महाभारत अादि पर्व अध्याय 1 श्लोक 79-94

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प्रथम (1) अध्‍याय: आदि पर्व (अनुक्रमणिकापर्व)

महाभारत: अादि पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 79-94

यह सुनकर विघ्नराज श्री गणेश जी ने कहा–व्यास जी ! यदि लिखते समय क्षण भर के लिये भी मेरी लेखनी न रूके तो मैं इस गन्थ का लेखक बन सकता हूँ। व्यास जी ने भी गणेश जी से कहा –‘बिना समझे किसी भी प्रसंग में एक अक्षर भी न लिखियेगा।‘ गणेश जी ने ‘ॐ’ कहकर स्वीकार किया और लेखक बन गये। तब व्यास जी भी कौतूहलवश ग्रन्थ में गाँठ लगाने लगे, वे ऐसे –ऐसे श्लोक बोल देते जिनका अर्थ बाहर से दूसरा मालूम पड़ता और भीतर कुछ और होता। इसके सम्बन्ध में प्रतिज्ञापूर्वक श्री कृष्ण द्वैपायन मुनि ने यह बात कही है। इस ग्रन्थ में 8800 ( आठ हजार आठ सौ श्लोक) ऐसे हैं, जिनका अर्थ मैं समझता हूँ, शुकदेव समझते हैं और संजय समझते हैं या नहीं, इसमें संदेह है। मुनिवर ! वे कूट श्लोक इतने गुथे हुए और गम्भीरार्थक हैं कि आज भी उनका रहस्य-भेदन नहीं किया जा सकता; क्योंकि उनका अर्थ भी गूढ़ है और शब्द भी योगवृत्ति और रूढ़वृत्ति और आदि रचना वैचित्र्य के कारण गम्भीर हैं।

स्वयं सर्वज्ञ गणेश जी भी उन श्लोकों का विचार करते समय क्षण भर के लिये ठहर जाते थे। इतने समय में व्यास जी भी और बहुत से श्लोकों की रचना कर लेते थे। संसारी जीव अज्ञानान्धकार से अन्धे होकर छटपटा रहे हैं। यह महाभारत ज्ञानाञ्जन की शलाका लगाकर उनकी आँख खोल देता है। वह शलाका क्या है? धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप पुरूषार्थों का संक्षेप और विस्तार से वर्णन। यह न केवल अज्ञान की रतौंधी दूर करता, प्रत्युत सूर्य के समान उदित होकर मनुष्यों की आँख के सामने का सम्पूर्ण अन्धकार ही नष्ट कर देता है। यह भारत-पुराण पूर्ण चन्द्रमा के सामने है, जिससे श्रुतियों की चाँदनी छिटकती है और मनुष्यों की बु‍द्धिरूपी कुमुदिनी सदा के लिये खिल जाती है। यह भारत-इतिहास एक जाज्वल्यमान दीपक है। यह मोह अन्धकार मिटाकर लोगों के अंत:करण रूपी सम्पूर्ण अन्तरंग गृह को भलीभाँति ज्ञानालोक से प्रकाशित कर देता है।

महाभारत वृक्ष का बीज है पर्वसंग्रहध्याय और जड़ है पौलोम एवं आस्तीक पर्व। सम्भाव पर्व इसके स्कन्ध का विस्तार है और सभा तथा अरण्य पर्व पक्षियों के रहने योग्य कोटर हैं। अरणी पर्व इस वृक्ष का ग्रन्थि स्थल है। विराट और उद्योग पर्व इसका सारभाग है। भीष्म पर्व इसकी बड़ी शाखा है और द्रोण पर्व इसके पत्ते हैं। कर्ण पर्व इसके श्वेत पुष्प हैं और शल्य पर्व सुगन्ध। स्त्री पर्व और ऐषीक पर्व इसकी छाया है तथा शान्ति पर्व इसका महान फल है। आश्वमेधिक पर्व इसका अमृतमय रस है और आश्रमवासिक पर्व आश्रम लेकर बैठने का स्थान। मौसल पर्व श्रुतिरूपा ऊँची-ऊँची शास्त्रों का अन्तिम भाग है तथा सदाचार एवं विद्या से सम्पन्न द्विजाति इसका सेवन करते हैं। संसार में जितने भी श्रेष्ठ कवि होंगे उनके काव्य के लिये यह मूल आश्रय होगा। जैसे मेघ सम्पूर्ण प्राणियों के लिये जीवनदाता है, वैसे ही यह अक्षय भारत-वृक्ष है। उग्रश्रवा जी कहते हैं—यह भारत एक वृक्ष है, इसके स्वादु, पवित्र, सरस एवं अविनाशी पुष्प तथा फल हैं-धर्म और मोक्ष। उन्हें देवता भी इस वृक्ष से अलग नहीं कर सकते; अब मैं उन्हीं का वर्णन करूँगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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