जीवविज्ञान

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लेख सूचना
जीवविज्ञान
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5
पृष्ठ संख्या 9-16
भाषा हिन्दी देवनागरी
लेखक टी. आई. स्टीरर, एच. हवीलर, डी. एम. बोनर
संपादक फूलदेवसहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1965 ईसवी
स्रोत टी. आई. स्टीरर : जेनरल ज़ोऑलोजी (मैक्ग्रा हिल); एच. हवीलर : वंडर्स ऑव नेचर, (दि होम लाइब्रेरी क्लब); डी. एम. बोनर : हेरेडिटी (प्रेंटिस हॉल)।
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक कृष्ण प्रसाद श्रीवास्तव

जीवविज्ञान जीवधारियों से संबंधित विज्ञान की सभी शाखाएँ सामूहिक रूप से जीवविज्ञान कहलाती हैं। इस विज्ञान की तीन मुख्य शाखाएँ हैं:

  1. वनस्पति विज्ञान, पेड़ पौधों से संबंधित
  2. प्राणिविज्ञान, जंतुओं से संबंधित तथा
  3. जीवाणु-विज्ञान, सूक्ष्म जीवाणुओं से संबंधित।

जीवप्रकृति

जीव अपनी माप, आकार, वातावरण, रहन सहन आदि में बड़े आश्चर्यजनक, रोचक व असंख्य रूप से भिन्न हैं। मापानुसार यदि लीजिए तो एक ओर जीवाणु १/२५,००० इंच लंबा तथा ३/१, ००,००,००,००,००,००,००,००० आउंस भारी है, तो दूसरी और ब्लू ह्वेल १०० फुट लंबा और १२५ टन भारी है। विस्तारानुसार अब तक लगभग १२,००,००० विभिन्न प्रकार या जातियों के जंतुओं और संभवत: इतने ही पेड़ पौधों का वर्णन हो चुका है। यह प्रत्यक्ष है कि पृथ्वी पर कम से कम इतने प्रकार के जीव तो हैं ही। इनमें जीवाणुओं का समावेश नहीं है। इनमें कोई भी दो जीव एक जैसे नहीं होते। कुछ न कुछ विभिन्नताएँ अवश्य मिलेंगी। यदि वातावरण की दृष्टि से देखा जाय तो पृथ्वी पर शायद ही कोई ऐसा स्थान[१] होगा जहाँ किसी न किसी रूप में जीव न मिलें। सभी स्थानों, ऊपर, नीचे, पर्वतों, कंदराओं एवं जलों में जीव का वास रहता है। ये सभी स्वतंत्र, सामूहिक, सामाजिक, परोपजीवी, सहजीवी इत्यादि विभिन्न रूपों में रहने में समर्थ हो जाते हैं।

जीवधारियों के गुण

सजीव और निर्जीव पदार्थों में कुछ प्रत्यक्ष भेद हैं, यद्यपि ये भेद निम्न[२] स्तर पर जाने पर अप्रत्यक्ष हो जाते हैं। ये भेद निम्नलिखित हैं:

स्वांगीकरण शक्ति

इस शक्ति द्वारा जीवधारी विभिन्न सजीव व निर्जीव खाद्य पदार्थों को अपने शारीरिक तत्वों, जैसे मांस, रक्त, हड्डी आदि में बदल सकते हैं। किसी भी निर्जीव पदार्थ में यह गुण नहीं है।

जनन शक्ति

जीवधारियों में अपने ही सदृश दूसरे जीवधारियों को उत्पन्न करने की शक्ति होती है। यह कार्य अलैंगिक विधि से या लैंगिक विधि से होता है। निम्न श्रेणी के कुछ जीव अलैंगिक विधि से और शेष, विशेषत: उच्चतर श्रेणी के जीव, लैंगिक विधि से उत्पन्न होते हैं।

उत्तेजनशीलता या संवेदनशीलता

बाह्य वातावरण के प्रकरणों, सर्दी, गरमी, प्रकाशादि का प्रभाव सजीव और निर्जीव दोनों ही पर पड़ता है, परंतु सजीव में संवेदनशीलता होती है, जिससे सजीव अनुक्रिया (response) या अभिक्रिया (react) करते हैं। पौधों की अपेक्षा यह शक्ति जंतुओं में अधिक होती है।

वृद्धि

सभी जीवधारी भोजन करके स्वांगीकरण करते और उससे बढ़ते हैं। कुछ निर्जीव पदार्थ[३] भी समय बीतने पर बढ़ सकते हैं, पर अंतर यह है कि सजीव पदार्थों की वृद्धि अंदर से होती है, जेसे मांस, हड्डी आदि के बढ़ने से, और निर्जीव पदार्थों की वृद्धि बाहर से होती है।

निश्चित आकार एवं आकृति

प्रत्येक जीव का एक आकार व आकृति होती है, जिसके कारण हम मेढ़क को मेढ़क और मछली को मछली कहते हैं, यद्यपि सभी मेढ़क या मछलियाँ एक सी नहीं होतीं।

श्वसन

आक्सीजन के बिना कोई भी जीव जीवित नहीं रह सकता। अतएव सभी सजीव पदार्थ श्वसन से ऑक्सीजन शरीर के अंदर लेते हैं और वहाँ एकत्रित कार्बन डाइऑक्साइड का बाहर निकाल देते हैं। श्वसन के द्वारा होनेवाली इन दोनों गैसों का विनियम निर्जीव पदार्थों में नहीं होता।

उत्सर्जन

पोषण, श्वसन आदि क्रियाओं से शरीर में मल, मूत्र, कार्बन डाइऑक्साइड आदि पदार्थ बनते हैं। हानिकारक होने के कारण इन्हें शरीर के बाहर निकाल देना अत्यावश्यक है। मल पदार्थों को शरीर के बाहर निकाल देने की क्रिया को उत्सर्जन कहते हैं। निर्जीव पदार्थों में ऐसी कोई क्रिया नहीं होती।

संचलन

यद्यपि निर्जीव पदार्थ भी गतिशील हो सकते हैं, पर सजीव पदार्थ की गति आंतरिक शक्ति से प्रेरित होती है जब कि निर्जीव की गति बाह्य प्रसाधनों से। जंतुओं में संचलन अधिक और प्रत्यक्ष होता है और पेड़-पौधों में अप्रत्यक्ष। फिर भी यह कहना कि पेड़-पौधे गतिशून्य होते हैं भ्रममूलक होगा। न केवल उनमें अपनी पत्तियों एवं फूलों को सूर्य की ओर, या अन्य दिशा में, मोड़ लेने की क्षमता होती है, बल्कि निम्न-श्रेणी के ऐसे भी सूक्ष्म पौधे हैं जो पानी में चलायमान हैं। इसके विपरीत कुछ ऐसे जंतु जैसे स्पंज, कोरल आदि) भी है जो अचल हैं।

मृत्यु तथा क्षय

मृत्यु जीवित पदार्थों का ही गुण है, यद्यपि निर्जीव पदार्थ भी नष्ट होते हैं। परंतु नष्ट होने तथा मृत्यु की क्रियाओं में भेद स्पष्ट है।

जीवविज्ञान के अंग

जीवविज्ञान के अंतर्गत जीवधारियों के हर पहलू अध्ययन समिलित है। इनके निम्नलिखित पहलू विशेष उल्लेखनीय हैं:

  • आकारिकी अथवा बाह्यकार (Morphology) में जीवों के आकार एवं उनके विभिन्न अवयवों का अध्ययन होता है। इसके दो भाग हैं:
  1. शरीर रचना (Anatomy) में शरीर की विभिन्न संरचनाओं, विशेषकर आंतरिक का जो नग्न आंखों द्वारा देखी जा सकती हैं, अध्ययन होता है;
  2. औतिकी (Histology) में शरीर में विभिन्न अंगों की सूक्ष्म संरचनाओं का सूक्ष्मदर्शीय अध्ययन किया जाता है।
  • कायिकी (Physiology) में शरीर की विभिन्न क्रियाओं का अध्ययन होता है;
  • कोशिका विज्ञान (Cytology) में कोशिकाओं की रचना एवं कार्य का अध्ययन होता है;
  • वर्गीकरण विज्ञान (Taxonomy) में जीवों के वर्गीकरण का अध्ययन होता है;
  • आनुंशिकता (Heredity) में पैत्रिक गुणानुकरण या वंश परंपरा का अध्ययन होता है;
  • भ्रौणिकी (Embryology) में अंडा तथा भ्रण के परिर्वधन का अध्ययन किया जाता है;
  • परिस्थितिकी (Ecology) में जीव का परिपार्श्व या पर्यावरण के साथ संबंध का अध्ययन होता है;
  • क्रमविकास (Evolution) जीवों के उद्भव एवं विभेदीकरण का वृत्तांत है;
  • जीव भूगोल (Bio-geography) से जीवों का भौगोलिक वितरण ज्ञात होता है;
  • फॉसिल विज्ञान (Palaeontology) में प्राचीन एवं लुप्त जीवों का अध्ययन है;
  • रोगविज्ञान (Pathology) में जीवों (जंतुओं और पौधों) के रोगों की पहचान व कारणों का अध्ययन होता है;
  • परजीवी विज्ञान (Parasitology) परोपजीवी जीवों का अध्ययन है;
  • प्राकृतिक इतिहास (Natural History) से जीवों की उनके प्राकृतिक परिपार्श्व में रहन-सहन व आचरण का ज्ञान होता है;
  • मनोविज्ञान (Psychology) जंतुओं की मानसिक प्रवृत्तियों का अध्ययन है तथा
  • समाजविज्ञान (Sociology) में जंतुओं व मानव समाज का अध्ययन किया जाता है। अंत के दो विषय जीवविज्ञान के नैतिक विषय कहलाते हैं।

जीवविज्ञान का इतिहास

जीवों के अध्ययन का इतिहास संभवत: स्वयं मानव का इतिहास है। भूविज्ञानीय समय के अनुसार मनुष्य पृथ्वी पर सब जीवधारियों के बाद में आया। पृथ्वी पर आने के बाद यह स्वाभाविक था कि वह जिस वातावरण में था उसके सदस्यों से, चाहे वे पेड़ हों या जंतु, भली भाँति परिचित हो, क्योंकि उसका जीवन इन्हीं पर निर्भर था। स्पष्ट है कि धीरे धीरे यह परिचय घनिष्ठ होता गया होगा और मानव औरों की अपेक्षा कुछ जीवों के बारे में, जिनसे अधिक संबंध होगा, अधिक जानकारी रखने लगा होगा। इस घनिष्ठ जानकारी का प्रतीक वे चित्रकारियाँ हैं जिन्हें गुफाओं में रहने वाला मानव भविष्य के लिये छोड़ गया है। अवश्य ही जीवों के अध्ययन का प्रारंभ इसी प्रकार और यहीं से हुआ होगा और सभ्यता के विकास के साथ साथ बढ़ता गया होगा। फिर भी जीवविज्ञान का लिखित इतिहास ग्रीक सभ्यता से प्रारंभ होता है, जिसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है :

लगभग ५०० ई.पू. क्रोटोना (Crotona) के ऐल्कमियॉन (Alcmeon) ने जंतुओं की बनावट, स्वभाव व भ्रूण परिवर्धन का अध्ययन किया। एंपिडोकल्स (४९०-४३० ई.पू.) ने बताया कि रुधिर ही शरीर ताप का स्रोत है तथा रुधिरवाहिनियाँ हवा तथा साँस का वितरण करती हैं। डायोजीन अपोलोनिएट्स (Diogene Apoloniates) ने ४६० ई.पू. में रुधिर वाहिनियों का अध्ययन किया। इस विषय पर उसका वर्णन सर्वप्रथम वर्णनकहा जा सकता है। हिप्पॉक्रेट्स (Hippocrates) ने ईसा से ५वीं शताब्दी पूर्व जंतुविभाजन का प्रथम प्रयास किया था। ३८० पूर्व में पॉलिबस (Polybus) ने, जो हिप्पोक्रेट्स का दामाद था, 'मनुष्य की प्रकृति पर' शीर्षक पुस्तक में लिखा है कि मनुष्य-शरीर चार द्रवों (humours) से मिलकर बना है : रुधिर, कफ (phlegm), काला पित्त (bile) और पीला पित्त। चौथी शताब्दी ई.पू. में डायोकल्स (Diocles) ने हृदय को बुद्धि का स्थान बताया और प्रथम बार मानवभ्रूण पर अवलोकन किए। उसकी 'शरीर-रचना' शीर्षक पुस्तक, जो मनुष्य-शरीर पर आधारित थी, लुप्त हो गई है। इसके बाद के और चौथी शताब्दी ईसंवी से के जीवविज्ञानीय लेखप्रमाण या तो खो गए हैं, या इतनी थोड़ी मात्रा में उपलब्ध है कि उनसे कुछ भी निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। इस प्रकार अरस्तु (३८४-३२२ ई.पू.) के समय से ही जीवविज्ञान के लिखित इतिहास का प्रारंभ कहा जा सकता है।

जीवशास्त्री अरस्तू

अरस्तू द्वारा लिखित चार पुस्तकें उपलब्ध हैं, जिनके विषय हैं: जीवात्मा, जंतु इतिहास, जंतु आनुवंशिकता तथा जंतु अंग। इन पुस्तकों में अरस्तू ने पौधों को निम्न श्रेणी का जीव माना है और मनुष्य को सबसे उच्च श्रेणी का जीव।

अरस्तू के मीनों पर प्रेक्षण अष्टभुज (octopus) के परिवर्धन पर प्रेक्षण तथा ह्वेल पॉरपॉएजों (porpoises) तथा डॉलफिनों (dolphins) के अध्ययन आज तक भी बड़े महत्वपूर्ण समझे जाते हैं। अरस्तू ने जीवविभाजन की चेष्टा भी की। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उसे किसी रूप में क्रमविकास का भास रहा होगा, यद्यपि इसका उल्लेख उसने कहीं नहीं किया है। जंतु वर्गीकरण में उसने मनुष्य को सब जीवधारियों से उच्च मानकर जंतुसमूह से अलग हटा दिया था, परंतु ज्ञानवृद्धि के साथ साथ जंतु और मुनष्य का उसका यह भेद भी मिटता गया। जंतु वर्गीकरण का जो तरीका उसने अपनाया वह बड़े महत्व का था, क्योंकि वर्गीकरण का आधुनिक ढंग सिद्धांतत: वैसा ही है।

अरस्तू के बाद

अरस्तू के वनस्पति शास्त्रीय कार्यों का पता नहीं है, परंतु उसके शिष्य थियफ्रास्टस (३७०-२८८ ई.पू.) के कार्य उपलब्ध हैं। उसने पारिभाषिक शब्दावली की आवश्यकता विशेषरूप से अनुभव की और कई नए शब्द भी गढ़े। 'पेरिकार्प' (pericarp) शब्द उसी की देन है। उसने एक तथा द्विदलीय बीजों में भेद किया तथा बीजांकुरण का अध्ययन किया। वनस्पति विज्ञान का अध्ययन थियफ्रास्टस के साथ ही समाप्त हो गया, यद्यपि ऐलेक्जैंड्रियन स्कूल में वनस्पति शास्त्र का अध्ययन ओषधि के अध्ययन के रूप में उसके बाद भी रहा। उस समय पौधों के सही चित्रण करने की प्रथा थी। क्रेटियस (Crateuas) द्वारा बनाए चित्र आज भी जीव वैज्ञानिकों के लिये दिचस्पी की वस्तु हैं। पेंडैनियोज़ डायोस्कोराइडीज़ (Pendanios Dioscorides) के, जो महाराज नीरो की सेना में डाक्टर था, लेखों ने वनस्पतिविज्ञान तथा उसकी शब्दावलियों को काफी प्रभावित किया। उसका ओषधीय पौधों का कार्य बहुत समय तक प्रसिद्ध रहा। प्लिनी ने भी 'प्राकृतिक इतिहास' शीर्षक पुस्तक लिखी, जो प्रचलित होते हुए भी जीवविज्ञानीय विचारों में वर्द्धक नहीं सिद्ध हुइ। अंत में प्राचीन जीव वैज्ञानिकों में गैलेन (Galen) था। इसने जंतु शरीर रचना और कार्यिकी पर यथेष्ट काम किया तथा इसके अन्वेषण १७वीं शताब्दी तक महत्वपूर्ण बने रहे।

मध्यकालीन जीवविज्ञान

मध्यकाल में ग्रीक वैज्ञानिकों की अरबी भाषा की पुस्ताकें का लैटिन में अनुवाद हुआ। इसका प्रारंभ ११वीं शताब्दी में हुआ। अरस्तू की पुस्तकों का अनुवाद इटली के मिकेल स्कॉट (सन्‌ १२३२) ने किया। तदुपरांत गैलेन की कार्यिकी संबंधी पुस्तक का अनुवाद लैटिन भाषा में हुआ। इस समय के प्रसिद्ध जीवविज्ञानीय लेखकों में कोलोन के अलबर्टस मैगनस का नाम उल्लेखनीय है। १४वीं शताब्दी से जीवविज्ञान का अध्ययन चित्रकारी द्वारा आरंभ हुआ। उच्च कोटि के चित्रकार सैंडो वॉटिचेली (सन्‌ १४४४-१५१०), लेओनार्डो डा विंसी (सन्‌ १४५२-१५४९), माइकेल ऐंजेलो (सन्‌ १४७५-१५३४) आदि ने जंतुओं, पौधों एवं मनुष्यों के शरीर के यथार्थ चित्रण किए।

जीवविज्ञान का पुनराध्ययन

जर्मनी के ओटोब्रुनफैल्स (सन्‌ १४८८-१५३४) ने पौधों पर पहली पाठ्य पुस्तक लिखी। लेओनहार्ड फुक्स की प्रसिद्ध पुस्तक सन्‌ १५४२ में निकली। पियर बेलों (सन्‌ १५१७-६४) ने बहुत से देशों का भ्रमण कर प्राकृतिक इतिहास का संकलन किया तथा पौधों, मछलियों और पक्षियों पर पुस्तकें लिखीं। स्विट्ज़रलैंड के गेस्नर (सन्‌ १५१६-६५) ने पाँच भागों में चौपायों, मछलियों तथा सांपों पर पुस्तकें प्रकाशित कीं। उस समय गेस्नर को लोग वनस्पतिशास्त्री के रूप में अधिक जानते थे, परंतु बहुत से लोग यह मानते हैं कि आधुनिक जीवविज्ञान का प्रारंभ गेस्नर से ही हुआ है। १६वीं शताब्दी के अंत तक जीवविज्ञान के मुख्य अंग, शरीररचना और कार्यिकी, जंतु और वनस्पतिशास्त्र में अलग अलग होकर प्रगति कर रहे थे। इन विषयों का अध्यापन कई विश्वविद्यालयों में प्रारंभ हो गया था। उत्तरी इटली के पैडुआ (Padua) विश्वविद्यालय के अध्यापक फैब्रीशियन (Fabricius) ने भ्रौणिकी पर अत्यधिक कार्य किया तथा शिराओं के कपाटों और आँख की रचना का यथार्थ वर्णन किया।

कार्यिकी अध्ययन का पुनर्जन्म

फैब्रीशियम के प्रसिद्ध शिष्य विलियम हार्वी (सन्‌ १५७८-१६५७) ने जंतुओं के रुधिर संचरण की खोज की। उन्होंने यह दिखाया कि रुधिर शरीर में निश्चित वाहिनियों में संचरण करता है न कि अत्र तत्र, सर्वत्र खुले (रिक्त) स्थानों में। उसने शरीर के कार्य की प्रथम तर्कयुक्त व्याख्या की। उसी काल, सन्‌ १९१० में गैलीलियो (Galileo) द्वारा संयुक्त सूक्ष्मदर्शी यंत्र (compound microscope) के अविष्कार से सूक्ष्मदर्शी युग का प्रारंभ हुआ। इस उपकरण की सहायता से प्रथम बार जीवित पदार्थों का अध्ययन कुछ नवयुवकों ने मिलकर शुरू किया। उन्होंने ऐकैडमी ऑव लिंक्स (Academy of Lynx) नामक पहली वैज्ञानिक संस्था की स्थापना की। परंतु दुर्भाग्यवश संस्था के प्रधान की मृत्यु के पश्चात्‌ संस्था स्वयं ही समाप्त हो गई और उसके साथ नियमित सूक्ष्मदर्शी अवलोकन भी समाप्त हो गया। परंतु सन्‌ १६६० के बाद रॉबर्ट हुक (सन्‌ १६३५-१७०३) अँग्रेज, लीवेनहॉक (सन्‌ १६३२-१७२३) तथा स्वेमरडैन (सन्‌ १६३२-८०) डच और मैल्पिझाई (सन्‌ १६२८-९४) इटैलियन, जैसे सूक्ष्मदर्शीविज्ञ हुए। मैल्पिझाई ने हार्वी का कार्य आगे बढ़ाया तथा मेढ़क के फेफड़े में केशिका परिसंचरण (capillary circulation) का वर्णन किया। उसने फैब्रेशियस की भ्रौणिकी को भी आगे बढ़ाया तथा कुक्कुट के जीवन के प्रारंभिक काल के बड़े अच्छे चित्र दिए हैं। इसके अतिरिक्त पौधों की शरीररचना (plant anatomy) का भी खूब अध्ययन किया। वनस्पतिविज्ञान में ग्रियु ने सबसे पहले फूलों की लैंगिक प्रकृति के लक्षणों को पहचाना। स्वैमरडैन ने कीटों के रूपांतरणों का उल्लेख अपनी ए जेनरल हिस्ट्री ऑव इंसेक्ट्स नामक पुस्तक में किया तथा सूक्ष्मदर्शी प्रेक्षण का प्रसिद्ध संकलन किया, जो उसकी मृत्यु पश्चात्‌ प्रकाशित हुआ।

लीवेनहॉक के जीवाणुओं (bacteria) के सन्‌ १६८३ में तथा शुक्राणुओं (spermatozoon) के सन्‌ १६७७ में प्रेक्षण बड़े ही सराहनीय हैं। राबर्ट हुक का काग (coke) की कोशिकाभिति की सूक्ष्म रचना दिखाते हुए चित्रण आज तक प्रसिद्ध हैं। अंग्रेजी के सेल (cell) शब्द की उत्पत्ति उसके 'सेलुइ' (celluae) से हुई, जिसे उसने काग के षट्कोणीय (hexagonal) खानों के लिये किया था। इसके अतिरिक्त उसके दंश (Gnat) के जीवन इतिहास चक्र के अवलोकन भी बड़े सही सिद्ध हुए।

जीववर्गीकरण का प्रारंभिक प्रयास

पौधों का क्रमिक वर्गीकरण मैथिऐस डे लोबेल (सन्‌ १५३८-१६१६) के समय से प्रारंभ हुआ। इसने पत्तियों के आकार के अनुसार पौधों का वर्गीकरण किया और अपनी पुस्तक को रानी एलिज़ाबेथ (प्रथम) को सन्‌ १५७० में समर्पित किया। पैडुआ और पिसा के ऐंड्रियस सीसलपाइनस (सन्‌ १५१९-१६०३) ने पौधों का उनके फूलों और फलों के अनुसार वर्गीकरण किया। जेस्पर्ड बॉहीं (सन्‌ १५५०-१६२४) ने लगभग छ: हजार पौधों का वर्णन किया तथा पौधों की जातियों को छोटे छोटे प्रजातिवर्गों में रखा। इस प्रकार वंश (genus) तथा जाति (species) का वर्तमान ज्ञान यहीं से शुरु हुआ। क्रमिक वर्गीकर्ताओं में दो मित्र, जॉन रे (सन्‌ १६२७-१७०५) तथा फ्रैंसिस विलुघबी (सन्‌ १६३५-७२) भी सम्मिलित हैं। विलुघबी की अल्पायु में मृत्यु हो जाने के कारण, रे क्रमिक (systematic) जीवविज्ञान के प्रमुख संस्थापक हुए। इन्होंने पौधों को फूलों, फलों और पत्तियों के आधार पर[४] तथा जंतुओं को हाथ पैर की उंगलियों तथा दाँतों के आधार पर विभाजित किया। दो पुस्तकें लिखी हुईं, एक वनस्पति विज्ञान पर और दूसरी चौपायों और साँपों पर, जो क्रमिक जंतु वर्गीकरण पर प्रथम पुस्तक कही जा सकती है।

महान वर्गीकर्ता लिनीयस

वर्गीकरण को स्थायी एवं आधुनिक रुप देनेवाले थे स्वेड लिनीयस (सन्‌ १७०७-७८)। जीवों, विशेषकर पौधों, का उन्हें गूढ़ ज्ञान था तथा वर्गीकरण उनके रक्त में व्याप्त था। उस समय जितने भी परिचित जंतु तथा पौधे थे उन्होंने उनको श्रेणी (class), गण, वंश एवं जाति (species) के अनुसार स्थान दिया। इसके अतिरिक्त द्विपद नामकरण पद्धति को, जिसके अनुसार अब सभी जीवधारियों को वैज्ञानिक नाम दिया जाता है, जन्म दिया। इस पद्धति के अनुसार जीव के नाम के दो भाग होते हैं, वंशीय (generic) व जातीय (specific)।

इस प्रकार से लिनीयस जीवविज्ञानीय अधिनायक था, जिसका प्रभाव यह हुआ कि उसके मृत्युपरांत भी लगभग एक शताब्दी तक सभी देशों में उसी के भावानुसार कार्य होते रहे।

तुलनात्मक शरीररचना तथा कार्यिकी के अध्ययन का प्रारंभ

जिस जंतु की शरीररचना का सर्वप्रथम अध्ययन हुआ वह स्वयं मनुष्य था। वेसेलियस (Vesalius) का मानव-शरीर रचना पर मोनोग्राफ (सन्‌ १५९८) प्रशंसनीय है। जहाँ कहीं बन पड़ा उसने मनुष्य तथा जंतुओं में तुलना करने का प्रयास किया। १७ वीं शताब्दी में कई तुलनात्मक शरीररचना विज्ञ हुए, जिनमें शास्त्रीय सूक्ष्मदर्शीविज्ञों के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। मैल्फिझाई का रेशम के कीड़ों संबंधी, स्बैमरडैन का मेफ्लाई, मधुमक्खी तथा घोंघों पर तथा लिवेहाक के पिस्सू परिवर्धन (Development of Fleas) कार्य प्रसिद्ध हैं। तुलनात्मक कायिकी पर जिस कार्य को हार्वी में प्रारंभ किया था, स्टीफेन हेल्ज़ (सन्‌ १६७७-१७६१) ने आगे बढ़ाया और पौधे की दैहिकी पर भी कार्य किया तथा मूल दाव को मापा। उसका सबसे प्रमुख कार्य यह प्रदर्शित करता था कि हवा पौधों की वृद्धि में सहायक है और इस प्रकार एक अर्थ में उसे कार्बन डाइऑक्साइड तथा पौधों के बीच संबंधस्थापक कहा जा सकता है। इस संबंध का निश्चित पता बहुत आगे चलकर लगा। उसने यह भी प्रदर्शित किया कि जंतुओं की रुधिर वाहिनियों में रक्तचाप होता है। १८वीं शताब्दी के प्रसिद्ध प्रकृतिविज्ञ रेओम्यूर (सन्‌ १६८३-१७५७) ने जंतुओं संबंधी विविध बातों का, जैसे क्रस्टेशिया (Crustacea) में पुनर्जनन (regeneration) स्टारफिश के संचारण, टारपीडो मछली के विद्युतदुपकरण, समुद्री स्फुरदीप्ति (phosphorescence) शैवाल वृद्धि, पक्षियों के पाचन, मकड़ी के रेशम आदि का अध्ययन किया। इनके अतिरिक्त कीटपरिवर्धन पर चाप के प्रभाव का भी अध्ययन किया। तदुपरांत लायोने (सन्‌ १७०७-८९) तथा अब्राहम ट्रेंबले (१७१०-८४) जैसे कुशल जीववैज्ञानिक हुए। लायोने ने एक विशेष इल्ली में तीन हजार मांसपेशियाँ प्रदर्शित की। ट्रेंबले का हाइड्रा (Hydra) का कार्य सराहनीय है।

अभी तक तुलनात्मक अध्ययन केवल वैयक्तिक कर्ताओं के पास था। जार्ज कुव्ये (सन्‌ १७६९-१८३२) ने, जिसका फ्रांस के विद्वानों पर बड़ा प्रभाव था, तुलनात्मक अध्ययनों के लिये कई संगठन स्थापित किए जो अब तक चल रहे हैं। कुव्ये का सबसे महत्वपूर्ण कार्य फॉसिल विज्ञान की संस्था को स्थापित करना था, जिससे फॉसिल[५] विज्ञान के अध्ययन की नींव पड़ी। इसके अतिरक्ति उसने मोलस्का के शरीर का अध्ययन तथा मत्स्य का क्रमिक वर्गीकरण भी किया।

जहाँ कुव्ये एवं उसकी संस्था तुलनात्मक शरीर के अध्ययन पर लगी थी, जर्मनी के जोहैनीज़ पीटर मुलर (सन्‌ १८०१-५८) ने तुलनात्मक कायिकी की नींव डाली। जीवविज्ञान की शायद ही कोई ऐसी शाखा रही हो जिस पर मुलर ने अपनी छाप न छोड़ी हो।

वनस्पति-फॉसिल विज्ञान जंतु-फॉसिल-विज्ञान के पश्चात्‌ प्रारंभ हुआ तथा विलिऐमसन (सन्‌ १८१६-९५) के समय में यह क्रम से अधिक विकसित हुआ और २०वीं शताब्दी में जंतु-फासिल-विज्ञान के बराबर हो गया।

जीवविज्ञान की उन्नति पर भौगोलिक समन्वेषण का प्रभाव

१५वीं शताब्दी के अंत में यूरोपीय देशों ने पूर्वी और पश्चिमी दिशाओं में अपने अभियान आरंभ कर दिए थे। इस प्रकार विदेशों का प्राकृतिक ज्ञान एकत्रित होने लगा और पहली बार यह पता चला कि दूरस्थ देशों के अपने विशिष्ट जीवधारी हैं। १८वीं शताब्दी में इन अभियानों में प्रशिक्षित, प्रकृति वैज्ञानिक, सर जोज़ेफ बैंक्स (सन्‌ १७४३-१८२०) तथा लिनीयस के शिष्य डैनियल सी. सोलैंडर (सन्‌ १७३६-८२) थे। इन्होंने प्रशांत महासागर के पादपों तथा प्राणियों संबंधी अन्वेषण किए। तदुपरांत दूसरा प्रसिद्ध अभियान बीगिल (Beagle) नामक जहाज द्वारा सन्‌ १८३१ में किया गया, जिसने पृथ्वी के पूर्वी तथा पश्चिमी गोलार्धों की परिक्रमा की। इस अभियान के वैज्ञानिक चार्ल्स डारविन (सन्‌ १८०४-८२) थे और यह अभियान जीवविज्ञान के इतिहास में बड़े महत्च का था, क्योंकि इसमें न केवल असंख्य नवीन जीवधारियों का ज्ञान हुआ वरन्‌ जीवविज्ञान में एक नई विचारधारा को जन्म मिला, जो आगे चलकर डारविन के विकासवाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

इसके अतिरिक्त इस अभियान से पृथ्वी के प्राणिभौगौलिक और पादप भौगौलिक भागों का ज्ञान प्राप्त हुआ। सन्‌ १८७२ में चैलेंजर (Challenger) नामक अभियान हुआ, जिसमें समुद्र की गहराई तथा समुद्री जल का अध्ययन करके समुद्रविज्ञान (Oceanography) की नींव डाली गईं।

पौधों और जंतुओं की जननक्रिया में तुलना

अभी तक पौधों और जंतुओं की जनन की रीतियाँ मूलत: भिन्न समझी जाती थीं, जिसके कारण दोनों में भारी भेद माना जाता था। पौधों में लिंग (sex) का ज्ञान सर्वप्रथम आर. जे. कैमेररियस (सन्‌ १६६५-१७२१) ने कराया था। लिनीयस ने इस सत्य को अपने वर्गीकरण में साधारण रूप से अपनाया। १८वीं शताब्दी में कई वनस्पति वैज्ञानिक एक वंश के फूल के परागकण से दूसरे वंश के फूल का सेचन करने में सफल हुए। कोररॉयटर (सन्‌ १७३३-१८०६) ने भी संकेत किया कि गर्भाधान का मुख्य अभिकर्ता (agent) हवा है तथा कुछ फूल स्वयं परागित और कुछ कीट परागित होते हैं। उसने बीज वितरण पर भी प्रकाश डाला और बताया कि मिसलटो (mistletoe) में पक्षियों द्वारा बीजवितरण होता है। इस सत्य की पुष्टि चार्ल्स डारविन ने की। जर्मनी के स्प्रेंजल (सन्‌ १७५०-१८१६) ने परागण अध्ययन को और आगे बढ़ाया। अपनी एक पुस्तक में उन्होंने बताया कि कुछ फूल अपनी बनावट के कारण केवल कीट और कुछ केवल हवा द्वारा ही परागित हो सकते हैं तथा वायु-परागित पुष्प कम मात्रा में तथा हलके, और अन्य तरीकों से परागित पुष्प कम मात्रा में और भारी पराग, उत्पन्न करते हैं। इसके अतिरिक्त संसेचन (fertilization) क्रिया में मकरंद ग्रंथि (nectary) का भी संबंध बताया। संसेचन क्रिया का सर्वप्रथम प्रेक्षण इटली के बहुमुखी प्रतिभाशाली, सूक्ष्मदर्शीविज्ञ, जीo बीo अमिसी (सन्‌ १७८६-१८६३) ने किया। सन्‌ १८२३ में सूक्ष्मदर्शी द्वारा, जिसे उन्होंने स्वयं परिमार्जित किया था, परागकणों से निकले परागनाल को देखा और सन्‌ १८३० में परागनाल को अंडाश्य में होकर बीजांड (ovule) के अंडद्वार (micropyle) में जाते देखा। इसकी पुष्टि बाद के वैज्ञानिकों ने की।

पौधे और जंतुओं की कोशिका प्रकृति की स्थापना

विशाट (सन्‌ १७७१-१८०२) ने लगभग २१ भिन्न ऊतकों का अध्ययन करके औतिकी (Histology) की नींव डाली। 'हिस्टॉलोजी शब्द का निर्माण रिचार्ड ओबेन (सन्‌ १८४५) ने किया था। १७वीं शताब्दी में कई एककोशिका जंतुओं, जैसे बोर्टिसिला (सन्‌ १६६७), जीवाणु (सन्‌ १६८४), पैरामीशियम (सन्‌ १७०२) व अमीबा (सन्‌ १७५५) के अध्ययन से एककोशिका जंतुओं के विषय में कुछ ज्ञान की वृद्धि हुई। सन्‌ १८३३ में राबर्ट ब्राउन (Robert Brown) ने पौधे के गर्भाधान का वर्णन करते समय केंद्रक (nucleus) की उपस्थिति की ओर संकेत किया, परंतु उसे कोशिका या केंद्रक का स्पष्ट ज्ञान न था। थीओडोर श्वान (सन्‌ १८३९) ने कोशिकावाद (Cell Theory) स्थापित करके यह बताया कि सभी प्राणी कोशिकाओं से बने हैं। पुरकिनये (१७८२-१८६९) ने सर्वप्रथम प्रोटोप्लाज्म (Protoplasm) शब्द का प्रयोग किया। कोशिकावाद स्थापित हो जाने के बाद औतिकी अध्ययन का विशेष महत्व हो गया।

जीवोत्पत्ति

जब तक जीव की उत्पत्ति कृत्रिम रीति से प्रयोगशालाओं में नहीं हो जाती, तब तक यह बताना कठिन, संभवत: असंभव है, कि जीव का किस प्रकार आविर्भाव हुआ। फिर भी आदि काल से ही मनुष्य जीवोत्पत्ति की व्याख्या करने की चेष्टा में लगा रहा है। उसकी यह चेष्टा संक्षेप में निम्नलिखित है:

  1. ईश्वरवाद या विशिष्ट सृष्टिवाद (Special Creation)-इस वाद के अनुसार जीव किसी दैवी शक्ति द्वारा एक साथ, या कुछ समय के अंतर पर, उत्पन्न हुए हैं तथा प्रत्येक जीव की उत्पत्ति अलग अलग हुई है।
  2. ब्रह्मांडवाद (Cosmic Theory)-प्रोटोप्लाज्म अथवा इससे भी साधारण रूप में जीवित पदार्थ ब्रह्मांड के किसी अन्य स्त्रोत से पृथ्वी पर अकस्मात आ गए और बढ़ते रहे।
  3. प्रकृतिवाद (Naturalistic Theory)-इस वाद के अनुसार जब पृथ्वी रहने योग्य हुई तो किसी विशेष परिस्थिति या दशा में कुछ तत्वों में योग हुआ और एक मिश्रण या यौगिक बना, जिसमें जीवित पदार्थ के कुछ गुण थे। इस पदार्थ ने क्रमश: कोशिका का रूप लिया और आगे चलकर जंतु और पौधों को जन्म दिया।
  4. स्वत: जननवाद (Spontaneous Generation)-प्राचीन प्रकृतिवादियों (अरस्तू, थियफ्रोास्टस आदि) का विश्वास था कि कम से कम निम्र जीवों की उत्पत्ति निर्जीव पदार्थों से होती है; उदाहरणार्थ कीड़े व टैडपोल कीचड़ से और मक्खियाँ जंतु शव से उत्पन्न होती हैं। यह धारणा १७वी शताब्दी तक बनी रही, परंतु उन्हीं दिनों सूक्ष्मदर्शी के आविष्कार से यह धारणा विवाद ग्रस्त बन गई और धीरे धीरे यह ज्ञात होने लगा कि सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों को भी जीव ही उत्पन्न कर सकते हैं, न कि निर्जीव पदार्थ। इस विवाद को समाप्त करने का सर्वप्रथम वैज्ञानिक अनुसंधान इटली के फ्रांसिस्को रेडी (Francisco Redi, सन्‌ १७२६-६७) ने किया। फिर लुई पैस्टर (Pasteur, सन्‌ १८२२-९५) ने अपने प्रयोगों से उपर्युक्त धारणा को गलत सिद्ध कर दिखाया। पैस्टर के प्रयोगों ने पास्चुरीकरण (Pasteurization) क्रिया को जन्म दिया, जिसके द्वारा किसी भी पदार्थ को सूक्ष्म जीवों से रहित करके शुद्ध किया जाता है।

विषाणु

विषाणु निम्न[६] कोटि के जीव हैं, जो स्वतंत्र जीवन न बिताकर पौधों और जंतुओं की कोशिकाओं में, केवल परोपजीवी के रूप में ही, रह सकते है। साधारणतया ये इतने छोटे होते हैं कि केवल इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी द्वारा ही देखे जा सकते हैं। इनकी विशेषता यह है कि इन्हें निर्जीव पदार्थों की भाँति मणिभ बनाकर निम्न से निम्न ताप पर[७] अनिश्चित समय तक रखा जा सकता है। अनुकूल वातावरण पाते ही ये जीवित हो उठते हैं। पहले ऐसा अनुमान था कि विषाणु ही जीवों के जन्मदाता है, परंतु अब पता चला हे कि ये पर्याप्त उच्चस्तर के जीव हैं। अस्तु जीवोत्पत्ति के स्त्रोत ये नहीं हो सकते।

जीव विकास

सृष्टि के जीवधारियों की विभिन्नता का अंकन करना दुष्कर है। आसपास में पाए जानेवाले जंतुओं और पौधों की सूची बनाना भी सरल काम नहीं है। ऐसी दशा में यह प्रश्न सहज ही उठता हे कि इतने जंतु और पौधे कैसे उत्पन्न हुए। विकासवाद (Theory of Evolution) से इन प्रश्न का समाधान होता है। ये सभी जंतु और पौधे पहले से निम्न श्रेणी में विद्यमान थे और क्रमिक विकास से वे आधुनिक रूप में आए। जीव विकास की विचारधारा बहुत नवीन नहीं है। कुछ ऐसे ही विचार रोमन कवि ल्यूक्रीशियस (९८-५५ ई.पू.) ने अपनी रचनाओं में व्यक्त किए थे। पर विचार कवि के थे, वैज्ञानिक के नहीं। विकासवाद का वैज्ञानिक ढंग से निश्चित रूप चार्ल्स डारविन (सन्‌ १८५९) के समय सामने आया, यद्यपि इसका प्रवाह अप्रत्यक्ष रूप से जान रे (सन्‌ १६२७-१७०७) के समय से ही आरंभ हो गया था। लिनीयस को भी जीववर्गीकरण के समय यह भास हुआ कि कुछ उपप्रजातियाँ भिन्न होते हुए भी इतनी समान थीं कि उनको अलग करना कठिन था तथा उपजाति के एक होते हुए भी उसमें भिन्नताएँ थीं अथवा यों कहिए कि उपजातियाँ परिवर्तनशील थीं। परंतु प्राचीन विचारधारा के अनुसार उपजातियाँ अपरिवर्तनीय थीं, अर्थात्‌ उनसे नई जातियाँ नहीं उत्पन्न हो सकती थीं। अतएव लिनीयस के अनुसार सृष्टि में केवल इतनी ही उपजातियाँ हैं जितनी स्रष्ट ने उत्पन्न की हैं।

विकास का प्रथम आभास जीo एलo बफ्फन (सन्‌ १७०७-८८) को हुआ। उनके अनुसार उपजातियाँ परिवर्तनशील हैं और समय समय पर बदल सकती हैं, परंतु प्रत्येक परिवर्तन में पूर्व के कुछ न कुछ गुण (चाहे वे अनुपयोगी ही क्यों न हों) अवश्य विद्यमान रहेंगे। बफ्फन की पुस्तक 'प्रकृति विज्ञान साधारण और विशिष्ट' ४४ भागों में प्रकाशित हुई, जिनमे ये विचार व्यक्त किए गए हैं।

चार्ल्स डारविन के पितामह इरैज़मस डारविन (१७३१-१८०२) के भी ऐसे ही विचार थे। उन्होंने बताया कि उपजातियाँ समय समय पर बदलती हैं और उनका परिवर्तन बाह्य कारणों के प्रभाव से होता है तथा उनके वंश (progeny) में पहुँच जाता है। लामार्क (सन्‌ १८०९) ने अपनी पुस्तक प्राणिदर्शन (Zoological Philosophy) में यह स्पष्ट किया कि जंतुओं में एक प्राकृतिक पद्धति (naturalorder) है जिसक अनुसार वे विकास की सीढ़ी पर नीचे से ऊपर की ओर बढ़ते हैं। एक सीढ़ी के स्तर के जंतु दूसरे से थोड़े ही भिन्न हैं। इस भिन्नता का कारण वे माध्यमिक कड़ियां (intermediate links) हैं, जो अब विलुप्त हो चुकी हैं। उन्होंने यह आशा व्यक्त की कि ये माध्यमिक कड़ियाँ कभी न कभी जीवाश्म विज्ञान (Palaentology) द्वारा उपलब्ध होंगी। आज उनका कथन सत्य सिद्ध हुआ है। कई माध्यमिक कड़ियों के जीवाश्म प्राप्त हो चुके हैं। लामार्क निम्नलिखित तीन निष्कर्षों पर पहुँचे :

  1. उपजातियाँ बाह्य प्रभाव (वातावरण) द्वारा विभिन्न हो सकती है;
  2. जीवों की भिन्नता में भी एक मूल समानता है तथा
  3. इस भिन्नता से प्रगामी (progressive) विकास अंगों के उपयोग या अनुपयोग करने से होता है। अंग या अंगों का यदि उचित उपयोग नहीं होता तो उनका ्ह्रास होने लगता है और इस प्रकार नए गुणों का प्रादुर्भाव होता है। चार्ल्स डारविन ने उपर्युक्त विचारों को बहुसंख्यक उदाहरणों से परिपूर्ण कर विकासवाद को चिरस्थायी बना दिया।

डारविन को प्रेरित करनेवाला मालथस का सिद्धांत

लामार्क के समय में रेवरेंड मालथस (Reverend Robert Malthus) एक अँगरेज पादरी थे, जिन्होंने १७९८ ई. में अपने एक निबंध में आबादी और भोजन के घनिष्ठ संबंध का उल्लेख किया। उन्होंने बताया कि आबादी बढ़ने पर भोजन की कमी पड़ती है और तब भोजन के लिये संघर्ष उत्पन्न हो जात है। इस निबंध ने उस समय समाज में एक खलबली मचा दी।

डारविन का सिद्धांत अथवा जाति की उत्पत्ति

डारविन के 'जाति की उत्पत्ति' का सिद्धांत मौलिक नहीं था। ऐसी विचारधारा पहले से आ रही थी, पर डारविन ने सिद्धांतों को व्याख्या, तर्क एवं अनेक उदाहरणों के साथ अपनी पुस्तक ऑनदि ओरिजिन ऑव स्पीशीज़ (Origin of Species) में रखा। इस पुस्तक ने जीवविज्ञान जगत्‌ में क्रांति पैदा कर दी। डारविन का विकास सिद्धांत संक्षिप्त में इस प्रकार है:

  1. ज्यामितीय अनुपात में प्रजनन से जीवों की संख्या में अपार वृद्धि के फलस्वरूप जगह और भोजन में कमी पड़ जाती है।
  2. इस कमी के कारण जीवों में परस्पर संघर्ष उत्पन्न होता है, जिसे जीवन संघर्ष कहते हैं।
  3. इस संघर्ष के कारण नवीन विभिन्नताएँ (variations) उत्पन्न होती हैं, जो जीव के लिये उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं।
  4. वे ही जीव जीवित रह पाते हैं जिनमें उपयोगी विभिन्नताएँ उत्पन्न होती हैं। दूसरे शब्दों में इस सिद्धांत का यह अर्थ भी निकलता है कि प्रकृति उन्हीं जीवों को जीवित रहने देती है जो योग्य होते हैं, अर्थात्‌ योग्यतम की अतिजीविता (Survival of the Fittest) का सिद्धांत यही है। डारविन के इस सिद्धांत को प्राकृतिक वरण वाद (Theory of Natural Section) भी कहते हैं।

विकासवाद के प्रमाण

विकावाद की पुष्टि में निम्नलिखित बातें कही जाती है:

वर्गीकरण

जीवों के ऊँची और नीची कई श्रेणियों में विभाजित किया गया है। इतना चढ़ाव और उतराव विकास के बिना संभव नहीं है।

भूविज्ञानी अभिलेख

चट्टानों से उपलब्ध जीवों के जीवाश्म यह बताते हैं कि सरल या निम्न श्रेणी के जीव पहले उत्पन्न हुए और जटिल या उच्चश्रेणी के जीव बाद में। इस तथ्य की व्याख्या केवल विकासवाद द्वारा ही की जा सकती है।

लुप्त कड़ियाँ

ऐसे उदाहरण मिले हैं जो दो जीव श्रेणियों के मध्य के हैं। बैवेरिया में पाया जानेवाला आर्किओप्टेरिक्स (Archaeopteryx) नामक जीवाश्म आधा पक्षी है और आधा सरीसृप (reptile)। पक्षियों की भाँति उसमें डैने तथा चोंच है, परंतु सरीसृप की भाँति उसमें लंबी पूँछ और मुँह में दाँत हैं, जो वर्तमान पक्षियों में सर्वथा अनुपस्थित हैं। ऐसा ही उदाहरण आस्ट्रेलिया का प्लैटिपस (Platypus) है, जो अधिकांश गुणों में स्तनी जंतुओं से मिलता है पर अंडे देने में पक्षी से।

==अवशेष अंग==कुछ जंतुओं में ऐसे अंग भी विद्यमान है जिनका उन जंतुओं के लिये आज कोई उपयोग नहीं है, परंतु उन्हीं अंगों का दूसरे जंतुओं में उपयोग है और वे पूर्ण रूप से परिवर्धित (developed) हैं। उदाहरणार्थ मनुष्य की कान की मांस-पेशियाँ, जिनका अब कोई उपयोग नहीं है, आज भी उपस्थित हैं, किंतु अक्रियाशील हैं, परंतु दूसरे स्तनी जंतुओं में ये मांसपेशियाँ क्रियाशील हैं और कानों को घुमाने फिराने का काम करती हैं। इसी प्रकार का अवशेष अंग मनुष्य के पाचक नाल में उंडुक (appendix) होता है। ऐसे अवशेष अंगों की उपस्थिति की व्याख्या विकासवाद से सरलता से हो जाती है। उपयोग में न आनेवाले अंग या तो पूर्णतया नष्ट हो गए अथवा खंडहर के रूप में वर्तमान रहते हैं।

तुलनात्मक भ्रौणिकी

भ्रूणावस्था में उच्च श्रेणी के जंतुओं का भ्रूण उन्हीं अवस्थाओं से होकर गुजरता है जिनसे निम्न श्रेणी के जंतुओं का भ्रूण गुजरता है। प्रारंभिक अवस्थाओं में मनुष्य, पक्षी, सरीसृप, मेढक और मछली के भ्रूणों में कई सादृश्य होते हैं।

तुलनात्मक शरीररचना

विभिन्न जंतुओं की शरीररचना में इतना सादृश्य है कि डारविन को कहना पड़ा कि इन जंतुओं की अलग अलग उत्पत्ति होना असंभव जान पड़ती है।

पुनरुभ्दव

जंतुओं में बहुधा कुछ ऐसे गुण एकाएक उत्पन्न हो जाते हैं जो उनके लिये अनुपयोगी हैं, जैसे नवजात शिशु में कभी कभी छोटी पूछँ का पाया जाना। इससे यही सिद्ध होता है कि मनुष्य के पूर्वज दुमदार थे और प्रकृति की किसी त्रुटि से यह पूर्वज लक्षण मानव शिशु में पलट आता है।

उपर्युक्त प्रमाणों के अतिरिक्त और भी, जैसे कायिकी, फॉसिल वैज्ञानिकी, भौगोलिक वितरण, अभिजनन, आदि से प्राप्त प्रमाण हैं जो बड़े स्पष्ट रूप से विकास के पक्ष में ही संकेत करते हैं।

विकासवाद में त्रुटि

डारविन तथा अन्य के विकास सिद्धांतों में एक त्रुटि यह थी कि जीवों के विलुप्त होने और जीवित रहने के बारे में तो बताते हैं, परंतु उनके आगमन के बारे में कुछ नहीं बताते। इसका एक मात्र कारण यह था कि आनुवंशिकता के नियमों का ज्ञान उस समय नहीं था। मेंडेलवाद की स्थापना से आनुवंशिकता का ज्ञान हुआ।

मेंडेलवाद

जोहान ग्रेगर मेंडेल का जन्म १८२२ ई. में एक किसान परिवार में हुआ था। वे पादरी बन गए और आस्ट्रिया में ब्रन्न के मठ के साधु हो गए थे। मठ के उद्यान में ही उन्होंने अपने अनुसंधान किए और १८८४ ई. में मृत्यु को प्राप्त हुए।

उन्होंने अपने उद्यान में मटर पर प्रयोग करके आनुवंशिकता के दो नियमों को स्थापित किया, जो मेंडलवाद के नाम से विख्यात हैं। उनका अनुसंधान ब्रन्न की प्राकृतिक इतिहास परिषद की कार्यवाही में पहले पहल छपा, पर दुर्भाग्यवश उनके प्रयोगफलों की ओर लगभग ३५ वर्षों तक लोगों का ध्यान नहीं गया। उनकी मृत्यु के १६ वर्षों के बाद १९०० ई. में तीन अन्य वनस्पति वैज्ञानिक डे ्व्राीस (De Vries), कोरेंस (Correns) तथा (Tschermak) ने स्वतंत्र रूप से फिर वे ही नियम खोज निकाले, पर ये नियम मेंडेल के नाम पर ही मेंडेल के आनुवंशिकता के नियम कहलाने लगे और इससे आनुवंशिकी (Genetics) नाम विज्ञान की एक शाखा की नींव पड़ी।

मेंडेल की आनुवंशिकता के नियम

अच्छे किस्म के पौधों को उत्पन्न करने का मेंडेल ने प्रयत्न किया और उन्होंने पौधे के प्रत्येक गुण का अलग अलग अध्ययन मिया। सबसे पहले उन्होंने बीज के लंबे होने के गुण का अध्ययन किया। इसके लिये उन्होंने एक लंबा बीज लिया तथा दूसरा वामन। दोनों के पौधों के परस्पर संक्रमण से उन्होंने देखा कि उनसे उत्पन्न बीज लंबे हुए। पर इन लंबे बीज वाले पौधों का जब परस्पर फिर संस्करण कराया गया तब देखा गया कि दूसरी पीढ़ी में जो बीज उत्पन्न हुए उनमें लंबे और वामन दोनों प्रकार के बीज थे। इनकी उत्पत्ति की संख्या का अनुपात निकालने पर देखा गया कि इनमें प्रत्येक तीन लंबे बीज पर एक वामन बीज था। इससे वे इस सिद्धांत पर पहुँचे कि पौधों में दो प्रकार के गुण होते हैं। एक प्रभावी (dominant) और दूसरे अप्रभावी (recessive)। प्रथम पीढ़ी में अप्रभावी गुण दब जाते हैं, पर द्वितीय पीढ़ी में दोनों गुण ३:१ के अनुपात में प्रकट होते हैं। इसको मेंडेल की आनुवंशिकता का प्रथम सिद्धांत कहते हैं। इसे पृथक्करण का नियम भी कहते हैं।

तत्पश्चात्‌ मेंडेल ने दो गुणों के संचारण का एक साथ अध्ययन किया और देखा कि दूसरी पीढ़ी में दोनों गुण स्वतंत्र रूप से उसी ३:१ के अनुपात में प्रकट होते हैं। दूसरे शब्दों में इसका अर्थ यह हुआ कि गुणों का आपस में मिश्रण नहीं होता तथा उनका संचारण (transmission) स्वतंत्र रूप से होता है। इसे मेंडेल का द्वितीय नियम या स्वतंत्र संव्यूहन (Independent Assortement) का नियम कहते हैं (देखें अनुवंशिकता तथा आनुवंशिक तत्व)।

मेंडेल के प्रयोग बड़े महत्व के सिद्ध हुए। इन प्रयोगों के परिणामों से आनुवंशिकता के संबंध में अनेक भविष्यवाणियाँ हुई, जो आधुनिक काल की खोजों से बिल्कुल ठीक प्रमाणित हुई हैं। ये नियम पौधों पर ही नहीं, वरन्‌ जंतुओं पर भी समान रूप से लागू होते हैं और इनके फलस्वरूप मनुष्य अच्छी नस्ल के जंतुओं, उन्नत पौधों तथा रोगरोधी बीजों को उत्पन्न करने में समर्थ हुआ है।

आनुवंशिकता का आधार गुणसूत्र या क्रोमोसोम

जंतु और पौधों की कोशिकाओं के केंद्रक में गुणसूत्र होते हैं, जो कोशिका विभाजन के समय देखे जा सकते हैं। इनकी उपस्थिति का ज्ञान पहले से था, पर आनुवंशिकता से उनके संबंध का पता टामस हंट मार्गन (Thomas Hunt Morgan) और उनके सहयोगियों ने लगाया। क्रोमोसोम बड़े छोटे होते हैं और उनकी संख्या प्रत्येक जाति के लिय निश्चित होती है। मनुष्य में यह संख्या ४६ है। पहले ऐसा अनुमान किया जाता था कि क्रोमोसोम जीव के विभिन्न लक्षणों के समूह से बना है और प्रत्येक क्रोमोसोम में जीन (gene) के समूह रहते हैं। गर्भाशय में मातापिता दोनों के समूह युक्त होकर प्रजनन करते हैं, जिससे माता और पिता दोनों के गुण आ जाते हैं।

आधुनिक अनुसंधान से देखा गया कि क्रोमोसोम प्रोटीन, डीo एनo एo (D. N. A..-Deoxyribo-nucleic acid) और आरo एनo एo (R. N. A.-Ribo-nucleic acid) से बने होते हैं। इनमें केवल डीo एनo एo ही आनुवंशिकता का आधार पाया गया।

जीवविज्ञान और अंधविश्वास

जीवविज्ञान के अध्ययन से अन्य लाभों के साथ साथ एक लाभ यह भी हुआ कि अनेक अंधविश्वासों का विनाश हुआ है। ऐसे कुछ अंधविश्वास निम्नलिखित हैं:

संध्या समय पेड़ों से फूल पत्ते तोड़ना दुष्ट आत्माओं को कुपित करना है। इसमें कोई तथ्य नहीं हैं। यह संभव है कि संध्या समय पौधे ऑक्सीजन नहीं छोड़ते, केवल कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते हैं, जिससे पेड़ों के निकट जाने से स्वास्थ्य की हानि हो सकती है।

छिपकली में विष

लोगों में ऐसी धारणा प्रचलित है कि छिपकली विषैली होती है, पर वास्तव में ऐसा नहीं हैं। केवल एक प्रकार की छिपकली ही, जो मेक्सिको में पाई जाती है, विषैली होती हैं।

साँप की आँखों में मारनेवाले के चित्र का बनना

यह भी पूर्णत: निराधार है।

सांप का सुनना

साँप बहरे होते हैं। ध्वनि तरंगों के खोपड़ी की हड्डियों से होकर मस्तिष्क तक पहुँचने से उन्हें ध्वनि का ज्ञान होता है।

सांपों का गर्भवती स्रियों के सामने अंधा हो जाना

इसमें कोई आधार नहीं।

सभी साँप विषैले होते हैं

संसार में लगभग ढाई हजार किस्म के (भारत में केवल ३०० किस्म के) साँप पाए जाते हैं। इनमें से केवल ४० किस्म के साँपों का काटना हानिकारक होता है और इनमें भी केवल तीन-नाग, वाइपर और करैत-का काटना घातक होता है।

आधुनिक जीवविज्ञान

जीवविज्ञान का आधुनिक रूप काफी परिवर्तित है। यह परिवर्तन दिन प्रति दिन बढ़ता ही जा रहा है। जहाँ अभी हाल तक आकारिकी, तुलनात्मक शरीर रचना, भ्रौणिकी आदि जैसी वर्णानात्मक शाखाओं का अधिक महत्व था, वहां आज आनुवंशिकी, कायिकी, प्रयोगात्मक जीवविज्ञान, परिस्थितिकी आदि का युग है। जीवविज्ञान तथा अन्य विज्ञान शाखाओं के बीच की दीवार अब टूट चुकी है और जीवविज्ञान के अनुसंधानों में भौतिकी व रसायन विज्ञान बड़े सहयोगी सिद्ध हो रहे हैं तथा जीवभौतिकी व जीवरसायन आधुनिक जीवविज्ञान के अभिन्न अंग बन गए हैं। आनुवंशिकी का रूप मेंडेल के समय से अब इतना परिवर्तित हो गया है कि उसको उसके असली रूप में पहचानना कठिन है१ कुछ ही समय पहले आनुवंशिकी का अध्ययन केवल 'क्रोमोसोम' के बाहर तक ही सीमित था, परंतु अब यह अध्ययन क्रोमोसोम के भीतर तक पहुंच चुका है और उसने जीन सिद्धांत (Gene Theory) में परिवर्तन ला दिया है। उपकरणों तथा तकनीकी में बहुत उन्नति होने के कारण कोशिका व ऊतक (tissue) की कायिकी में अपार ज्ञानवृद्धि हुई है। इलेक्ट्रान-सूक्ष्मदर्शी के आविष्कार से अब विषाणु जैसा सूक्ष्म जीव भी देखा जा सकता है। इलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी से जीवों को कई लाख गुना बड़ा देखा जा सकता है।

विकिरण जैविकी

जीवविज्ञान की एक और नई शाखा निकल चुकी है। इसके अंतर्गत सजीव पदार्थों पर विकिरण के प्रभाव का अध्ययन तथा रेडियधर्मी पदार्थों और जीवधारियों में लाभदायक संबंध स्थापित कराने का प्रयास किया जाता है। यह प्रयास पर्याप्त मात्रा में सफल हो चुका है। शरीर के भीतर रेडियधर्मी पदार्थों का पदार्पण करा कर और उनका अनुसरण कर न केवल आंतरिक अंगों की कायिकी के बारे में पता चलता है, बल्कि छिपे आंतरिक रोगों का भी निदान होता है। विकिरण द्वारा कई असाध्य रोगों का उपचार भी होता है। भविष्य में इन विधियों से मानवजाति को बड़ी आशा है।

ये नवीन शाखाएँ अभी पूर्ण रूप से जड़ भी न पकड़ पाई थीं कि अंतरिक्ष युग ने पदार्पण करके अंतरिक्ष जीवविज्ञान के लिये सामग्री तैयार कर दी है और अब बहुत से जीववैज्ञानिक जीव अध्ययन के लिये आकाश की ओर देखने लगे हैं। दूसरे नक्षत्रों पर जीव हैं या नहीं, यदि हैं तो पृथ्वी जैसे या उससे भिन्न, ये सब प्रश्न अब उठने लगे हैं। अंतरिक्ष से प्राप्त कुछ पत्थरों के टुकड़ों का, जो उल्काओं के रूप में गिरे मिलते हैं, अध्ययन अब जीवविज्ञान केदृष्टिकोण से होने लगा है। उनका रासायनिक विश्लेषण करके अब यह पता लगाने की चेष्टा हो रही है कि नक्षत्रों पर जीवों की उपस्थिति का कुछ संकेत है या नहीं। कुछ अंश में उत्तर हाँ की ओर ही झुकता दिखाई पड़ रहा है। वैज्ञानिकों का मत है कि कम से कम मंगल ग्रह पर किसी प्रकार के वानस्पतिक जीव उपस्थित हैं। इस मत के दो आधार है: पहला यह कि मंगल ग्रह एक ऐसा ग्रह है जिसके चारों ओर वायुमंडल पाया जाता है और जिससे जीव उपस्थिति की पुष्टि होती है-और दूसरा यह है कि उसके धरातल पर कुछ ऐसे धब्बे देखे जाते हैं जो मौसम के अनुसार कम, अधिक या लुप्त होते रहते हैं। इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि ये धब्बे किसी वनस्पति की उपस्थिति के द्योतक हैं, जो वहाँ के मौसम के अनुसार घटती, बढ़ती या लुप्त होती रहती है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. संभवत: ध्रुवों को छोड़कर
  2. विषाणु, Virus
  3. जैसे मिट्टी कर टीला
  4. सासल पाइनस का अनुसरण करते हुए
  5. जीवाश्म
  6. जीवाणु से भी निम्न
  7. जिस पर और सभी सजीव पदार्थ नष्ट हो जाते हैं