महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 21 श्लोक 1-19

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ११:१०, २ जुलाई २०१५ का अवतरण ('== इक्कीसवां अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)== <div style...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

इक्कीसवां अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: इक्कीसवां अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

अष्टावक्र और उत्‍तरदिशाका संवाद, अष्टावक्रका अपने घर लौटकर वदान्य ऋषिकी कन्या के साथ विवाह करना युधिष्ठिर ने पूछा-पितामह! वह स्त्री उन महातेजस्वी ऋषिके शापसे डरती कैसे नहीं थी; और वे भगवान् अष्टावक्र किस तरह वहां से लौटे थे? यह सब मुझे बताइये। भीष्मजीने कहा- राजन्! सुनो, अष्टावक्र ने उस स्त्रीसे पूछा,तुम अपना रूप बदलती क्यों रहती हों ? बताओं, यदि मुझ-जैसे ब्रहामणसे सम्मान पानेकी इच्छा हो तो झूठ न बोलना। स्त्री बोली- ब्राहामणशिरोमणे! स्वर्गलोक हो या मत्र्यलोक, जिस किसी भी स्थानमें स्त्री और पुरूष निवास करते हैं, वहां उनमें परस्पर संयोगकी यह कामना सदा बनी रहती है। सत्यपराक्रमी विप्र! यह सब जो रूपपरिवर्तनकी लीला की गयी है, उसका कारण बताती हूं, सावधान होकर सुनिये। निर्दोष ब्राहमण! आपको दृढ़ करनेके लिये आपकी परीक्षा लेने के उदेश्यसे ही मैंने यह कार्य किया है। सत्यपराक्रमी द्विज! आपने अपने धर्मसे विचलित न होकर समस्त पुण्यलोकोंको जीत लिया है। आप मुझे उत्‍तरदिषा समझें। स्त्रीमें कितनी चपलता होती है-यह आपने प्रत्यक्ष देखा है। बूढ़ी स्त्रियोंको भी मैथुनके लिये होनेवाला कामजनित संताप कष्ट देता है। जो कहीं भी विश्वास न करनेके कारण किसी व्यसनमें नहीं फंसता, कहीं भी अधिक आसक्त नहीं होता, परदेशमें नहीं रहता तथा जो विद्वान् और सुशील है, वही पुरूष स्त्रीके साथ रहकर सुख भोगता है। आज आपके उपर ब्रहमाजी तथा इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता संतुष्ट है। भगवन् द्विजश्रेष्ठ! आप यहां जिस कार्यसे आये हैं, वह सफल हो गया। उस कन्याके पिता वदान्य ऋषिने मेरे पास आपको उपदेश देनेके लिये भेजा था। वह सब मैने कर दिया। विप्रवर! अब आप कुशलपूर्वक अपने घरको जायेंगे और मार्गमें आपको कोई श्रम अथवा कष्ट नहीं होगा। उस मनोनीत कन्याको आप प्राप्त कर लेंगे और आपके द्वारा वह पुत्रवती भी होगी ही। आपने जाननेकी इच्छासे मुझसे यह बात पूछी थी, इसलिये मैंने अच्छे ढंगसे सब कुछ बता दिया। तीनों लोकोंके सम्पूर्ण निवासियोंके लिये भी ब्राहामणकी आज्ञा कदापि उल्लंघनीय नहीं होती। ब्रहमार्षि अष्टावक्र! आप पुण्य का उपार्जन करके जाइये। और क्या सुनना चाहते है ? कहिये, मैं वह सब कुछ यथार्थरूपसे बताउंगी।द्विजश्रेष्ट! वदान्य मुनिने आपके लिये मुझे प्रसन्न किया था; अतः उनके सम्मानके लिये ही मैंने ये सारी बातें कही हैं। भीष्मजी कहते हैं-भारत! डस स्त्रीकी बात सुनकर विप्रवर अष्टावक्र उसके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गये। फिर उसकी आज्ञा ले पुनः अपने घरको लौट आये। कुरूनन्दन! घर आकर उन्होंने विश्राम किया और स्वजनोंसे पूछकर वे न्यायानुसार फिर ब्राहमण वदान्यके घर गये। ब्राहमणने उनकी यात्राके विषयमें पूछा, तब उन्होंने प्रसन्नचितसे जो कुछ वहां देखा था, सब बताना आरम्भ किया महर्षे! आपकी आज्ञा पाकर मैं उत्‍तर दिषाओं गन्ध- मादनपर्वतकी ओर चल दिया। उससे भी उत्‍तर जानेपर मुझे एक महती देवीका दर्शन हुआ। उसने मेरी परीक्षा ली और आपका भी परिचय दिया। प्रभो! फिर उसने अपनी बात सुनायी और उसकी आज्ञा लेकर मैं अपने घर आ गया।। तब ब्राहमण वदान्यने कहा-आप उतम नक्षत्रमें विधिपूर्वक मेरी पुत्रीका पाणिग्रहण कीजिये; क्योंकि आप अत्यन्त सुयोग्य पात्र हैं। भीष्मजी कहते हैं-प्रभो! तदनन्तर तथास्तुकहकर परम धर्मात्मा अष्टावक्रने उस कन्या का पाणिग्रहण किया। इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। उस परम सुन्दरी कन्या का पत्नीरूपमें दान पाकर अष्टावक्र मुनिकी सारी चिन्ता दूर हो गयी और वे अपने आश्रममें उसके साथ आनन्दपूर्वक रहने लगा।।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें अष्टावक्र और उत्‍तरदिशाका संवादविषयक इक्कीसवां अध्याय पूरा हुआ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख