"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 6": अवतरणों में अंतर
[अनिरीक्षित अवतरण] | [अनिरीक्षित अवतरण] |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) ('<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">गीता-प्रबंध</div> <div style="text-align:center; di...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) छो (Text replace - "गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-" to "गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. ") |
||
पंक्ति ५: | पंक्ति ५: | ||
गीता की यह विचार धारा एक दूसरे को अलग करने वाली और एक करने वाली है। गीता का सिद्धांत केवल अद्वैत नहीं है यद्यपि इसके मत से एक ही अव्यय, विशुद्ध, सनातन आत्मतत्व अखिल ब्रह्मंड की स्थिति का आश्रय है; गीता का सिद्धांत मायावाद भी नहीं है यद्यपि इसके मत से सृष्ट जगत् में त्रिगुणात्मिका प्रकृति के माया सर्वत्र फैली हुई है; गीता का सिद्धांत विशिष्टाद्वैत भी नहीं है यद्यपि इसके मत से उसी पर एकमेवाद्वितीय परब्रह्म में लय नहीं, बल्कि निवास ही आध्यात्मिक चेतना की परा स्थिति है; गीता का सिद्धांत सांख्य भी नहीं यद्यपि इसके मत से यह सृष्ट जगत् प्रकृति-पुरुष के संयोग से ही बना है; गीता का सिद्धांत वैष्णवों का ईश्वरवाद भी नहीं है यद्यपि पुराणों के प्रतिपाद्य श्रीविष्णु के अवतार श्रीकृष्ण ही इसके परमाराध्य देवाधिदेव हैं और इनमें और अनिर्देश्य निर्विशेष ब्रह्म मे कोई तात्विक भेद नहीं है, न ब्रह्म का दर्जा किसी प्रकार से भी इन प्राणिनां ईश्वरः से ऊंचा ही है। गीता के पूर्व उपनिषदों में जैसा समन्वय हुआ है जो आध्यात्मिक होने के साथ-साथ बौद्धिक भी है और इसलिये इसमें ऐसा अनुदार सिद्धांत नहीं आने पाता जो इसकी सार्वलौकिक व्यापकता में बाधक हो। वेदांत के सबसे अधिक प्रामाणिक तीन ग्रंथों में से एक होने के कारण वाद-विवाद भाष्यकारों ने इस ग्रंथ का उपयोग स्वमत के मंडन तथा अन्य मतों और संप्रदायो के खंडन में ढाल और तलवार के तौर पर क्रिया है; परंतु गीता का हेतु यहा नहीं है; गीता का उद्देश्य ठीक इसके विपरीत है। | गीता की यह विचार धारा एक दूसरे को अलग करने वाली और एक करने वाली है। गीता का सिद्धांत केवल अद्वैत नहीं है यद्यपि इसके मत से एक ही अव्यय, विशुद्ध, सनातन आत्मतत्व अखिल ब्रह्मंड की स्थिति का आश्रय है; गीता का सिद्धांत मायावाद भी नहीं है यद्यपि इसके मत से सृष्ट जगत् में त्रिगुणात्मिका प्रकृति के माया सर्वत्र फैली हुई है; गीता का सिद्धांत विशिष्टाद्वैत भी नहीं है यद्यपि इसके मत से उसी पर एकमेवाद्वितीय परब्रह्म में लय नहीं, बल्कि निवास ही आध्यात्मिक चेतना की परा स्थिति है; गीता का सिद्धांत सांख्य भी नहीं यद्यपि इसके मत से यह सृष्ट जगत् प्रकृति-पुरुष के संयोग से ही बना है; गीता का सिद्धांत वैष्णवों का ईश्वरवाद भी नहीं है यद्यपि पुराणों के प्रतिपाद्य श्रीविष्णु के अवतार श्रीकृष्ण ही इसके परमाराध्य देवाधिदेव हैं और इनमें और अनिर्देश्य निर्विशेष ब्रह्म मे कोई तात्विक भेद नहीं है, न ब्रह्म का दर्जा किसी प्रकार से भी इन प्राणिनां ईश्वरः से ऊंचा ही है। गीता के पूर्व उपनिषदों में जैसा समन्वय हुआ है जो आध्यात्मिक होने के साथ-साथ बौद्धिक भी है और इसलिये इसमें ऐसा अनुदार सिद्धांत नहीं आने पाता जो इसकी सार्वलौकिक व्यापकता में बाधक हो। वेदांत के सबसे अधिक प्रामाणिक तीन ग्रंथों में से एक होने के कारण वाद-विवाद भाष्यकारों ने इस ग्रंथ का उपयोग स्वमत के मंडन तथा अन्य मतों और संप्रदायो के खंडन में ढाल और तलवार के तौर पर क्रिया है; परंतु गीता का हेतु यहा नहीं है; गीता का उद्देश्य ठीक इसके विपरीत है। | ||
{{लेख क्रम |पिछला=गीता प्रबंध -अरविन्द | {{लेख क्रम |पिछला=गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 5|अगला=गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 7}} | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== |
०८:०४, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण
कारण, ये केवल दार्शनिक बुद्धि की कल्पना की चमक या चकित करने वाली युक्ति नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक अनुभव के चिरस्थायी सत्य हैं, ये हमारी उच्चतम आध्यात्मिक संभावनाओं के प्रमाणयोग्य तथ्य है, और जो कोई इस जगत् के रहस्य को तहतक पहुंचाना चाहता है वह इनकी उपेक्षा कदापि नहीं कर सकता। इसकी विवेचन-पद्धति कुछ भी हो, इसका हेतु खास दार्शनिक मत का समर्थन करना या किसी विशिष्ट योग की पुष्टि करना नहीं है, जैसा कि भाष्यकार प्रमाणित करने की चेष्टा करते हैं। गीता की भाषा, इसके विचारों की रचना, विविध भावनाओं का इसमें संयोग और उनका संतुलन ये सब बातें ऐसी हैं कि जो किसी सांप्रदायिक आचार्य के मिजाज में नहीं हुआ करतीं, न एक-एक पद को कसौटी पर कसकर देखने वाली नैयायिक बुद्धि में ही आया करती हैं, क्योंकि उसे तो सत्य के किसी एक पहलू को ग्रहण कर बाकी सबको छांटकर अलग कर देने की पड़ी रहती है। परंतु गीता की विचारधारा व्यापक है, उसकी गति तरंगों की तरह चढ़ाव-उतारवाली और नानाविध भावों का आलिंगन करने वाली है जो किसी विशाल समन्वयात्मक बुद्धि और सुसंपन्न समन्वयात्मक अनुभूति का प्रत्यक्ष प्रमाण है। यह उन महान् समन्वयों में से है जिनकी सृष्टि करने में भारत की अध्यात्मिकता उतनी ही समृद्ध है जितनी कि वह ज्ञान की अत्यंत प्रगाढ़ और अनन्यसाधारण क्रियाओं तथा धार्मिक साक्षात्कारों की सृष्टि करने में समृद्ध है, जो किसी एक ही साधन सूत्र पर केंद्रित होते हैं और एक ही मार्ग की पराकाष्ठा तक पहुंचते हैं ।
गीता की यह विचार धारा एक दूसरे को अलग करने वाली और एक करने वाली है। गीता का सिद्धांत केवल अद्वैत नहीं है यद्यपि इसके मत से एक ही अव्यय, विशुद्ध, सनातन आत्मतत्व अखिल ब्रह्मंड की स्थिति का आश्रय है; गीता का सिद्धांत मायावाद भी नहीं है यद्यपि इसके मत से सृष्ट जगत् में त्रिगुणात्मिका प्रकृति के माया सर्वत्र फैली हुई है; गीता का सिद्धांत विशिष्टाद्वैत भी नहीं है यद्यपि इसके मत से उसी पर एकमेवाद्वितीय परब्रह्म में लय नहीं, बल्कि निवास ही आध्यात्मिक चेतना की परा स्थिति है; गीता का सिद्धांत सांख्य भी नहीं यद्यपि इसके मत से यह सृष्ट जगत् प्रकृति-पुरुष के संयोग से ही बना है; गीता का सिद्धांत वैष्णवों का ईश्वरवाद भी नहीं है यद्यपि पुराणों के प्रतिपाद्य श्रीविष्णु के अवतार श्रीकृष्ण ही इसके परमाराध्य देवाधिदेव हैं और इनमें और अनिर्देश्य निर्विशेष ब्रह्म मे कोई तात्विक भेद नहीं है, न ब्रह्म का दर्जा किसी प्रकार से भी इन प्राणिनां ईश्वरः से ऊंचा ही है। गीता के पूर्व उपनिषदों में जैसा समन्वय हुआ है जो आध्यात्मिक होने के साथ-साथ बौद्धिक भी है और इसलिये इसमें ऐसा अनुदार सिद्धांत नहीं आने पाता जो इसकी सार्वलौकिक व्यापकता में बाधक हो। वेदांत के सबसे अधिक प्रामाणिक तीन ग्रंथों में से एक होने के कारण वाद-विवाद भाष्यकारों ने इस ग्रंथ का उपयोग स्वमत के मंडन तथा अन्य मतों और संप्रदायो के खंडन में ढाल और तलवार के तौर पर क्रिया है; परंतु गीता का हेतु यहा नहीं है; गीता का उद्देश्य ठीक इसके विपरीत है।
« पीछे | आगे » |