अतिसार

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{लेख सूचना |पुस्तक नाम=हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |पृष्ठ संख्या=90 |भाषा= हिन्दी देवनागरी |लेखक = |संपादक=सुधाकर पाण्डेय |आलोचक= |अनुवादक= |प्रकाशक=नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |मुद्रक=नागरी मुद्रण वाराणसी |संस्करण=सन्‌ 1973 ईसवी |स्रोत= |उपलब्ध=भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |कॉपीराइट सूचना=नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |टिप्पणी= |शीर्षक 1=लेख सम्पादक |पाठ 1=शिवशंकर मिश्र । |शीर्षक 2= |पाठ 2= |अन्य जानकारी= |बाहरी कड़ियाँ= |अद्यतन सूचना= }} अतिसार अतिसार (डायरिया) उस दशा का नाम है जिसमें आहार का पक्वावशेष आंत्रनाल में होकर असामान्य द्रुतगति से प्रवाहित होता है। परिणामस्वरूप पतले दस्त, जिनमें जल का भाग अधिक होता है, थोड़े-थोड़े समय के अंतर से आते रहते हैं। यह दशा उग्र तथा जीर्ण दोनों प्रकार की पाई जाती है।

उग्र

उग्र (ऐक्यूट) अतिसार का कारण प्राय आहारजन्य विष, खाद्य विशेष के प्रति असहिष्णुता या संक्रमण होता है। कुछ विषों से भी, जैसे संखिया या पारद के लवण से, दस्त होने लगते हैं।

जीणर

जीर्ण (क्रॉनिक) अतिसार बहुत कारणों से हो सकता है। आमाशय अथवा अग्न्याशय ग्रंथि के विकास से पाचन विकृत होकर अतिसार उत्पन्न कर सकता है। आंत्र के रचनात्मक रोग, जैसे अर्बुद, संकिरण (स्ट्रिक्चर) आदि, अतिसार के कारण हो सकते हैं। जीवाणुओं द्वारा संक्रमण तथा जैवविषों (टौक्सिन) द्वारा भी अतिसार उत्पन्न हो जाता है। इन जैवविषों के उदाहरण हैं रक्तविषाक्तता (सेप्टिसीमिया) तथा रक्तपूरिता (यूरीमिया)। कभी निस्रावी (एंडोक्राइन) विकार भी अतिसार के रूप में प्रकट होते हैं, जैसे ऐडीसन के रोग और अत्यवटुकता (हाइपर थाइरॉयडिज्म)। भय, चिंता था मानसिक व्यथाएँ भी इस दशा को उत्पन्न कर सकती हैं। तब यह मानसिक अतिसार कहा जाता है।

अतिसार का मुख्य लक्षण, और कभी-कभी अकेला लक्षण, विकृत दस्तों का बार-बार आना होता है। तीव्र दशाओं में उदर के समस्त निचले भाग में पीड़ा तथा बेचैनी प्रतीत होती है अथवा मलत्याग के कुछ समय पूर्व मालूम होती है। धीमे अतिसार के बहुत समय तक बने रहने से, या उग्र दशा में थोड़े ही समय में, रोगी का शरीर कृश हो जाता है और जल ह्रास (डिहाइड्रेशन) की भयंकर दशा उत्पन्न हो सकती है। खनिज लवणों के तीव्र ्ह्रास से रक्तपूरिता तथा मूर्छा (कॉमा) उत्पन्न होकर मृत्यु तक हो सकती है।

चिकित्सा के लिए रोगी के मल की परीक्षा करके रोग के कारण का निश्चय कर लेना आवश्यक है, क्योंकि चिकित्सा उसी पर निर्भर है। कारण को जानकर उसी के अनुसार विशिष्ट चिकित्सा करने से लाभ हो सकता है। रोगी को पूर्ण विश्राम देना तथा क्षोभक आहार बिलकुल रोग देना आवश्यक है। उपयुक्त चिकित्सा के लिए किसी विशेषज्ञ चिकित्सक का परामर्श उचित है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ