"भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 101": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
('<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">अध्याय-2<br /> सांख्य-सिद्धान्...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
No edit summary
पंक्ति ९: पंक्ति ९:
जिसे किसी भी वस्तु के प्रति स्नेह नहीं है, जो प्राप्त होने वाले शुभ और अशुभ को पाकर न प्रसन्न होता है और न अप्रसन्न होता है, उसकी बुद्धि (ज्ञान में) दृढ़ता से स्थित हो गई है।
जिसे किसी भी वस्तु के प्रति स्नेह नहीं है, जो प्राप्त होने वाले शुभ और अशुभ को पाकर न प्रसन्न होता है और न अप्रसन्न होता है, उसकी बुद्धि (ज्ञान में) दृढ़ता से स्थित हो गई है।
फूल खिलते हैं और फिर वे मुरझाते हैं। इनमें से पहले की स्तुति करने और दूसरे की निन्दा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जो कुछ भी हमारे सम्मुख आए, उसे हमें आवेश, दुःख या विद्रोह के बिना ग्रहण करना चाहिए।
फूल खिलते हैं और फिर वे मुरझाते हैं। इनमें से पहले की स्तुति करने और दूसरे की निन्दा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जो कुछ भी हमारे सम्मुख आए, उसे हमें आवेश, दुःख या विद्रोह के बिना ग्रहण करना चाहिए।
 
58.यदा संहरते चायं  कूर्माेअंगनीव सर्वशः ।
 
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठा।।
जो व्यक्ति इन्द्रियों के विषयों में अपनी इन्द्रियों को सब ओर से वैसे ही खींच लेता है,  जैसे कछुआ अपने अंगों को (अपने खोल के अन्दर) खींच लेता है,उसकी बुद्धि (ज्ञान में) दृढ़ता से स्थित हो जाती है।
</poem>
</poem>
{{लेख क्रम |पिछला=भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 100|अगला=भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 102}}
{{लेख क्रम |पिछला=भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 100|अगला=भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 102}}

०६:४२, २४ सितम्बर २०१५ का अवतरण

अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास कृष्ण द्वारा अर्जुन की भत्र्सना और वीर बनने के लिए प्रोत्साहन

  
56.दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।।
जिसका मन दुःखों में बेचैन होता और जिसे सुखों में अधीरपूर्णलालसा नहीं रहती, जो राग, भय और क्रोध से मुक्त हो गया है, वह स्थित-बुद्धि मुनि कहलाता है।यह है आत्म-स्वामित्व, जिसमें इच्छाओं और वासनाओं को जीतने पर जोर दिया गया है।[१]
57.यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तप्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।
जिसे किसी भी वस्तु के प्रति स्नेह नहीं है, जो प्राप्त होने वाले शुभ और अशुभ को पाकर न प्रसन्न होता है और न अप्रसन्न होता है, उसकी बुद्धि (ज्ञान में) दृढ़ता से स्थित हो गई है।
फूल खिलते हैं और फिर वे मुरझाते हैं। इनमें से पहले की स्तुति करने और दूसरे की निन्दा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जो कुछ भी हमारे सम्मुख आए, उसे हमें आवेश, दुःख या विद्रोह के बिना ग्रहण करना चाहिए।
58.यदा संहरते चायं कूर्माेअंगनीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठा।।
जो व्यक्ति इन्द्रियों के विषयों में अपनी इन्द्रियों को सब ओर से वैसे ही खींच लेता है, जैसे कछुआ अपने अंगों को (अपने खोल के अन्दर) खींच लेता है,उसकी बुद्धि (ज्ञान में) दृढ़ता से स्थित हो जाती है।
 


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. . ल्सूक्रेशयस से तुलना कीजिएः ’’धर्म इस बात में नहीं है कि वस्त्रों से ढके पत्थर की ओर अविराम मुंह करके रहा जाए, न इसमें कि सब मन्दिरों की वेदियों के पास जाया जाए, न इसमें कि पृथ्वी पर लेटकर साष्टांग प्रणाम किया जाए; न इसमें कि देवताओं के निवास के सम्मुख हाथ ऊपर उठाए जाएं; न इसमें कि मन्दिरों में पशुओं का रक्त बहाया जाए; न इसमें कि शपथों पर शपथें खाई जाएं; अपितु इसमें है कि सबको शान्तिमयी आत्मा के साथ देखा जाए।’’ - डि रेरम नाट्युरा।

संबंधित लेख

साँचा:भगवद्गीता -राधाकृष्णन