निवासियों को यह बात मालूम न होने पाये।  वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! ब्राह्मण (की रक्षा) के निमित्‍त युधिष्ठिर से इस प्रकार सलाह करके कुन्‍ती देवी ने भीतर जाकर समस्‍त ब्राह्मण-परिवार को सान्‍त्‍वना दी। तदनन्‍तर रात बीतने पर पाण्‍डुनन्‍दन भीमसेन भोजन-सामग्री लेकर उस स्‍थान पर गये, जहां वह नरभक्षी राक्षस रहता था। बक राक्षस के वन में पहुंचकर महाबली पाण्‍डुकुमार भीमसेन उसके लिये लाये हुए अन्‍न को स्‍वयं खाते हुए राक्षस का नाम- ले लेकर उसे पुकारने लगे। भीम के इस प्रकार पुकारने से वह राक्षस कुपित हो उठा और अत्‍यन्‍त क्रोध में भरकर जहां भीमसेन बैठकर भोजन कर रहे थे, वहां आया। उसका शरीर बहुत बड़ा था। वह इतने महान् वेग से चलता था, मानो पृथ्‍वी को विदीर्ण कर देगा। उसकी आंखे रोष से लाल हो रही थीं। आकृति बड़ी विकराल जान पड़ती थी। उसके दाढ़ी, मूंछ और सिर के बाल लाल रंग के थे। मुंह का फैलाव कानों के समीप तक था, कान भी शंक्‍ख के समान लंबे और नुकिले थे। बड़ा भयानक था वह राक्षस । उसने  भौंहें ऐसी टेढ़ी कर रखी थीं कि वहां तीन रेखाएं उभड़ आयी थीं और वह दांतों से ओठ चबा रहा था। भीमसेन को वह अन्‍न खाते देख राक्षस का क्रोध बहुत बढ़ गया और उसने आंखें तरेरकर कहा-‘यमलोक में जाने की इच्‍छा रखनेवाला यह कौन दुर्बुद्धि  मनुष्‍य है, जो मेरी आंखों के सामने मेरे ही लिये तैयार करके लाये हुए इस अन्‍न को स्‍वयं खा रहा है ?’ । भारत ! उसकी बात सुनकर भीमसेन मानो जोर-जोर से हंसने लगे और उस राक्षस की अवहेलना करते हुए मुंह फेरकर खाते ही रह गये।  अब तो वह नरभक्षी राक्षस भीमसेन को मार डालने की इच्‍छा से भयंकर गर्जना करता हुआ दोनों हाथ ऊपर उठाकर उनकी ओर दौड़ा। तो भी शत्रु वीरों का संहार करनेवाले पाण्‍डुनन्‍दन भीमसेन उस राक्षस की ओर देखते हुए उसका तिरस्‍कार करके उस अन्‍न को खाते ही रहे। तब उसने अत्‍यन्‍त अमर्ष में भरकर कुन्‍तीनन्‍दन भीमसेन के पीछे खड़े हो अपने दोनों हा‍थों से उनकी पीठ पर प्रहार किया। इस प्रकार बलवान् राक्षस के दोनों हाथों से भयानक चोट खाकर भी भीमसेन ने उसकी ओर देखा तक नहीं, वे भोजन करने में ही संलग्‍न रहे।।  तब उस बलवान् राक्षस ने पुन: अत्‍यन्‍त कुपित हो एक वृक्ष उखाड़कर भीमसेन को मारने के लिये फिर उन पर धावा किया। तदनन्‍तर नरश्रेष्‍ठ महाबली भीमसेन ने धीरे-धीरे वह सब अन्‍न खाकर, आचमन करके मुंह-हाथ धो लिये, फिर वे अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न हो युद्ध  के लिये डट गये।
  
 
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१०:१८, ५ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

द्विषष्‍टयधिकशततम (162) अध्‍याय: आदि पर्व (बकवध पर्व )

महाभारत: आदि पर्व: द्विषष्‍टयधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


भीमसेन का भोजन-सामग्री लेकर बकासुर के पास जाना और स्‍वयं भोजन करना तथा युद्ध करके उसे मार गिराना

युधिष्ठिर बोले-मां ! आपने समझ-बूझकर जो कुछ निश्‍चय किया है, वह सब उचित है। आपने संकट में पड़े हुए ब्राह्मण पर दया करके ही ऐसा विचार किया है। निश्‍चय ही भीमसेन उस राक्षस को मारकर लौट आयेंगे; क्‍योंकि आप सर्वथा ब्राह्मण की रक्षा के लिये ही उस पर इतनी दयालु हुई हैं।आपको यत्‍नपूर्वक ब्राह्मण पर अनुग्रह तो करना ही चाहिये; किंतु ब्राह्मण से यह कह देना चाहिये कि वे इस प्रकार मौन रहें कि नगर निवासियों को यह बात मालूम न होने पाये। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! ब्राह्मण (की रक्षा) के निमित्‍त युधिष्ठिर से इस प्रकार सलाह करके कुन्‍ती देवी ने भीतर जाकर समस्‍त ब्राह्मण-परिवार को सान्‍त्‍वना दी। तदनन्‍तर रात बीतने पर पाण्‍डुनन्‍दन भीमसेन भोजन-सामग्री लेकर उस स्‍थान पर गये, जहां वह नरभक्षी राक्षस रहता था। बक राक्षस के वन में पहुंचकर महाबली पाण्‍डुकुमार भीमसेन उसके लिये लाये हुए अन्‍न को स्‍वयं खाते हुए राक्षस का नाम- ले लेकर उसे पुकारने लगे। भीम के इस प्रकार पुकारने से वह राक्षस कुपित हो उठा और अत्‍यन्‍त क्रोध में भरकर जहां भीमसेन बैठकर भोजन कर रहे थे, वहां आया। उसका शरीर बहुत बड़ा था। वह इतने महान् वेग से चलता था, मानो पृथ्‍वी को विदीर्ण कर देगा। उसकी आंखे रोष से लाल हो रही थीं। आकृति बड़ी विकराल जान पड़ती थी। उसके दाढ़ी, मूंछ और सिर के बाल लाल रंग के थे। मुंह का फैलाव कानों के समीप तक था, कान भी शंक्‍ख के समान लंबे और नुकिले थे। बड़ा भयानक था वह राक्षस । उसने भौंहें ऐसी टेढ़ी कर रखी थीं कि वहां तीन रेखाएं उभड़ आयी थीं और वह दांतों से ओठ चबा रहा था। भीमसेन को वह अन्‍न खाते देख राक्षस का क्रोध बहुत बढ़ गया और उसने आंखें तरेरकर कहा-‘यमलोक में जाने की इच्‍छा रखनेवाला यह कौन दुर्बुद्धि मनुष्‍य है, जो मेरी आंखों के सामने मेरे ही लिये तैयार करके लाये हुए इस अन्‍न को स्‍वयं खा रहा है ?’ । भारत ! उसकी बात सुनकर भीमसेन मानो जोर-जोर से हंसने लगे और उस राक्षस की अवहेलना करते हुए मुंह फेरकर खाते ही रह गये। अब तो वह नरभक्षी राक्षस भीमसेन को मार डालने की इच्‍छा से भयंकर गर्जना करता हुआ दोनों हाथ ऊपर उठाकर उनकी ओर दौड़ा। तो भी शत्रु वीरों का संहार करनेवाले पाण्‍डुनन्‍दन भीमसेन उस राक्षस की ओर देखते हुए उसका तिरस्‍कार करके उस अन्‍न को खाते ही रहे। तब उसने अत्‍यन्‍त अमर्ष में भरकर कुन्‍तीनन्‍दन भीमसेन के पीछे खड़े हो अपने दोनों हा‍थों से उनकी पीठ पर प्रहार किया। इस प्रकार बलवान् राक्षस के दोनों हाथों से भयानक चोट खाकर भी भीमसेन ने उसकी ओर देखा तक नहीं, वे भोजन करने में ही संलग्‍न रहे।। तब उस बलवान् राक्षस ने पुन: अत्‍यन्‍त कुपित हो एक वृक्ष उखाड़कर भीमसेन को मारने के लिये फिर उन पर धावा किया। तदनन्‍तर नरश्रेष्‍ठ महाबली भीमसेन ने धीरे-धीरे वह सब अन्‍न खाकर, आचमन करके मुंह-हाथ धो लिये, फिर वे अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न हो युद्ध के लिये डट गये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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