महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-5

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पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

योद्धाओं के धर्म का वर्णन तथा रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा

महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-5 का हिन्दी अनुवाद

अतः संग्रामभूमि में पहुँच जाने पर निर्भय होकर शत्रु पर प्रहार करना चाहिये। जो हथियार उठाकर संग्राम में निर्भय होकर प्रहार करता है, धर्मात्माओं में श्रेष्ठ उस वीर को निस्संदेह सभी धर्म प्राप्त होते हैं। ठीक उसी तरह जैसे महासागर में सहस्त्रों नदियाँ आकर मिलती है। धर्म ही, यदि उसका हनन किया जाय तो मारता है और धर्म ही सुरक्षित होने पर रक्षा करता है, अतः प्रत्येक मनुष्य को, विषेषतः राजा को धर्म का हनन नहीं करना चाहिये।। जहाँ राजा धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करता है तथा जहाँ पितरों और देवताओं के साथ षट्कर्मपरायण ब्राह्मणों की पूजा होती है, उस देष में न तो कभी अनावृष्टि होती है, न रोगों का आक्रमण होता है और न किसी तरह के उपद्रव ही होते हैं। राजा के स्वधर्मपरायण होने पर वहाँ की सारी प्रजा धर्मशील होती है। देवि! प्रजा को सदा ऐसे नरेश की इच्छा रखनी चाहिये, जो सदाचारी तो हो ही, देश में सब ओर गुप्तचर नियुक्त करके शत्रुओं के छिद्रों की जानकारी रखता हो। सदा ही प्रमादशून्य और प्रतापी हो।। सुश्रोणि! पृथ्वी पर बहुत से ऐसे क्षुद्र मनुष्य हैं, जो राजाओं का महान् विनाश करने पर तुले रहते हैं, अतः विद्वान् राजा को कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये (आत्मरक्षा के लिये सदा सावधान रहना चाहिये।)। पहले के छोड़े हुए मित्रों पर, अन्यायन्य मनुष्यों पर, हाथियों पर कभी विष्वास नहीं करना चाहिये। प्रतिदिन के स्नान और खानपान में भी किसी का पूर्णतः विश्वास करना उचित नहीं है। जो राष्ट्र के हित के लिये, गौ और ब्राह्मणों के उपकार के लिये, किसी को बन्धन से मुक्त करने के यिे और मित्रों की सहायता के निमित्त अपने दुस्त्यज प्राणों का परित्याग कर देता है, वह राजा केा प्रिय होता है और अपने कुल को उन्नति के शिखर पर पहुँचा देता है। वरारोहे! यदि कोई सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाली कामधेनु को तथा पर्वत और वनों सहित समुद्रपर्यन्त लोकधारिणी पृथ्वी को धन से परिपूर्ण करके द्विजों को दान कर देता है, उसका वह दान भी पूर्वोक्त प्राणत्यागी योद्धा के त्याग के समान नहीं है। वह प्राणत्यागी ही उस दाता से बढ़कर है। जिसके पास धन और सम्पत्ति है, वह सहस्त्रों यज्ञ कर सकता है। उसके उन यज्ञों से कौन सी आश्चर्य की बात हो गयी।! प्राणों का परित्याग करना तो सभी के लिये अत्यन्त दुष्कर है। अतः सम्पूर्ण यज्ञों में प्राणयज्ञ ही बढ़कर है। देवि! इस प्रकार मैंने तुम्हारे समक्ष रणयज्ञ का यथार्थरूप से वर्णन किया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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