वास्तुकला का इतिहास

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लेख सूचना
वास्तुकला का इतिहास
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 10
पृष्ठ संख्या 449
भाषा हिन्दी देवनागरी
लेखक पर्सी ब्राउन
संपादक फूलदेव सहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
स्रोत पर्सी ब्राउन : १. इंडियन आर्किटेक्चर (बुद्धिस्ट ऐंड हिंदू पीरियड) ; २. इंडियन आर्किटेक्चर (इस्लामिक पीरियड) ; ब्रूस अलसॉप : ए जेनेरल हिस्ट्री ऑव आर्किटेक्चर; ४. सर वैनिस्टर फ्लेचर : ए हिस्ट्री ऑव आर्किक्टेचर; सिगफ्रीड गाईडायन : स्पेस, टाइम ऐंड आर्किटेक्चर :
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक विश्वंभर प्रसाद गुप्त

वास्तुकला किसी स्थान को मानव के लिए वासयोग्य बनाने की कला है। अत: कालांतर में यह चाहे जितनी जटिल हो गई हो, इसका आरंभ मौसम की उग्रता, वन्य पशुओं के भय और शत्रुओं के आक्रमण से बचने के प्रारंभिक उपायों में ही हुआ होगा। मानव सभ्यता के इतिहास का भी कुछ ऐसा ही आरंभ है। इसीलिए विद्वानों ने इसे मानव सभ्यता का 'योजक मसाला' कहा है।

आदिकालीन वास्तु

आदिकाल में शिकारियों और मछुओं ने पहाड़ी गुफाओं में शरण ली होगी। ये गुफाएँ ही शायद मानव निवास के प्राचीनतम रूप रहे होंगे। किसान वृक्षों के झुरमुटों में रहते और सरकंड़े, घास आदि के झोंपड़े बनाते रहे होंगे। अपने पशुओं के साथ घूमने वाले चरवाहे चमड़े के खोलों में रहते रहे होंगे और उन्हें बांसों या लट्ठों से ऊँचा करके डेरे बनाते रहे होंगे। इन्हीं गुफाओं और डेरों में बाद के वास्तुविकास के बीज मिलते हैं। मिस्र के पुराने मकानों के नमूने साक्षी हैं कि अनगढ़ द्वारों चट्टानी दीवारों और छतों वाली प्राकृतिक गुफाओं से ही पत्थर की दीवारें उठाने और उन पर पटियों की छत रखने का विचार उत्पन्न हुआ। झुरमुटों के अनुरूप झोंपड़े बने, जिनकी दीवारें परस्पर सटाकर गाड़ी हुई शाखाओं से और छत घास से बनाई गई। इस प्रकार के एकमंजिले और दुमंजिले झोंपड़े अब भी आदिवासी बनाते हैं। चमड़े के डेरे भी अरब के बद्दू और अन्य घुमंतू जातियाँ काम में लाती हैं।

प्रागैतिहासिक अवशेष, जिनका वास्तुकीय की अपेक्षा पुरातात्विक महत्व ही अधिक है, प्राय: एकाश्मक[१], स्तूप[२] तथा स्विट्जरलैंड, इटली या आयरलैंड में मिले सरोवरनिवासों के रूप में हैं। बाद में धीरे-धीरे इनका विकास होता गया।

प्राच्य और पाश्चात्य वास्तु

विकसित वास्तु को दो स्थूल वर्गों में बाँटा जा सकता है: एक तो प्राच्य, जैसे भारतीय, चीनी और जापानी वास्तु, जो प्राय: स्वतंत्र शैलियाँ हैं और जिनका वास्तुविकास में विशेष प्रभाव नहीं पड़ा; और दूसरा पाश्चात्य वास्तु, जिसका आरंभ मिस्र और सीरिया में हुआ और चरम विकास यूरोप में। प्राचीन अमरीकी और इस्लामी वास्तु भी स्वतंत्र शैलियाँ हैं यद्यपि इस्लामी वास्तु का अमिट प्रभाव स्पेन तक पड़ा। मिस्र और पश्चिमी एशिया का प्रभाव यूनान पर और फलत: सारी पाश्चात्य शैलियों पर पड़ा, इसलिए वे पाश्चात्य वास्तु के अंतर्गत ही आ सकते हैं।

प्राच्य कला में अनेक ऐसी बातें हैं जिनके अभ्यस्त यूरोपीय लोग नहीं हैं, इसलिए वे उन्हें अप्रिय और विरूप लगती हैं। किंतु प्रयोग ही धीरे-धीरे प्रकृति बन जाता है। इसलिए पूर्वी और पश्चिमी वास्तु में अनिवार्यत: कुछ भेद है, जो विशुद्ध प्राच्य वास्तु में विशिष्ट धार्मिक कृत्यों और सामाजिक प्रथाओं के प्रभाव के रूप में उद्व्यक्त होता है। पूर्व में अलंकरण योजनाएँ ही प्रमुख रही हैं जबकि यूरोप में निर्माण संबंधी समस्याओं का दृढ़तापूर्वक सामना करते हुए उनके क्रमिक समाधान द्वारा वास्तु विकसित हुआ।

वास्तुकला के ऐतिहासिक विकास के प्रत्येक प्रमुख चरण के मूल में कोई न कोई विचारधारा स्पष्ट झलकती है। यूनानी वास्तु में परिष्कृत पूर्णता थी, रोमन इमारतें अपने वैज्ञानिक निर्माण के लिए प्रसिद्ध हैं, फ्रांसीसी गॉथि वास्तु उग्र क्रियाशीलता का द्योतक है, इतालवी पुनरुद्धार में उस युग का पांडित्य झलकता है और भारतीय वास्तु का प्रमुख गुण है उसका आध्यात्मिक विषय। इसमें संदेह नहीं, कि जनता की तत्कालीन धार्मिक चेतना मूर्त रूप में व्यक्त करना ही भारतीय वास्तु का मूल उद्देश्य रहा है, अर्थात्‌ जनभावना ही ईटं पत्थर में मूर्त हुई है।

भारतीय वास्तु

भारतीय वास्तु की विशेषता यहाँ की दीवारों के उत्कृष्ट और प्रचुर अलंकरण में है। भित्तिचित्रों और मूर्तियों की योजना, जिसमें अलंकरण के अतिरिक्त अपने विषय के गंभीर भाव भी व्यक्त होते हैं, भवन को बाहर से कभी कभी पूर्णतया लपेट लेती है। इनमें वास्तु का जीवन से संबंध क्या, वास्तव में आध्यात्मिक जीवन ही अंकित है। न्यूनाधिक उभार में उत्कीर्ण अपने अलौकिक कृत्यों में लगे हुए देश भर के देवी देवता तथा युगों पुराना पौराणिक गाथाएँ, मूर्तिकला को प्रतीक बनाकर दर्शकों के सम्मुख अत्यंत रोचक कथाओं और मनोहर चित्रों की एक पुस्तक सी खोल देती हैं।

किंतु इस व्यापक विशेषता के साथ यह भी एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि भारत की प्राचीनतम कला, जैसी दो तीन हजार वर्ष ई.पू. विकसित सिंधु घाटी सभ्यता की खोज से प्रकाश में आई है, सौंदर्य की दृष्टि से ऐसी ही शून्य थी, जैसी आज कल की कोई भी सभ्यता जागरण की अँगड़ाई भी न ले पाई थी, भारत की यह कला इतनी विकसित थी, इन बस्तियों के निर्माताओं का नगर नियोजन संबंधी ज्ञान इतना परिपक्व था, उनके द्वारा प्रयुक्त सामग्री ऐसी उत्कृष्ट कोटि की थी और रचना इतनी सुदृढ़ थी कि उस सभ्यता का आरंभ बहुत पहले, लगभग चार पाँच हजार वर्ष, ईसा पूर्व, मानने को बाध्य हो पड़ता है। हड़प्पा और मोहेंजोदड़ों की खुदाइयों से प्राप्त अवशेष तत्कालीन भौतिक समृद्धि के सूचक हैं और उनमें किसी मंदिर, देवालय आदि के अभाव से यह अनुमान होता है कि वहाँ धार्मिक विचारों का कुछ विशेष स्थान न था, अथवा यदि था तो वह निराकार

  1. झूला-खंभे, रस्सियाँ और खूँटे (तंबुओं में), जिनका विकास अभी अभी 1,900 ई. में ही हुआ, जब तार के रस्से और इस्पात की जंजीरें उपलब्ध हुई।
  2. खंभे और सरदल पत्थर के तथा लकड़ी के। इनमें भी विशेष अंतर हाल में ही पड़ा, जब इस्पात और प्रबलित कंक्रीट का प्रयोग हुआ।
  3. गोल डाट - किसी दीवार में बनाया हुआ छेद या चट्टान अथवा कठोर मिट्टी में काटा हुआ रास्ता। यह गुफाओं में पाई जाती है।
  4. गढ़ी डाट - फन्नी के आकार के पत्थरों से बनाई हुई होती है। इसकी मज़बूती क्षैतिज ठेल रोकने की क्षमता पर निर्भर रहती है।
  5. टोड़ा या कॉर्निस - पत्थर या लकड़ी का यह निकला हुआ भाग सीमित ही होता थ्था। अब यह इस्पात, प्रबलित कंक्रीट और कैंचियाँ लगाकर बहुत बढ़ाया जा सकता है।
  6. टोड़े निकालकर शिखर बनाने से केवल ऊर्ध्वाधर दाब पड़ती है, क्षैतिज ठेल बिल्कुल नहीं पड़ता। हिंदू मंदिरों के शिखर ऐसे ही होते थे।
  7. टोड़े निकालते हुए गोल छल्लों से गुंबद बनाने से भी केवल ऊर्ध्वाधर दाब पड़ती है। पश्चिमी एशिया में यह पद्धति प्रचलित थी और यह मुस्लिम शैली की डाट के सिद्धांत का आधार बनी।
  8. इसी प्रकार लकड़ियों के ढाँचे पर, या उसके बिना ही मिट्टी या कंक्रीट के छल्लों द्वारा भी, गुंबद बनाए जा सकते हैं; अथवा साँचे को चमड़े या सरपत से ढककर ऊपर से मिट्टी चढ़ाई जा सकती है। ये विधियाँ देशीय संरचना में प्राय: प्रयुक्त होती थीं।
  9. जहाँ वेंत मिलता था, वहाँ इस प्रकार का ढाँचा विकसित हुआ, इस आकृति का अनुसरण भारत में और अन्यत्र भी पत्थर में किया गया और टोड़ेवाले गुंबद बने।

शक्ति में आस्था के रूप में ही था। फिर भी, विलक्षण प्रतिभा और उत्कृष्ट वास्तुकौशल से आद्योपांत परिप्लावित भारतीय जनजीवन के इतिहास का ऐसा आडंबरहीन आरंभ आश्चर्यजनक होने के साथ-साथ और अधिक गवेषण की अपेक्षा रखता है, जिससे आर्य सभ्यता से, जो इससे भी प्राचीन मानी जाती है, इसका संबंध जोड़नेवाली कड़ी का पता लग सके।

सीमित आवश्यकताओं में विश्वास रखने वाले, अपने कृषिकर्म और आश्रमजीवन से संतुष्ट आर्य प्राय: ग्रामवासी थे और शायद इसीलिए, अपने परिपक्व विचारों के अनुरूप ही, समसामयिक सिंधु घाटी सभ्यता के विलासी भौतिक जीवन की चकाचौंध से अप्रभावित रहे। कुछ भी हो, उनके अस्थायी निवासों से ही बाद के भारतीय वास्तु का जन्म हुआ प्रतीत होता है। इसका आधार धरती में और विकास वृक्षों में हुआ, जैसा वैदिक वाङ्‌मय में महावन, तोरण, गोपुर आदि के उल्लेखों से विदित होता है। अत: यदि उस अस्थायी रचनाकाल की कोई स्मारक कृति आज देखने को नहीं मिलती, तो कोई आश्चर्य नहीं।

धीरे धीरे नगरों की भी रचना हुई और स्थायी निवास भी बने। बिहार में मगध की राजधानी राजगृह शायद 8वीं शती ईसा पूर्व में उन्नति के शिखर पर थी। यह भी पता लगता है कि भवन आदिकालीन झोपड़ियों के नमूने पर प्राय: गोल ही बना करते थे। दीवारों में कच्ची ईटें भी लगने लगी थीं और चौकोर दरवाज़े खिड़कियाँ बनने लगी थीं। बौद्ध लेखक धम्मपाल के अनुसार, पाँचवीं शती ईसा पूर्व में महागोविंद नामक स्थपति ने उत्तर भारत की अनेक राजधानियों के विन्यास तैयार किए थे। चौकोर नगरियाँ बीचो-बीच दो मुख्य सड़कें बनाकर चार-चार भागों में बाँटी गई थीं। एक भाग में राजमहल होते थे, जिनका विस्तृत वर्णन भी मिलता है। सड़कों के चारों सिरों पर नगरद्वार थे। मौर्यकाल[३] के अनेक नगर कपिलवस्तु, कुशीनगर, उरुबिल्व आदि एक ही नमूने के थे, यह इनके नगरद्वारों से प्रकट होता है। जगह जगह पर बाहर निकले हुए छज्जों, स्तंभों से अलंकृत गवाक्षों, जँगलों और कटहरों से कटहरों से बौद्धकालीन पवित्र नगरियों की भावुकता का आभास मिलता है।

राज्य का आश्रय पाकर अनेक स्तूपों, चैत्यों, बिहारों, स्तंभों, तोरणों, और गुफामंदिरों में वास्तुकला का चरम विकास हुआ। तत्कालीन वास्तुकौशल के उत्कृष्ट उदाहरण पत्थर और ईटं के साथ साथ लकड़ी पर भी मिलते हैं, जिनके विषय में सर जॉन मार्शल ने 'भारत का पुरातात्विक सर्वेंक्षण, 1912-13' में लिखा है कि 'वे तत्कलीन कृतियों की अद्वितीय सूक्ष्मता और पूर्णता का दिग्दर्शन कराते हैं। उनके कारीगर आज भी यदि संसार में आ सकते, तो अपनी कला के क्षेत्र में कुछ विशेष सीखने योग्य शायद न पो।' साँची, भरहुत, कुशीनगर, बेसनगर[४], तिगावाँ[५] उदयगिरि, प्रयाग, कार्ली[६], अजंता, इलोरा, विदिशा, अमरावती, नासिक, जुनार[७], कन्हेरी, भुज, कोंडेन, गांधार[८], तक्षशिला पश्चिमोत्तर सीमांत में चौथी शती ई. पू. से चौथी शती ई. तक की वास्तुकृतियाँ कला की दृष्टि से अनूठी हैं। दक्षिण भारत में गुंतूपल्ले[९] और शंकरन्‌ पहाड़ी[१०] में शैलकृत्त वास्तु के दर्शन होते हैं। साँची, नालंदा और सारनाथ में अपेक्षाकृत बाद की वास्तुकृतियाँ हैं।

पाँचवीं शती से ईटं का प्रयोग होने लगा। उसी समय से ब्राह्मण प्रभाव भी प्रकट हुआ। तत्कालीन ब्राह्मण मंदिरों में भीटागाँव[११], बुधरामऊ[१२], सीरपुर और खरोद[१३], तथा तेर[१४] के मंदिरों की शृंखला उल्लेखनीय है। भीटागाँव का मंदिर, जो शायद सबसे प्राचीन है, 36 फुट वर्ग के ऊँचे चबूतरे पर बुर्ज की भाँति 70 फुट ऊँचा खड़ा है। बुधरामऊ का मंदिर भी ऐसा ही है। अन्य हिंदू मंदिरों की भाँति खड़ा है। बुधरामऊ का मंदिर भी ऐसा ही है। अन्य हिंदू मंदिरों की भाँति इनमें मंडप आदि नहीं है, केवल गर्भगृह हैं। भीतर दीवारें यद्यपि सादी हैं, तथापि उनमें पट्टे, किंगरियाँ, दिल्हे, आले आदि, रचना की कुछ विशिष्टताएँ इमारतों की प्राचीनता की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इनके विभिन्न भागों का अनुपात सुंदर है, और वास्तु प्रभाव कौशलपूर्ण। आलों में बौद्धचैत्यों की डाटों का प्रभाव अवश्य पड़ा दिखाई पड़ता है। इनकी शैलियों का अनुकरण शताब्दियों बाद बननेवाले मंदिरों में भी हुआ है।

हिंदू वास्तुकौशल का विस्तार महलों, समाधियों, दुर्गों और घाटों में भी हुआ, किंतु देश भर में बिखरे मंदिरों में यह विशेष मुखर हुआ है। गुप्तकाल (350-650 ई.) में मंदिरवास्तु के स्वरूप में स्थिरता आई। 7वीं शती के अंत में शिखर महत्वपूर्ण और अनिवार्य अंग समझा जाने लगा। मंदिरवास्तु में उत्तर की ओर आर्य शैली और दक्षिण की ओर द्रविड़ शैली स्पष्ट दीखती है। ग्वालियर के 'तेली का मंदिर' (11 वीं शती) और भुवनेश्वर के 'बैताल देवल मंदिर' (9 वीं शती) उत्तरी शैली का प्रतिनिधित्व करते हैं और सोमंगलम्‌, मणिमंगलम्‌ आदि के चोल मंदिर (11 वीं शती) दक्षिणी शैली का। किंतु ये शैलियाँ किसी भौगोलिक सीमा में बँधी नहीं हैं। चालुक्यों की राजधानी पट्टदकल के दस मंदिरों में से चार (पप्पानाथ- 680 ई., जंबुलिंग, करसिद्धेश्वर, काशीविश्वनाथ) उत्तरी शैली के, और छह मंदिर (संगमेश्वर- 75 ई., विरूपाक्ष- 740 ई., मल्लिकार्जुन- 740 ई., गलगनाथ- 740 ई., सुनमेश्वर और जैन मंदिर) दक्षिणी शैली के हैं। 10वीं - 11वीं शती में पल्लव, चोल, पांड्य, चालुक्य और राष्ट्रकूट सभी राजवंशों ने दक्षिणी शैली का पोषण किया। दोनों ही शैलियों पर बौद्ध वास्तु का प्रभाव है, विशेषकर शिखरों में।

भारत की ऐतिहासिक इमारतों की माया और रहस्य के पीछे अनेक किंवदंतियाँ हैं। मध्य भारत के कुछ सर्वश्रेष्ठ मंदिर एक काल्पनिक राजकुमार जनकाचार्य द्वारा बनाए कहे जाते हैं, जिसे ब्रह्महत्या के प्रायश्चित्त स्वरूप बीस वर्ष इस काम में लगाने पड़े थे। एक अन्य किंवदंती के अनुसार ये असाधारण इमारतें एक ही रात में पांडवों न खड़ी की थीं। उत्तरी गुजरात का विशाल मंदिर (1125 ई.) गुजरात नरेश सिद्धराज द्वारा, और खानदेश के मंदिर गवाली राजवंश द्वारा निर्मित कह जाते हैं। दक्षिण के अनेक मंदिर राजा रामचंद्र के मंत्री हेमदपंत के धार्मिक उत्साह से बने कहे जाते हैं, और 13 वीं शती के कुछ मंदिरों की शैली ही हेमदपंती कहलाने लगी है। इसे अज्ञात निर्माताआं की शालीनता कहें, या ऐतिहासिक तमिस्र, किंतु इसमें संदेह नहीं कि मंदिरवास्तु, जिसे अनूठे उदाहरण भुवनेश्वर के लिंगराज (1000 ई.), मुक्तेश्वर (975 ई.), ब्रह्मेश्वर (1075 ई.), रामेश्वर (1075 ई.), परमेश्वर, उत्तरेश्वर, ईश्वरेश्वर, भरतेश्वर, लक्ष्मणेश्वर आदि मंदिर, कोणार्क का सूर्यमंदिर, ममल्लिपुरम के सप्तरथ, कांचीवरम का कैलाशनाथ मंदिर, श्री निवासनालुर का कोरंगनाथ मंदिर, त्रिचनापल्ली का जंबुकेश्वर मंदिर, दारासुरम्‌ (तंजौर ज़िला) का ऐरावतेश्वर मंदिर, तंजौर के सुब्रह्मण्यम्‌ एवं बृहदेश्वर मंदिर, विजयनगर का विट्ठलस्वामी मंदिर (16 वीं शती), तिरुवल्लूर एवं मदुरा के विशाल मंदिर, त्रावनकोर का शचींद्रम्‌ मंदिर (16 वीं शती), रामेश्वर के विशाल मंदिर (17 वी शती) वेलूर (मैसूर) का चन्नकेशव मंदिर (12 वीं शती), सोमनाथपुर (मैसूर) का केशव मंदिर (1268 ई.), पुरी का जगन्नाथ मंदिर (1100 ई.), खजुराहो की आदिनाथ, विश्वनाथ, पार्श्वनाथ और कंदरिया महादेव मंदिर, किरादू (मेवाड़) के शिव मंदिर (11 वीं शती), आबू के तेजपाल (13 वीं शती) तथा विमल मंदिर (11 वी शती), ग्वलियर का सासबहू मंदिर एवं उदयेश्वर मंदिर (दोनों 11 वीं शती) सेजाकपुर (काठियावाड़) का नवलखा मंदिर (11 वी शती), पट्टत का सोमनाथ मंदिर (12 वीं शती), मोधेरा (बड़ोदा) का सूर्य मंदिर (11 वीं शती), अंबरनाथ (थानाज़िला) का महादेव मंदिर (11 वीं शती), जोगदा (नासिकज़िला) का मानकेश्वर मंदिर, मथुरा वृंदावन का गोविंददेव मंदिर (1590 ई.), शत्रुंजय पहाड़ी (काठियावाड़) के जैन मंदिर, रणपुर (सादरी जोधपुर) का आदिनाथ मंदिर (1450 ई.) आदि आदि देश भर में बिखरे पड़े हैं, जो भव्यता, विशालता, उत्कृष्टता और सर्थकता सभी दृष्टियों से अनुपम है। देश में साथ साथ विकसित होते हुए बौद्धवास्तु, जैन वास्तु, हिंदू (बाह्मण) वास्तु, तथा द्रविण ब्रास्तु की ये झाँकियाँ विशाल भारत की परंपरागत धार्मिक सहिष्णुता का प्रमाण हैं।

मुस्लिम वास्तु

वास्तुकला पर मुसलमानों के आक्रमण का जितना प्रभाव भारत में पड़ा उतना अन्यत्र कहीं नहीं, क्योंकि जिस सभ्यता से मुस्लिम सभ्यता की टक्कर हुई, किसी से उसका इतना विरोध नहीं था जितना भारतीय सभ्यता से। चिर प्रतिष्ठित भारतीय सामाजिक और धार्मिक प्रवृत्तियों की तुलना में मुस्लिम सभ्यता बिलकुल नई तो थी ही, उसके मौलिक सिद्धात भी भिन्न थे। दोनों का संघर्ष यथार्थवाद का आदर्शवाद से, वास्तविकता का स्वप्नदर्शिता से और व्यक्त का अव्यक्त से संघर्ष था, जिसका प्रमाण मस्जिद और मंदिर के भेद में स्पष्ट है। मस्जिदें खुली हुई होती हैं, उनका केंद्र सुदूर मक्का की दिशा में होता है; जबकि मंदिर रहस्य का घर होता है, जिसका केंद्र अनेक दीवारों एवं गलियारों से घिरा हुआ बीच का देवस्थान या गर्भगृह होता है। मजिस्द की दीवारें प्राय: सादी या पवित्र आयतों से उत्कीर्ण होती हैं, उनमें मानव आकृतियों का चित्रण निषिद्ध होता है; जबकि मंदिरों की दीवारों में मूर्तिकला और मानवकृति चित्रण उच्चतम शिखर पर पहुँचा, पर लिखाई का नाम न था। पत्थरों के सहल रंगों में ही इस चित्रण द्वारा मंदिरों की सजीवता आई; जबकि मस्जिदों में रंगबिरंगे पत्थरों, संगमर्मर और चित्र विचित्र पलस्तर के द्वारा दीवारें मुखर की गई।

गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत पर एक ही प्रकार की भारी भरकम संरचनाएँ खड़ी करने में सिद्धहस्त, भारतीय कारीगरों की युगों युगों से एक ही लीक पर पड़ी, निष्प्रवाह प्रतिभा, विजेताओं द्वारा अन्य देशों से लाए हुए नए सिद्धांत, नई पद्धतियाँ और नई दिशा पाकर स्फूर्त हो उठी। फलस्वरूप धार्मिक इमारतों, जैसे मस्जिदों, मक़बरों, रौजों और दरगाहों के अतिरिक्त अन्य अनेक प्रकार की धर्मनिरपेक्ष इमारतें भी, जैसे महल, मंडप, नगरद्वार, कूप, उद्यान, और बड़े बड़े किले, यहाँ तक कि सारा शहर घेरने वाले परकोटे तक तैयार हुए। देश में उत्तर से दक्षिण तक जैसे जैसे मुस्लिम प्रभत्व बढ़ता गया, वास्तुकला का युग भी बदलता गया।

मुस्लिम वास्तु के तीन क्रमिक चरण स्पष्ट हैं। पहला चरण, जो बहुत थोड़े समय रहा, विजयदर्प और धर्मांधता से प्रेरित 'निर्मूलन' का था, जिसके बारे में हसन निज़ामी लिखता है कि प्रत्येक किला जीतने के बाद उसके स्तंभ और नीवं तक महाकाय हाथियों के पैरों तले रौंदवाकर धूल में मिला देने का रिवाज था। अनेक दुर्ग, नगर और मंदिर इसी प्रकार अस्तित्वहीन किए गए। तदनंतर दूसरा चरण सोद्देश्य और आंशिक विध्वंस का आया, जिसमें इमारतें इसलिए तोड़ी गई कि विजेताओं की मस्जिदों और मकबरों के लिए तैयार माल उपलब्ध हो सके। बड़ी-बड़ी धरने और स्तंभ अपने स्थान से हटाकर नई जगह ले जाने के लिए भी हाथियों का ही प्रयोग हुआ। प्रय: इसी काल में मंदिरों को विशेष क्षति पहुँची, जो विजित प्रांतों की नई नई राजधानियों के निर्माण के लिए तैयार माल की खान बन गए और उत्तर भारत से हिंदू वास्तु की प्राय: सफ़ाई ही हो गई। अंतिम चरण तब आरंभ हुआ, जब आक्रांता अनेक भागों में भली भाँति जग गए थे और उन्होंने प्रत्यवस्थापन के बजाय योजनाबद्ध निर्माण द्वारा सुविन्यस्त और उत्कृष्ट वास्तुकृतियाँ वस्तुत कीं।

शैलियों की दृष्टि से भी मुस्लिम वास्तु के तीन वर्ग हो सकते हैं। पहला दिल्ली, अथवा शहंशाही है, जिसे प्राय: 'पठान वास्तु' (1193-1554) कहते हैं। (यद्यपि इसके सभी पोषक 'पठान' नहीं थे) इस वर्ग में दिल्ली की कुतुबमीनार (1200), सुल्तान गढ़ी (1231), अल्तमश का मक़बरा (1236), अलाई दरवाज़ा (1305), निजामुद्दीन (1320), गयासुद्दीन तुगलक (1325) और फीरोजशाह तुगलक (1388) के मक़बरे, कोटला फीरोजशाह (1354-1490), मुबारकशाह का मक़बरा (1434), मेरठ की मस्जिद (1505), शेरशाह की मस्जिद (1540-45) सहसराम का शेरशाह का मक़बरा (1540-45), और अजमेर का अढ़ाई दिन का झोंपड़ा (1205) आदि उल्लेखनीय हैं। दूसरे वर्ग में प्रांतीय शैलियाँ हैं। इनमें पंजाब शैली (1150-1325 ई.); जैसे मुल्तान के श्रकने आलम (1320) और शाहयूसुफ गर्दिजी (1150), तब्रिजी (1276), बहाउलहक (1262) के मकबरे; बंगाल शैली (1203-1573): जैसे पंडुआ की अदीना मस्जिद (1364), गौर के फतेहखाँ का मक़बरा (1657), कदम रसूल (1530), तांतीमारा मस्जिद (1475); गुजरात शैली (1300-1572) : जैसे खंबे (1325), अहमदाबाद (1423), भड़ोच और चमाने (1523) की जामा मस्जिदें, नगीना मस्जिद मक़बरा (1525); जौनपुर शैली (1376-1479 : जैसे अटाला मस्जिद (1408), लाल दरवाजा मस्जिद (1450), जामा मस्जिद (1470); मालवा शैली (1405-1569) : जैसे माडू के जहाजमहल (1460), होशंग का मक़बरा (1440), जामा मस्जिद (1440), हिंडोला महल (1425), धार की लाट मस्जिद (1405), चंदेरी का बदल महल फाटक (1460), कुशक महल (1445), शहज़ादी का रौजा (1450); दक्षिणी शैली (1347-1617): जैसे गुलबर्गा की जामा मस्जिद (1367) और हफ्त गुंबज (1378), बीदर का मदरसा (1481), हैदराबाद की चारमीनार (1591) आदि; बीजापुर खानदेश शैली (1425-1660), जैसे बीजापुर के गोलगुंबज (1660), रौजा इब्राहीम (1615) और जामा मस्जिद (1570), थालनेर खानदेश के फारूकी वंश के मकबरे (15 वीं शती); और कश्मीर शैली (15-17 वीं शती) : जैसे श्रीनगर की जामा मस्जिद (1400), शाह हमदन का मक़बरा (17 वीं शती) आदि, सम्मिलित हैं। तीसरे वर्ग में मुगल शैली आती है, जिसके उत्कृष्टतम नमूने दिल्ली, आगरा, फतेहपुर सीकरी, लखनऊ, लाहौर आदि में किलों, मकबरों, राजमहलों, उद्यान मंडपों आदि के रूप में मौजूद हैं। इसी काल में कला पत्थर से बढ़कर संगमर्मर तक पहुँची और दिल्ली के दीवाने खास, मोती मस्जिद, जामा मस्जिद और आगरा के ताजमहल जैसी विश्वविश्रुत कृतियाँ तैयार हुई।

बृहत्तर भारत का वास्तु

भारतीय कला के उत्कृष्ट नमूने भारत के बाहर लंका, नैपाल, बरमा, स्याम, जावा, बाली, हिंदचीन और कंबोडिया में भी मिलते हैं। नेपाल के शंभुनाथ, बोधनाथ, मामनाथ मंदिर, लंका में अनुराधापुर का स्तूप और लंकातिलक मंदिर, बरमा के बौद्ध मठ और पगोडा, कंबोडिया में अंकोर के मंदिर, स्याम में बैंकाक के मंदिर, जावा में प्रांबनाम का बिहार, कलासन मंदिर और बोरोबंदर स्तूप आदि हिंदू और बौद्ध वास्तु के व्यपक प्रसार के प्रमाण हैं। जावा में भारतीय संस्कृति के प्रवेश के कुछ प्रमाण 4 वी शती ईसवी के मिलते हैं। वहाँ के अनेक स्मारकों से पता लगता है कि मध्य जावा में 625 से 928 ई. तक वास्तुकला का स्वर्णकाल और पूर्वी जावा में 928 से 1478 ई. तक रजतकाल था।

बीसवीं शती का वास्तु

सन्‌ 1911 ई. में ब्रिटिश राज्य उन्नति के शिखर पर था। उसी समय दिल्ली दरबार में घोषणा की गई और साम्राज्य की राजधानी के अनुरूप एक नई दिल्ली में और सारे भारत के ज़िला सदर स्थानों तक में, सुंदर इमारतें बनवाई, जिनमें अनेक कार्यालय भवन, गिरजे और ईसाई कब्रिस्तान कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। सरकारी प्रयास से नई दिल्ली में राजभवन[१५], सचिवालय भवन, संसद् भवन जैसी भव्य इमारतें बनीं, जिनमें पाश्चात्य कला के साथ हिंदू, बौद्ध और मुस्लिम कला का सुखद सम्मिश्रण दिखाई देता है।

मंदिर वास्तु भी, जो केवल व्यक्तिगत प्रयास से अपना अस्तित्व बनाए रहा, कुछ कुछ इसी दिशा में झुका। मुस्लिम वास्तु के अनुकरण पर अशोककालीन शिलालेखों की प्रथा पुन: प्रतिष्ठित हुई और मंदिरों मे भीतर बाहर, मूर्तियों और चित्रों के साथ लेखों को भी स्थान मिलने लगा। दिल्ली का लक्ष्मीनारायण मंदिर और हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी का शिवमंदिर बीसवीं शती के मंदिरवास्तु की उत्कृष्ट कृतियाँ हैं। मंदिरों के अतिरिक्त राजाओं के महल और विद्यालय आदि भी कला को प्रश्रय देते रहे। काशी हिंदू विश्वविद्यालय की सभी इमारतें और वाराणसी का भारतमाता मंदिर, काशी विश्वनाथ की मंदिरोंवाली नगरी में दर्शकों के लिए विशेष आकर्षण के केंद्र हैं। कुशीगर में बने निर्वाण बिहार, बुद्ध मंदिर और सरकारी विश्रामगृह में बौद्ध कला को पुनर्जीवन मिला है। दिल्ली में लक्ष्मीनारायण मंदिर के साथ भी एक बुद्ध मंदिर है। इस प्रकार किसी शैली विशेष के पति अनाग्रह और उत्कृष्टता के लिए समन्वय 20 वीं शती की विशेषता समझी जा सकती है।

चीनी वास्तु

चीनी वास्तु में बौद्ध और मुस्लिम प्रभाव स्पष्ट हैं। भारत के तोरणों की भाँति पत्थर या लकड़ी के द्वार चीनी वास्तु की विशेषता हैं। एक दूसरी के ऊपर अनेक छतें बनाकर ऊँची इमारतों में भी चौड़ाई का आभास पैदा किया जाता है। यद्यपि पत्थर भी वहँ मिलता है, फिर भी इमारतों में लकड़ी और ईटं का प्रयोग ही प्राय: हुआ है, क्योंकि मिस्रवालों की भाँति स्थायित्व उनका लक्ष्य न था। पीकिंग में महामकर मंदिर (1420), और ग्रीष्म प्रासाद का निद्रामग्न बुद्ध मंदिर तथा 17 डाटों वाला संगमर्मर का पुल, कैंटन में हो’नन मंदिर (918), नानकिन में पगोडा (1412) कला की दृष्टि से उल्लेखनीय है। 1400 मील लंबी प्राचीर तो विश्वविख्यात ही है।

जापानी वास्तु

यद्यपि जापानी वास्तु का मूल चीन में है, फिर भी नक्काशी और अलंकरण की बारीकी इसकी अपनी विशेषता है। अनेक बौद्ध मंदिर और पगोडा देश भर में फैले हैं। क्यूटो में मिकाडो का महल और किंकाकूजी तथा जिंकाकूजी के उद्यानमंडप और नगोया में शुकिन रो सराय उल्लेखनीय हैं।

पाश्चात्य वास्तु

भारत की सिंधु घाटी सभ्यता के बाद, प्राचीनता में मिस्र, यूनान और रोम का नाम लिया जाता है। पाश्चात्य वस्तुकला में ये ही तीन देश अग्रणी रहे। सादे और आवर्तक मिस्री वास्तु के बाद यूनान की अति विकसित मंदिर-निर्माण-कला में और फिर उसे बाद रोमन साम्राज्य की विविध सार्वजनिक निर्माण के लिए आवश्यक जटिल पद्धतियों में, वास्तु के क्रमिक विकास का इतिहास मिलता है। मिस्र में घर अस्थायी निवास समझे जाते थे और कब्रें स्थायी। इसी विचारधारा के पोषण सम्राटों के लिए निर्मित अति विशाल, भारी भरकम पिरामिडों और रहस्यपूर्ण मंदिरों में मिलता है। इसे विपरीत यूनानी मंदिर जनता के लिए बने और प्रस्तरकला में सुंदरता आई। साहित्य, संगीत और कला की उन्नति के साथ साथ रंगमंच, क्रीड़ांगण, और मल्लशालाएँ भी विकसि हुइ। संगमर्मर के प्रयोग से कृतियों में सफाई और बारीकी आई। सौंदर्यप्रिय यूनानियों ने भारतीय वास्तुकों की भांति ही, किंतु बहुत पहले ही, स्वतंत्र रूप से, स्तंभों की डोरिक, आयोनिक और कोरिंथियन नामक विशिष्ट शैलियाँ विकसित की थीं। किंतु जब 146 ई.पू. में यूनान रामन साम्राज्य का अंग हो गया, तब उसका स्वतंत्र प्रभुत्व भी समाप्त हो गा। हाँ, उसका प्रभाव रोमन कला में अंत तक अवश्य बना रहा।

रोमन वास्तु में साम्राज्य की शान शौकत झलकती है। भव्य मंदिरों के अतिरिक्त सड़कों, विजयद्वारों, पुलों आदि अनेक जनोपयोगी निर्माण कार्यों में रोमन शैली का समावेश हुआ। इस प्रकार रोमन वास्तु सारे यूरोप में फैला और यूरोपीय वास्तु का आधार बना। रोमन साम्राज्य के पतन के साथ ही इस महानद्य सभ्यता और उत्कृष्ट वास्तुकला का अध्याय भी समाप्त हो गया। किंतु जिद्दा से जो ईसाई धर्म साम्राज्य भर में फैल चुका था, उसका प्रभुत्व बढ़ता रहा। कुछ काल पश्चात्‌ 8वीं शती ई. में बड़े बड़े गिरजाघर बने, जिनमें 'रोमनेस्क' नाम से उत्तरकालीन रोमन वास्तु का पुनरुत्थान हुआ। गिरजों का जनजीवन में महत्वपूर्ण स्थान रहा, और इन्हीं के अतंर्गत शिक्षा संस्थाएँ, पुस्तकालय, संग्रहालय, और चित्रशालाएँ स्थापित हुईं। गिरजों की य कला गॉथिक शैली कहलाई, जो मध्ययुगीन सभ्यता का दर्पण कहीं जा सकती है। महत्वपूर्ण निर्माणसिद्धांतों के अनुसार उस समय तक की यूरोपीय वास्तुकला की मुख्य तीन शैलियाँ,

  1. स्तंभ और धरनोंवाली यूनानी शैली
  2. स्तंभ और अर्धवृत्त डाटवाली रोमन या मिश्रित शैली
  3. नोकदार डाटोंवाली गॉथिक या चापीय शैली, इतिहासप्रसिद्ध हैं।

वास्तुशैलियों के विकास में फिर कुछ विराम आया। इसी बीच पुनरुद्धार शैली का पथ प्रश्स्त करनेवाली परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई। बारूद के आविष्कार से समर पद्धतियाँ और फलत: क़िलों के विन्यास बदल गए। नई दुनिया की खोज हो चुकी थी। सन्‌ 1453 ई. में कुस्तुंतुनिया के पतन के बाद यूरोप में यूनानियों के आप्रवास का भी प्रभाव पड़ा। फलत: इटली के ही समृद्ध और व्यापारिक नगर फ्लोरेंस में एक प्रतिद्वंद्वी शैली का जन्म हुआ। नए गिरजाघरों और राजमहलों में गॉथिक युग की नुकीली डाटें, प्रतिच्छेदी मेहरावें और ऊर्ध्वाधर लक्षण नहीं, बल्कि चिरप्रतिष्ठित रोमन शैली के अर्धवृत्ताकार गुंबद ही परिष्कृत रूपों में अपनाए गए। पुनरुद्धार का यह आंदोलन इटली से फ्रांस, जर्मनी, स्पेन, नीदरलैंड और इंग्लैंड तक फैला। हाँ, कालक्षेप के साथ इंग्लैंड में यह धीरे-धीरे ही फैला, जिससे वहाँ दोनों शैलियों का मिश्रण दिखाई देता है।

आधुनिक यूरोपीय वास्तु

उन्नीसवीं शती में परंपरागत वास्तुशैलियों में, मुख्यतया वास्तुकों की व्यक्तिगत रुचि के कारण, अनेक परिवर्तन हुए और एक 'शैली संघर्ष' ही उपस्थित हो गया। किंतु वास्तुकला आज भी सामयिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है। यह संग्रहालयों, पाठशाओं, पुस्तकालयों, पठन केंद्रों, चिकित्सालयो, तरणतालों, स्नानागारों, विद्यालयों, चित्रशालाओं एवं कलाभवनों तथा वैज्ञानिक एवं जन-कल्याण-संस्थानों के निर्माण से स्पष्ट है। बीसवीं शती में पुनरुद्धार शैली सार्वजनिक भवनों और मार्गों आदि के लिए, तथा गॉथिक शैली गिरजाघरों और शिक्षालयों के लिए, विशेष रूप से प्रयुक्त होती है। निवासभवन सादी और उपयोगितालक्षी शैली में ही पसंद किए जाते हैं।

अमरीकी वास्तु

अमरीकी वास्तु के विकास में तीन चरण स्पष्ट हैं। पहला है उपनिवेशीय काल (1775-83), प्रारंभि उपनिवेशों की स्थापना से क्रांति तक। इसमें यूरोपीय वास्तु से मिलता जुलता ही निर्माण हुआ है। दूसरा है आधुनिक काल (जिसे उपनिवेशोत्तर, राष्ट्रीय, या गणतंत्रीय काल भी कहते हैं) क्रांति से शिकागो प्रदर्शनी (1893) तक। इसमें राजधानियों के उपयुक्त महत्वाकांक्षासूचक और स्मारकीय भवन बने। 19 वीं शती की यूरोप की 'यूनानी चेतना' भी वहाँ पहुँची। तीसरा अर्वाचीन काल (1893 से अब तक) है, जिसमें यूरोपीय 'शैलीसंघर्ष' की भाँति ही यहाँ भी कोई एक दो शैलियाँ युग का प्रतिनिधित्व करती हुई नहीं कही जा सकतीं। सामाजिक स्थिति और श्रमसेवी उपकरणों से प्रभावित निवासों में उपयेगितालक्षी शैली स्पष्ट है, जब कि गिरजाघरों में वही गॉथिक शैली समादृत है। हाँ कुछ न कुछ मौलिकता का समावेश सभी जगह अवश्य देखने में आता है। यह भी उल्लेखनीय है कि केवल दो तीन शताब्दियों में ही जितना द्रुत परिवर्तन यहाँ हुआ है, उतना संसर में अन्यत्र कहीं नहीं। आजकल गगनचुंबी बहुमंजिली इमारतें अमरीका की विशेषता हैं।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जैसे कुस्तुंतुनिया, उत्तरी फ्रांस, इंग्लैंड, सैवाय, या भारत में
  2. जो शायद मिस्र के पिरामिड या वेल्स, स्काटलैंड और आयरलैंड के छत्ताकुटीर जैसे ही बने
  3. चौथी शती ई.पू.
  4. विदिशा
  5. जबलपुर
  6. बंबई
  7. पूना
  8. वर्तमान कंधार-अफगानिस्तान
  9. कृष्ण ज़िला
  10. विजगापट्टम्‌ ज़िला
  11. कानपुर ज़िला
  12. फतेहपुर ज़िला
  13. रायपुर ज़िला
  14. शोलापुर के निकट
  15. अब राष्ट्रपति भवन