"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 65": अवतरणों में अंतर

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गीता-प्रबंध
7.आर्य क्षत्रिय -धर्म

क्षत्रिय के लिये सबसे बड़ा शोक क्या है ? वह है उसकी आन की हानि ,उसकी कीर्ति की हानि ,शूरवीरों में, बलवान और साहसी पुरूषों में उसका जो उच्च स्थान है उसे च्युति ; उसके लिये यह मरण से भी बुरा है । संग्राम , साहस, शक्ति, शासन , वीरों का मान और युद्ध में वीरगति- यह है योद्धा का आदर्श । इस आदर्श को गिराना, इस मान पर छीटें पड़ने देना , वीरों में ऐसे वीर का उदाहरण रखना जो स्वयं कायरता और दुर्बलता से कलंकित हो और इस प्रकार मानव जाति के नैतिक मानदण्ड को नीचे गिराना अपने प्रति असत्याचरण है ओर जगत् अपने नेताओं व राजाओं से जैसी आशा करता है उसका अपलाप है । “ रण में मारा जायेगा तो स्वर्ग लाभ करेगा , जीतेगा तो पृथ्वी पर राज करेगा ; इसलिये , हे कुन्ती - पुत्र , युद्ध का निश्चय करके उठ।“[१] इस स्थल से पहले जिस समत्वपूर्ण आध्यात्मिकता का उपदेश हुआ है और इस स्थल के आगे जिस गंभीरता आध्यात्मिकता की चर्चा होगी, उनके सामने यह वीरोचित पुकार नीचे दर्जे की प्रतीत होती है ; क्योंकि बाद के ही श्लोक में अजुन को यह उपदेश दिया जाता है कि सुख- दु:ख , लाभालाभ और जयाजय में समता बनाये रखकर युद्ध कर और यही गीता का वास्तविक उपदेश्य है।
परंतु भारतीय धर्म शास्त्र ने मनुष्य के विकासोन्मुख नैतिक और आध्यात्मिक जीवन के लिये उत्तरोत्तर बढते हुए आर्दशों की व्यावहारिक आवश्यकता ही सदा अनुभव किया है । यहां क्षत्रिय का जो आदर्श सामने रखा गया है व चातुर्वण्र्य के अनुसार सामाजिक दृष्टि से रखा गया है, इसकी जो आध्यात्मिक दृष्टि आगे चलकर दिखायी गयी है उस दृष्टि से नहीं । श्रीकृष्ण यहां अर्जुन से वास्तव में यही कह रहे हैं, कि “ यदि तू सुख और दु:ख और कर्म के परिणाम का हिसाब लगाकर ही अपने कर्तव्य या कर्तव्य का निश्चय करना चाहता है तो मेरा यही जवाब है । मैं पहले बता चुका हूं कि आत्मा और जगत् का जो उच्चतम ज्ञान है उस दृष्टि से तेरा क्या कर्तव्य है और अब मैंने यह भी बताया कि तेरा सामाजिक कर्तव्य और तेरा अपना नैतिक आदर्श तुझे किस ओर चलने का इशारा करता है - तू चाहे जिस भी पहलू से देख परिणाम एक ही है । परंतु, यदि तुझे अपने सामाजिक कर्तव्य और वर्णधर्म से संतोष न होता हो , और समझता हो कि उससे तू दु:ख ओर पाप का भागी बनेगा तो मेरा आदेश है कि तुझे किसी हीन आदर्श की ओर नीचे गिरने की अपेक्षा किसी ऊंचे आदर्श की ओर ऊपर उठना चाहिये। अहंकार का सर्वथा त्यागकर दु:ख की ,लाभ - हानि की तथा ऐहिक परिणामों की परवाह न कर ; बल्कि उस हेतु पर अपनी दृष्टि रख जिसकी पूर्ति में तुझे सहायक होना है और उस काम की ओर ध्यान दे जिसे मुझे सिद्ध करना है और जो भगवन्निर्दिष्ट है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 3.3

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