"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 164": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
No edit summary
छो (Text replace - "गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-" to "गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. ")
पंक्ति ६: पंक्ति ६:
धर्म शब्द ‘ धृ ’ धातु से बनता है जिसका अर्थ है धारण करना होता है ।
धर्म शब्द ‘ धृ ’ धातु से बनता है जिसका अर्थ है धारण करना होता है ।
   
   
{{लेख क्रम |पिछला=गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-163|अगला=गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-165}}
{{लेख क्रम |पिछला=गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 163|अगला=गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 165}}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
<references/>

०७:२७, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण

गीता-प्रबंध
17.दिव्य जन्म और दिव्य कर्म

आधुनिक यूरोप नाममात्र को ईसाई है, पर इसमें जो मानवदया का भाव है वह ईसाई - धर्म के आध्यात्मिक सत्य का सामाजिक और राजनीतिक रूपांतर है; और स्वाधीनता , समता और विश्वबंधुता की यह अभीप्सा मुख्यतः उन लोगों ने की जिन्होंने ईसाई - धर्म और आध्यात्मिक साधना को व्यर्थ तथा हानिकर बतलाकर त्याग दिया था और यह काम उस युग में हुआ जिसने स्वतंत्रता के बौद्धिक प्रयास में ईसाई - धर्म को धर्म मानना छोड़ देने की पूरी कोशिश की । राम और कृष्ण की जीवनलीला ऐतिहासिक काल के पूर्व की है , काव्य और आख्यायिका के रूप में हमें प्राप्त हुई है और इसे हम चाहें तो केवल काल्पनिक कहानी भी कह सकते हैं ; पर चाहे काल्पनिक कहानी कहिये या ऐतिहासिक तथ्य, इसका कुछ महत्व नहीं ; क्योंकि उनके चरित्रों का जो शाश्वत सत्य और महत्व है वह तो इस बात में है कि ये चरित्र जाति की आंतरिक चेतना और मानव - जीव के जीवन में सदा के लिये एक आध्यात्मिक रूप , सत्ता और प्रभाव के रूप में अमर हो गये हैं। अवतार दिव्य जीवन और चैतन्य के तथ्य है; वे किसी बाह्म कर्म में भी उतर सकते हैं , पर उस कर्म के हो चुकने और उनका कार्य पूर्ण होने के बाद भी उस कर्म का आध्यात्मिक प्रभाव बना रहता है; अथवा वे किसी आध्यात्मिक प्रभाव को प्रकटाने और किसी धार्मिक शिक्षा को देने के लिये भी प्रकट हो सकते हैं, किंतु उस हालत में भी, उस नये धर्म या साधना के क्षीण हो चुकने पर भी, मानवजाति के विचार , उसकी मनोवृत्ति और उसके बाह्म जीवन पर उनका स्थायी प्रभाव बना रहता है।
इसलिये अवतार - कार्य के गीतोक्त वर्णन को ठीक तरह से समझाने के लिये आवश्यक है कि हम धर्म शब्द के अत्यंत पूर्ण , अत्यंत गंभीर और अत्यंत व्यापक अर्थ को ग्रहण करें , धर्म को वह आंतर और बाह्म विधान समझें जिसके द्वारा भागवत संकल्प और भागवत ज्ञान मानवजाति का आध्यात्मिक विकास साधन करते हैं और जाति के जीवन में उसके विशिष्ट परिस्थितियां और उनके परिणाम निर्मित करते है। भारतीय धारणा के हिसाब से धर्म केवल शुभ, उचित , सदाचार , न्याय और आचारनीति ही नहीं बल्कि अन्य प्राणियों के साथ , प्रकृति और ईश्वर के साथ मनुष्यों के जितने भी संबंध है उन सबका संपूर्ण नियमन है और यह नियामक तत्व ही वह दिव्य धर्मतत्व है जो जगत् के सब रूपों और कर्मो के द्वारा , आंतर और बाह्म जीवन के विविध आकारों के द्वारा तथा जगत् में जितने प्रकार के परस्पर - संबंध हैं उनकी व्यवस्था के द्वारा अपने - आपको सिद्ध करता रहता है। धर्म१ वह है जिसे हम धारण करते हैं और वह भी जो हमारी सब आंतर और बाह्म क्रियाओं को एक साथ धारण किये रहता है। धर्म शब्द का प्राथमिक अर्थ हमारी प्रकृति का वह मूल विधान है जो गुप्त रूप से हमारे कर्मो को नियत करता है और इसलिये इस दृष्टि से प्रत्येक जीव , प्रत्येक वर्ण , प्रत्येक जाति , प्रत्येक व्यक्ति और समूह का अपना - अपना विशिष्ट धर्म धर्म शब्द ‘ धृ ’ धातु से बनता है जिसका अर्थ है धारण करना होता है ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:गीता प्रबंध