ग्वाल
ग्वाल
| |
पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4 |
पृष्ठ संख्या | 95 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
लेखक | आचार्य रामचंद्र शुक्ल |
संपादक | फूलदेव सहाय वर्मा |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
स्रोत | आचार्य रामचंद्र शुक्ल : हिंदी साहित्य का इतिहास ; विश्वनाथप्रसाद मिश्र : हिंदी साहित्य का अतीत, भा. २; हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास- संपादक डा. नगेंद्र; डॉ. भगीरथ मिश्र : हिंदी काव्यशास्त्र का इतिहास, हिंदी साहित्य कोश, भा. २। |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | रामफेर त्रिपाठी |
ग्वाल शिवसिंह ने अपने 'सरोज में ग्वाल प्राचीन- जो संख्या. १७१५ में वर्तमान थे तथा जिनकी रचनाएँ 'कालिदास- हजारा' में हैं- और ग्वाल मथुरावासी बंदीजन-जिन्हें संख्या. १८७९ में उपस्थित कहा गया है- नाम से दो कवियों का उल्लेख किया है, किंतु इनमें विशेष प्रख्यात और प्रसिद्ध दूसरे ग्वाल ही हैं- श्री जगदंबा की कृपा, ताकरि भयो प्रकस। बासी वृंदाबिपिन के, श्री मथुरा सुखवास।। विदित विप्र बंदी बिसद, बरने व्यास पुरान। ता कुल सेवाराव को, सुत कवि ग्वाल सुजान।। नवाब रामपुर (उत्तर प्रदेश) के दरबार के अमीर अहमद मीनाई ने संख्या. १९३० में 'इतंख़ाबे यादगार' नाम के एक पुस्तक लिखी जिसमें उन्होंने अपने समकालीन और निकटवर्ती कवि ग्वाल की भी चर्चा की है। उनके अनुसार ग्वाल का जन्म सं. १८५९ में हुआ था। इनके गुरु दयाल जी बतए जाते हैं और मथुरावासी स्वामी विरजानंद, जो स्वामी दयानंद के गुरु थे, से भी इनका काव्यप्रकाश का अध्ययन करना कहा जाता है। तत्पश्चात् ये पंजाब केसरी महाराजा रणजीतसिंह के यहाँ गए जहाँ २० रु. दैनिक वेतन पर काम करने लगे। रणजीतसिंह की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी पुत्र शेरसिंह से इन्हें पर्याप्त सम्मान मिला और जागीर भी। शेरसिंह के मारे जाने पर ये रामपुर के नवाब युसूफअली खाँ के यहाँ उनके बुलाने पर गए। सात महीने बिताकर नवाब की इच्छा के विरुद्ध ये रामपुर छोड़कर चले आए। इनके अतिरिक्त इनका संबंध नाभानरेश जसवंतसिंह और राजस्थान के टोंक के नवाब आदि अनेक राजाओं से भी था। इनका काव्यकाल संख्या. १८७९ से संख्या. १९१८ तक माना जाता है। सं. १९२४ (१६ अगस्त, १८६७ ई.) में ६५वें वर्ष इनका निधन हुआ। इनके खूबचंद (या रूपचंद) और खेमचंद दो पुत्र भी कहे गए हैं।
ग्वाल प्रकृति से स्वच्छंद, फवकड़ और धुमक्कड़ भी खूब थे। घूमने के बल पर ही, कहा जाता है उन्होंने १९ भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया था। अध्ययन इनका प्रगाढ़ और गंभीर था। सस्कृंत एवं हिंदीसाहित्य का इन्होंने अच्छा अनुशीलन किया था जिसका पता इनकी रचनाओं के पीछे व्याप्त इनकी समीक्षादृष्टि देती है। रहन सहन इनके राजा महाराजाओं के समान ही बड़ी ठाटबाटदार होती थी। शतरंज इनका प्रिय खेल था। छंद पढ़ने की शैली बड़ी ललित थी।
ग्वाल की रचनाओं की संख्या ५० से भी ऊपर बताई जाती है। मीनाई ने इनकी १४ रचनाएँ बताई हैं। नागरीप्रचारिणी सभा, काशी द्वारा प्रकाशित, बीच बीच में कतिपय खोज विवरणों को छोड़कर, निरंतर सन् १९०० के वार्षिक रिपोर्ट से लेकर १९३८-४० ई. तक के त्रैवार्षिक रिपोर्टों में अबतक ग्वालकृत जो रचनाएँ देखी गई हैं, संक्षिप्त परिचय के साथ उनके नाम हैं : (१) 'यमुनालहरी' (रचनाकाल सं. १८७९, यमुना-कश-कथन, ऋतुवर्णन तथा स्फुट कवित्त, नवलकिशोर प्रैंस, लखनऊ से १९२४ ई. में प्रकाशित); (२) 'रसिकानंद' (जसवंतसिंह के प्रीत्यर्थ इसकी रचना सं. १८७९ में हुई, अलंकारग्रंथ), (३) 'रसरंग' (र. का. स. १९०४, रसांगों सहित सारे रसों और नायिकाभेद का वर्णन), (४) 'अलंकार-भ्रम-भंजन' (इसकी सन् १९३२-३४ के खोज विवरण संख्या ७३ ए. में जो हस्तलिखित प्रति देखी गई है उसका लिपिकाल सं. १९२२ वि. दिया गया है, अलंकारग्रंथ), (५) 'नखशिख' (श्रीकृष्ण जू को नखशिख भो इसी का नाम, र. का. सं. १८८४ वि., लक्ष्मीनारायण प्रेस, मुरादाबाद से प्रकाशित, श्रीकृष्ण का नखशिख- सौदर्यं वर्णन), (६) 'हम्मीरहठ' (र. का. सं. १८८३ वि., वीरसात्मक ग्रंथ), (७) 'भक्तिभावन या भक्तभावन' (रं. का. सं. १९१९ वि., भक्तिविषयक संग्रहग्रंथ), (८) 'दूषणदर्पण' (रं. का. सं. १८९१ वि., काव्य-दोष-वर्णन), (९) 'गोपी पच्चीसी' (उद्धव-गोपी-संवाद-वर्णन), (१०) 'बंसीबसा' (बंसीलीला भी इसी का नाम, श्रीकृष्ण की वंशी के अद्भुत प्रभावों का वर्णन), (११) 'कविहृदयविनोद' (संग्रहग्रंथ), (१२) 'प्रस्तवाक कबित्त' (प्रस्तावक काव्य), (१३) 'होरी आदि के छंद' (कृष्ण और गोपियों के होली खेलने का वर्णन), (१४) 'कवित बसंत' (बंसत के संदर्भ में विप्रलंभ शृंगार वर्णन), (१५) प्रस्तारप्रकाश (पिंगलरूपक ग्रंथ), (१६) लक्षण व्यजंना (भेदोपभेदसहित शब्दशक्तियों का विवेचन), (१७) कवित्त संग्रह, (१८) शांत रसादि कबित्त, (१९) ग्वाल कवि के कबित (संग्रहग्रंथ), (२०) षड्ऋतु संबंधी कबित्त, (२१) ग्रीष्मादि ऋतुओं के कबित, (२२) कविदर्पण (दूषणदर्पण का ही संभवत: दूसरा नाम, र. कां. सं. १८६९ विक्रमी)। ग्वाल ने पद्माकर की 'गंगालहरी के वजन पर 'यमुनालहरी' की, चंद्रशेखर वाजपेयी के 'हम्मीरहठ' का अनुगमन कर 'हम्मीरहठ' की, घनानंद और ठाकुर आदि रीतिमुक्त कवियों की प्रेमवर्णन शैली को अपनाकर 'नेहनिबह' की, अनेक पूर्ववर्ती रीतिबद्ध कवियों की परिपाटी का लेकर अलंकारों पर, अलंकार भ्रमभजन' क, 'शृगांर रस तथा नायक नायिका भेद पर 'रपरंग' की पिंगल पर 'प्रस्तारप्रकाश' की, काव्यदूषणों पर 'दूषणदर्पण' की, साहित्यशास्त्र पर 'रसिकानंद', 'साहित्यानंद', 'षडऋतु' और 'नखशिख' की रचनाएँ की हैं।
रीतिविवेचन में इन्होंने संस्कृतचार्यो के मतों का आधार का ग्रहण करते हुए भी उनका अंधानुकरण नहीं किया है। भानुदत्त कृत 'रसतरंगिणी' के आधार पर इन्होंने रसों के स्वनिष्ठ और परनिष्ठ भेद किए हैं, जबकि वीर और रौद्र रसों में स्वनिष्ठ की स्थिति नहीं देखी जाती। ग्वाल भक्तिप्रकारों में सख्य, दास्य और वात्सल्य पर भी विस्तारपूर्वक विचार किया है।
ग्वाल आचार्यकर्म में जितने सफल रहे उतने कविकर्म में नहीं। यद्यपि रसपरिपाक और अभिव्यंजना कौशल में उनकी कविता काफी सफल रही है तथा मर्म तक न पहुँच पाने की विशिष्ट प्रतिभा की कमी के कारण उनकी रचनाओं में एक प्रकार का ऐसा सस्तापन आ गया है जिसे आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 'बाजारू' होने की सज्ञा दी है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ