गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 231
पहले योग - पर्वत की चढ़ाई चढ़ते हुए करने होगें, क्योंकि वहां कर्म ‘कारण’ हैं। कारण किसके ? आत्मसंसिद्धि के, मुक्ति के, ब्रह्म - निर्वाण के; क्योंकि आंतरिक संन्यास के निरंतर अभ्यास के साथ कर्म करने से यह संसिद्धि , यह मुक्ति , वासनात्मक मन , अहंबुद्धि और निम्न प्रकृति पर यह विजय अनायास प्राप्त होती है। पर जब कोई चोटी पर पहुंच जाता है तब ? तब कर्म कारण नहीं रह जाते , कर्म के द्वारा प्राप्त आत्मवशित्व और आत्मवत्ता की शांति कारण बन जाती है । लेकिन कारण किस चीज का? आत्मस्वरूप में, ब्रह्म - चैतन्य में स्थित बने रहने और उस पूर्ण समत्व को बनाये रखने का कारण बनती है जिसमें स्थित होकर मुक्त पुरूष दिव्य कर्म करता है। क्योंकि ‘‘ जब कोई इन्द्रियों के अर्थो में और कर्मो में आसक्त नहीं होता और मन के सब वासनात्मक संकल्पों को त्याग चुकता है तो उसे योग - शिखर पर आरूढ़ कहते हैं।”[१] हम यह जान चुके हैं कि , मुक्त पुरूष के सब कर्म इसी भाव के साथ होते हैं।
वह कामनारहित, आसक्तिरहित होकर कर्म करता है, उसमें कोई अहंभापन्नन व्यक्तिगत इच्छा नहीं होती , वासना का जनक मनोत स्वार्थ नहीं होता। उसकी निम्नतर आत्मा उसके वश में होती है, वह उस परा शांति को पहुंचा हुआ होता है जहां उसकी परम आत्मा उसके सामने प्रकट रहती है - वह परम आत्मा जो सदा अपनी सत्ता में – ‘समाहित’ है , समाधिस्थ है; केवल अपनी चेतना की अंतर्मुखीन अवस्था में ही नहीं, बल्कि सदा ही, मन की जागत् अवस्था में भी, जब वासना और अशांति के कारण मौजूद हों तब भी, शीतोष्ण , सुख - दुःख तथा मानापमानादि द्वन्द्वो के प्रत्यक्ष प्रसंगों में भी[२] समाहित रहती है। यह उच्चतर आत्मा कूटस्थ अक्षर पुरूष है जो प्रकृत पुरूष के सब प्रकार के परिवर्तनों और विक्षोभों के ऊपर रहती है; और योगी उसके साथ योगयुक्त तब कहा जाता है जब वह भी उसके समान कूटस्थ हो, जब वह सब प्रकार के बाह्म दृश्यों और परिवर्तनों के ऊपर उठ जाये, जब वह आत्मज्ञान से परितृप्त हो और जब वह पदार्थो , घटनाओं और व्यक्तियों के प्रति समचित्त हो जाये।
परंतु इस योग को प्राप्त करना सुगम बात नहीं है, जैसा कि अर्जुन वास्तव में आगे चलकर सूचित करता है , क्योंकि यह चंचल मन सदा ही बाह्म पदार्थो के आक्रमणों के कारण इस उच्च अवस्था से खिंच आता है और फिर से शोक, आवेश और वैषम्य के जोरदार कब्जे में जा गिरता है।
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