महाभारत सभा पर्व अध्याय 80 श्लोक 1-17

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अशीतितम (80) अध्‍याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: अशीतितम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


वन गमन के समय पाण्‍डवों की चेष्‍टा और प्रजाजनों की शोकातुरता के विषय में धृतराष्‍ट्र तथा विदुर का संवाद और शरणागत कौरवों को द्रोणाचार्य का आश्‍वासन

वैशम्‍पायनजी कहते हैं—जनमेजय ! दूरदर्शी विदुरजी के आने पर अभिकानन्‍दन राजा धृतराष्‍ट्र ने शंकित सा होकर पूछा। धृतराष्‍ट्र बोले—विदुर ! कुन्‍तीनन्‍दन धर्मपुत्र युधिष्ठिर किस प्रकार जा रहे हैं ? भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव-ये चारों पाण्‍डव भी किस प्रकार यात्रा करते है ? पुरोहित धौम्‍य तथा यशस्विनी द्रौपदी भी कैसे जा रही है ? मैं उन सबकी पृथक्-पृथक् चेष्‍टाओं को सुनना चाहता हूँ, तुम मुझसे कहो। विदुर बोले—कुन्‍तीनन्‍दन युधिष्ठिर वस्‍त्र से मुँह ढँककर जा रहे हैं । पाण्‍डुकुमार भीमसेन अपनी विशाल भुजाओं की ओर देखते हुए जाते हैं। सव्‍यसाची अर्जुन बालू बिखेरते हुए राजा युधिष्ठिर के पीछे-पीछे जा रहे हैं । माद्रीकुमार सहदेव अपने मुँह पर मिट्टी पोतकर जाते हैं। लोक में अत्‍यन्‍त दर्शनीय मनोहर रूपवाले नकुल अपने सब अंगों में धूल लपेटकर ध्‍याकुलचित्त हो राजा युधिष्ठिर का अनुसरण कर रहे हैं। परम सुन्‍दरी विशाल लोचना कृष्‍णा अपने केशों से ही मुँह ढँककर रोती हुर्इ राजा के पीछे-पीछे जा रही है। महाराज ! पुरोहित धौम्‍यजी हाथ में कुश लेकर रूद्र तथा यमदेवता सम्‍बन्‍धी साम-मन्‍त्रों का गान करते हुए आगे-आगे मार्ग पर चल रहे हैं। धृतराष्‍ट्र ने पूछा—विदुर ! पाण्‍डव लोग यहाँ जो भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार की चेष्‍टृाएँ करते हुए यात्रा कर रहे हैं, उसका क्‍या रहस्‍य है, यह बताओ । वे क्‍यों इस प्रकार जा रहे हैं ? विदुर बोले—महाराज ! यद्यपि आपके पुत्रों ने छलपूर्ण बर्ताव किया है । पाण्‍डवों का राज्‍य और धन सब कुछ चला गया है तो भी परम बुद्धिमान धर्मराज युधिष्ठिर की बुद्धि धर्म से विचलित नहीं हो रही है। भारत ! राजा युधिष्ठिर आपके पुत्रों पर सदा दयाभाव बनाये रखते थे, किंतु इन्‍होंने छलपूर्ण जूए का आश्रय लेकर उन्‍हें राज्‍य से वच्चित किया है, इससे उनके मन में बड़ा क्रोध है और इसीलिये वे अपनी आँखों को नहीं खोलते हैं।‘ मैं भयानक दृष्टि से देखकर किसी (निरपराधी) मनुष्‍य को भस्‍म न कर डालूँ’ इसी भय से पाण्‍डुपुत्र राजा युधिष्ठिर अपना मुँह ढँककर जा रहे हैं। अब भीमसेन जिस प्रकार चल रहे हैं, उसका रहस्‍य बताता हूँ, सुनिये ! भरतश्रेष्‍ठ ! उन्‍हें इस बात का अभिमान है कि बाहुबल में मेरे दूसरा कोई नहीं है। इसीलिये वे अपनी विशाल भुजाओं की ओर देखते हुए यात्रा करते हैं । राजन् ! अपने बाहुबलरूपी वैभव पर उन्‍हें गर्व है । अत: वे अपनी दोनों भुजाएँ दिखाते हुए शत्रुओं से बदला लेने के लिये अपने बाहुबल के अनुरूप ही पराक्रम करन चाहते हैं। कुन्‍तीपुत्र सव्‍यसाची अर्जुन उस समय राजा के पीछे-पीछे जो बालू बिखेरते हुए यात्रा कर रहे थे, उसके द्वारा वे शत्रुओं पर बाण बरसाने की अभिलाषा व्‍यक्‍त करते थे । भारत ! इस समय उनके गिराये हुए बालू के कण जैसे आपस में संसक्‍त न होते हुए लगातार गिरते हैं, उसी प्रकार वे शत्रुओं पर परस्‍पर संसक्‍त न होने वाले अपंख्‍य बाणों की वर्षा करेंगे। भारत ! ‘आज इस दुर्दिन में कोई मेरे मुँह को पहचान न ले’ यह सोचकर सहदेव अपने मुँह में मिटृी पोतकर जा रहे हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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