"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 217": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
('<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">गीता-प्रबंध</div> <div style="text-align:center; di...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
छो (Text replace - "गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-" to "गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. ")
पंक्ति ५: पंक्ति ५:
अहंभावापन्न स्वाधीन इच्छा की भावना के त्याग का अर्थ यह नहीं है कि कर्म बंद हो जायेग, क्योंकि कर्म करने वाली तो प्रकृति है और और वह इस अहंभावापन इच्छा - रूपी यंत्र को हटा देने पर भी अपना कर्म वैसे ही करती रहेगी जैसे उस समय करती थी जब प्रकृति के विकासक्रम की प्रक्रिया में यह यंत्र उपयोग में नहीं आया था। प्रकृति के लिये यह संभव हो सकता है कि जिस मनुष्य ने इस यंत्र का परित्याग कर दिया हो उसके अंदर और भी महत्तर कर्म का विकास कर सके; क्योंकि ऐसे मनुष्य का मन इस बात को अधिक अच्छी तरह से जान सकेगा कि उसकी प्रकृति अपने ही कर्म के फलस्वरूप इस समय कैसी बनी है, उसमें यह जानने की अधिक क्षमता होगी कि जो शक्तिया उसके इर्द - गिर्द हैं उनमें कौन - सी उसके विकास में साधक और कौन - सी बाधक हैं, तथा वह इस बात से भी अधिक अवगत होगा कि कौन - सी महत्तर संभावनाएं उसकी प्रकृति में छिपी पड़ी हैं जो अभी अव्यक्त हैं, लेकिन व्यक्त होने की क्षमता रखती हैं। यह मन जिन महत्तर संभवनओं को देखता है उन्हें कार्य में परिणत करने के लिये पुरूष की अनुमति प्राप्त करने का अधिक खुला हुआ माग्र बन सकता है तथा प्रकृति के प्रत्युत्तर के लिये - और परिणमस्वरूप विकास और सिद्धि के लिये - अच्छा हो सकता है । परंतु स्वाधीन इच्छा का त्याग किसी रूप में अपनी वास्तवकि आत्मा का आभास पाये बिना, केवल अदृष्टवाद को मानकर या प्रकृति की नियति को मानकर ही, नहीं होना चाहिये; क्योंकि तब तो हम अहंकार को ही अपनी आत्मा जानते रहेंगे और अहंकार सर्वदा प्रकृति का करण होता है अतः उसीसे कर्म करते रहेंगे और हमारी इच्छा प्रकृति का एक यंत्र बनी रहेगी, इससे हमारे अंदर कोई सास्तविक परिवर्तन न होगा, केवल हमारे बौद्धिक भाव में कुछ फेर - फार हो जायेगा।  
अहंभावापन्न स्वाधीन इच्छा की भावना के त्याग का अर्थ यह नहीं है कि कर्म बंद हो जायेग, क्योंकि कर्म करने वाली तो प्रकृति है और और वह इस अहंभावापन इच्छा - रूपी यंत्र को हटा देने पर भी अपना कर्म वैसे ही करती रहेगी जैसे उस समय करती थी जब प्रकृति के विकासक्रम की प्रक्रिया में यह यंत्र उपयोग में नहीं आया था। प्रकृति के लिये यह संभव हो सकता है कि जिस मनुष्य ने इस यंत्र का परित्याग कर दिया हो उसके अंदर और भी महत्तर कर्म का विकास कर सके; क्योंकि ऐसे मनुष्य का मन इस बात को अधिक अच्छी तरह से जान सकेगा कि उसकी प्रकृति अपने ही कर्म के फलस्वरूप इस समय कैसी बनी है, उसमें यह जानने की अधिक क्षमता होगी कि जो शक्तिया उसके इर्द - गिर्द हैं उनमें कौन - सी उसके विकास में साधक और कौन - सी बाधक हैं, तथा वह इस बात से भी अधिक अवगत होगा कि कौन - सी महत्तर संभावनाएं उसकी प्रकृति में छिपी पड़ी हैं जो अभी अव्यक्त हैं, लेकिन व्यक्त होने की क्षमता रखती हैं। यह मन जिन महत्तर संभवनओं को देखता है उन्हें कार्य में परिणत करने के लिये पुरूष की अनुमति प्राप्त करने का अधिक खुला हुआ माग्र बन सकता है तथा प्रकृति के प्रत्युत्तर के लिये - और परिणमस्वरूप विकास और सिद्धि के लिये - अच्छा हो सकता है । परंतु स्वाधीन इच्छा का त्याग किसी रूप में अपनी वास्तवकि आत्मा का आभास पाये बिना, केवल अदृष्टवाद को मानकर या प्रकृति की नियति को मानकर ही, नहीं होना चाहिये; क्योंकि तब तो हम अहंकार को ही अपनी आत्मा जानते रहेंगे और अहंकार सर्वदा प्रकृति का करण होता है अतः उसीसे कर्म करते रहेंगे और हमारी इच्छा प्रकृति का एक यंत्र बनी रहेगी, इससे हमारे अंदर कोई सास्तविक परिवर्तन न होगा, केवल हमारे बौद्धिक भाव में कुछ फेर - फार हो जायेगा।  


{{लेख क्रम |पिछला=गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-216|अगला=गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-218}}
{{लेख क्रम |पिछला=गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 216|अगला=गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 218}}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
<references/>

०७:४५, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण

गीता-प्रबंध
22.त्रैगुणातीत्य

इसी प्रकार अहंकार की अपनी स्वाधीन इच्छा की कल्पना भी उस सत्य का एक विकृत और स्थानभ्रष्ट भाव है जो बतलाता है कि हमारे अंदर एक स्वाधीन आत्म है और प्रकृति की इच्छा उसकी इच्छा का परिवर्तित और आंशिक प्रतिबिम्ब है, परिवर्तित और आंशिक इसलिये कि यह इच्छा क्षण - क्षण परिवर्तित होने वाले काल मे रहती और सतत नये - नये रूप धारण करके काम करती है जो अपने पूर्वरूपों को बहुत कुछ भूले रहते और स्वयं अपने ही परिणामों और लक्ष्यों को पूरा - पूरा नहीं जानते। परंतु अंदर की संकल्पशक्ति क्षण - क्षण परिवर्तित होने वाले काल के परे है, वह इन सबको जानती है, और हम कह सकते हैं कि, प्रकृति का जो कर्म हमारे अंदर होता है वह , इसी बात का प्रयास है कि अंतःस्थित संकल्प और ज्ञान के द्वारा अतिमानस - प्रकाश में जो कुछ पहले से देखा जा चुका है उसीको, प्राकृत और अहंभावापन्न अज्ञान की बडी़ कठिन अवस्थाओं में से होकर, कार्य - रूप में परिणत किया जाये। परंतु हमारी प्रगति के अंदर एक समय निश्चय ही ऐसा आयेगा जब हम अपनी आंखों को अपनी सत्ता के वास्तविक सत्य को देखने के लिये खोलने को तैयार होंगे और तब अहंभावापन्न स्वाधीन इच्छा का भ्रम अवश्य दूर हो जायेगा।
अहंभावापन्न स्वाधीन इच्छा की भावना के त्याग का अर्थ यह नहीं है कि कर्म बंद हो जायेग, क्योंकि कर्म करने वाली तो प्रकृति है और और वह इस अहंभावापन इच्छा - रूपी यंत्र को हटा देने पर भी अपना कर्म वैसे ही करती रहेगी जैसे उस समय करती थी जब प्रकृति के विकासक्रम की प्रक्रिया में यह यंत्र उपयोग में नहीं आया था। प्रकृति के लिये यह संभव हो सकता है कि जिस मनुष्य ने इस यंत्र का परित्याग कर दिया हो उसके अंदर और भी महत्तर कर्म का विकास कर सके; क्योंकि ऐसे मनुष्य का मन इस बात को अधिक अच्छी तरह से जान सकेगा कि उसकी प्रकृति अपने ही कर्म के फलस्वरूप इस समय कैसी बनी है, उसमें यह जानने की अधिक क्षमता होगी कि जो शक्तिया उसके इर्द - गिर्द हैं उनमें कौन - सी उसके विकास में साधक और कौन - सी बाधक हैं, तथा वह इस बात से भी अधिक अवगत होगा कि कौन - सी महत्तर संभावनाएं उसकी प्रकृति में छिपी पड़ी हैं जो अभी अव्यक्त हैं, लेकिन व्यक्त होने की क्षमता रखती हैं। यह मन जिन महत्तर संभवनओं को देखता है उन्हें कार्य में परिणत करने के लिये पुरूष की अनुमति प्राप्त करने का अधिक खुला हुआ माग्र बन सकता है तथा प्रकृति के प्रत्युत्तर के लिये - और परिणमस्वरूप विकास और सिद्धि के लिये - अच्छा हो सकता है । परंतु स्वाधीन इच्छा का त्याग किसी रूप में अपनी वास्तवकि आत्मा का आभास पाये बिना, केवल अदृष्टवाद को मानकर या प्रकृति की नियति को मानकर ही, नहीं होना चाहिये; क्योंकि तब तो हम अहंकार को ही अपनी आत्मा जानते रहेंगे और अहंकार सर्वदा प्रकृति का करण होता है अतः उसीसे कर्म करते रहेंगे और हमारी इच्छा प्रकृति का एक यंत्र बनी रहेगी, इससे हमारे अंदर कोई सास्तविक परिवर्तन न होगा, केवल हमारे बौद्धिक भाव में कुछ फेर - फार हो जायेगा।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:गीता प्रबंध