किंडरगार्टन

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लेख सूचना
किंडरगार्टन
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 2-3
भाषा हिन्दी देवनागरी
लेखक जे. सी. फोस्टर, एन. ई. हेडली, ई. बी. गोल्डेन, एल. थार्नडाइक, नीना वांडेवाकर, जायसवाल, सीताराम, गेंद और शर्मा
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
स्रोत जे. सी. फोस्टर, एन. ई. हेडली : एजुकेशन इन द किंडरगार्टेन, अमेरिकन बुक कंपनी, न्यूयार्क (१९४७); ई. बी. गोल्डेन : किंडरगार्टेन करीक्युलम, किंग कंपनी, शिकागो (१९४९); ई. एल. थार्नडाइक : नोट्स ऑव चाइल्ड स्टडी, कोलंबिया यूनिवर्सिटी (१९०१); नीना वांडेवाकर : दि किंडरगार्टन इन अमेरिकन एजुकेशन, मैकमिलन (१९०७); जायसवाल, सीताराम : पश्चिमी शिक्षा का इतिहास, (नंद किशोर ऐंड ब्रदर्स, बनारस (१९५४); गेंद और शर्मा : शिक्षा के दार्शनिक सिद्धांत, भारत पब्लिकेशंस, आगरा (१९५९)!
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक शकुंतला सक्सेना.; परमेश्वरीलाल गुप्त

किंडरगार्टन खेल के माध्यम से चार से छह वर्ष के बच्चों को शिक्षा देनेवाली एक विशेष पद्धति जिसका विकास फ्रीड्रिक विल्हेम फ्रॉएबेल [१] नामक शिक्षाशास्त्री ने किया था। उनको इस शिक्षा पद्धति के विकास का आधार उनकी यह धारणा थी कि हर वस्तु और प्राणी को अनुप्राणित करने वाला एक शाश्वत नियम एक ईश्वरीय सत्ता है। सभी प्राणियों का प्रादुर्भाव इसी ईश्वरीय सत्ता से है। अत: हर प्राणी में उस ईश्वरीय रस का अंश है। अत: शिक्षा का महत्तम ध्येय शिशु में जन्म से निहित उस रस अथवा उन शक्तियों को विकसित करना होना चाहिए। जीवन में ईश्वरीय रस का प्रादुर्भाव मस्तिष्क की अपेक्षा हृदय की वस्तु है। अत: शिक्षा, बुद्धि से अधिक मनोवेगों और इच्छाशक्ति की शिक्षा है। अर्थात्‌ शिक्षा का उद्देश्य बच्चों का प्रशिक्षण नहीं विकास है, जो उनकी मूल प्रवृत्तियों और अभिरुचियों को आत्मक्रिया द्वारा उपयोग में लाने पर ही हो सकता है। आत्मक्रिया द्वारा ही बच्चे की आत्माभिव्यक्ति होती है और उसके आंतरिक ईश्वरीय रस का बाह्यीकरण भी। इस उद्देश्य की पूर्ति में बच्चों का स्वच्छंद खेल महत्व का है।

अपने इस आत्मक्रिया, आत्माभिव्यक्ति और स्वतंत्र खेल को शिक्षा का आधार बनाकर फ्रॉएबेल ने सर्वप्रथम प्रयोग १८३५ ई. में बर्गडॉफ [२] के एक अनाथालय के बच्चों पर किया। इसके लिए उन्होंने खिलौनों की एक ऐसी क्रमागत श्रंखला प्रस्तुत की जिससे बच्चों में निश्चित कल्पनाएं उभर सकें। पहले छह रंगों के छह गेंदो का एक सेट बनाया, फिर लकड़ी के गोल, चौकोर और बेलनाकार रूपों का दूसरा सेट प्रस्तुत किया; फिर दो इंच घन के टुकड़े को ८ छोटे घनों में बाँट कर तीसरा सेट और दो इंच घन को ८ आयताकार टुकड़ों में बाँटकर चौथा सेट बनाया। पाँचवे और छठें सेटों में तीन इंच घन को असमाना टुकड़ों को रखा और इन सबको आकार और नाप के अनुसार बक्सों में रखा। विभिन्न आकार और नाप की तख्ती, विभिन्न माप के डंडों और विभिन्न व्यास के छल्लों से कुछ अन्य खिलौने बनाए। अपने इन खिलौने की अन्य खिलौने से भिन्नता व्यक्त करने के लिए उन्होंने इन्हें मेधा [३] और उनके सहायक साधनों को व्यापार [४] का नाम दिया।

इन साधनों के निर्माण में उन तत्कालीन आदर्शवादी और स्वतंत्रतावादी दर्शनों का प्रभाव था जिनसे फ्रॉएबेल स्वयं प्रभावित थे। उनके मतानुसार ये जीवन के नियमों और रहस्यों के प्रतीक एवं परिचायक थे, जैसे गोले विश्व की एकता के प्रतीक हैं। मेधा गिफ़्ट में मुख्य तीन हैं, १. गोला, २. बेलनाकार और ३. घन, जिनमें फ्रॉएबेल के दो मान्य नियम निहित हैं। विपरीत का नियम और संबंध का नियम। हर वस्तु का ज्ञान अपनी विपरीत वस्तु के साथ ही ठीक होता है, अत: गोले के साथ घन बनाया गया, और संबंध के नियमानुसार इन दोनों को संबंधित करने के लिए बेलनाकार की रचना की गई। अन्य सभी मेधा गिफ़्ट इन तीनों के ही विभिन्न रूप हैं, जिनका क्रम बालक के विकास को दृष्टि में रखते हुए निश्चित किया गया। मेधा गिफ़्ट द्वारा बालक विभिन्न प्रकार की क्रियाएँ, रचनाएँ और तत्पश्चात्‌ कुछ अंकगणित एवं रेखागणित सीखता है। अप्रत्यक्ष रूप से अन्य प्रकार का ज्ञान भी वह प्राप्त करता है। यद्यपि मेधा गिफ़्ट स्वयं कई प्रकार के व्यापारों के साधन हैं, तथापि उन्होंने अन्य कई व्यापारों का आयोजन किया जिनके मुख्य विभाग ठोस, समतल, रेखा और बिंदु है। इनके अंतर्गत क्रमश: मिट्टी और लकड़ी का काम करना; कागज की वस्तुएँ बनाना: रेखाएँ मिलाना, बुनना, सिलाई कढ़ाई करना और मोती पिरोना जैसी क्रियाएँ आती हैं।

मेधा और व्यापार के अतिरिक्त उनके पाठ्यक्रम में ड्राइंग, चित्रकारी, बागवानी, पालतू जानवरों की देखभाल आदि का भी समावेश था।

किंतु इन सबसे अधिक महत्व संगीत का था। वे संगीत को आत्माभिव्यक्ति का साधन मानते थे और उनका विचार था कि बालक की शिक्षा का प्रारंभ माता के गीतों द्वारा होना चाहिए। इसी प्रयोजन से उन्होंने मातृखेल और शिशु गीत नामक अपनी पुस्तिका में खेलगीतों और चित्रों का संग्रह किया था।

अनाथालय के बच्चों के साथ किया गया उनका यह प्रयोग काफी सफल रहा। अपनी इस सफलता से आश्वस्त होकर फ्रॉएबेल ब्लेकेनबुर्ग [५] चले आए और शिशुओं को खेल और उद्योग के माध्यम से मनोवैज्ञानिक शिक्षा देने के लिए एक विद्यालय स्थापित किया और उसे किंडरगार्टन [६] का नाम दिया।

फ्रॉएबेल ने ब्लेकेनबुर्ग के इस किंडरगार्टन के अतिरिक्त अपने जीवनकाल में १८३७ और १७४८ ई. के बीच सोलह और किंडरगार्टन खोले तथा इनके लिए शिक्षक तैयार करने के निमित्त एक प्रशिक्षण स्कूल भी चलाया। अध्यापन कार्य तथा पुस्तिकाओं के प्रकाशन द्वारा भी वे किंडरगार्टन शिक्षा के विकास एवं प्रसार में लगे रहे किंतु उन्हें जर्मनी में सफलता नहीं मिली। इतना ही नहीं, १८५१ ई. में शासन द्वारा वहाँ सब किंडरगर्टनशालाओं पर रोक लगा दी गई। इस प्रकार अपने जीवनकाल में फ्रॉएबेल अपनी शिक्षणप्रणाली का समुचित प्रचार न देख सके किंतु उनके बाद उनकी पत्नी, उनकी शिष्या बौरोनेस फ़ान मारेनहोल्ट्ज बूला और उनकी पोत्री फाउलीन हेनरिच ब्रेमैन ने किंडरगार्टन के प्रसार कार्य को विशेष रूप से आगे बढ़ाया जिससे यूरोप के कई देशों में इसका प्रचार हुआ। कुछ देशों में पहले से चल रही अन्य प्रकार की शिशुशालाओं का स्थान किंडरगार्टन ने ले लिया; कुछ में यह शिक्षासोपान की प्रथम अनिवार्य सीढ़ी बन गया। इसका सर्वाधिक प्रचार संयुक्त राज्य अमरीका में हुआ, वहाँ प्रचार के साथ-साथ इसका संशोधन और विकास भी हुआ।

बालमनोविज्ञान और शिक्षाशास्त्र की प्रगति के साथ फ्रॉएबेल के शिक्षादर्शन और किंडरगार्टन शिक्षापद्धति की समीक्षा हुई। उनके रहस्यवाद और प्रतीकत्व की आधुनिक मनोवैज्ञानिकों और शिक्षाशास्त्रियों ने कठोर ओलाचना की तथा इन्हें अमान्य ठहराया। मेधा गिफ़्ट क्रम द्वारा बच्चे को जीवन एवं विकास के नियमों से परिचित कराया जा सकता है, इस विचार का खंडन हुआ तथा मेधा और व्यापार जैसे सीमित साधनों द्वारा शिशु के पूर्ण विकास होने में संदेह प्रकट किया गया। वस्तुत: फ्रॉएबेल का विचार यह नहीं था कि मेधा गिफ़्ट या उनके क्रम का सदा अंधानुसरण होता रहे, अथवा किंडरगार्टन के पाठयक्रम को मेधा और व्यापार तक ही सीमित रखा जाए। उनकी पुस्तक किंडरगार्टन शिक्षा से स्पष्ट है कि वे अपनी पद्वति में परिवर्तन और परिवर्धन होना स्वाभाविक एवं उचित समझते थे। यदि उनके कुछ विचार और विश्वास अमान्य हैं तो साथ ही आत्मक्रिया और आत्माभिव्यक्ति जैसे सिद्धांत आधुनिक बालमनोविज्ञान के अनुकूल एवं सर्वमान्य भी हैं।

समीक्षा और समालोचना के फलस्वरूप फ्रॉएबेल के किंडरगार्टन में कई परिवर्तन एवं सुधार हुए। उस पर किलपैट्रिक, मैकबैनेल, फॉरेस्ट, थार्नडाइक, ऐना ब्रियाँ, हिल आदि शिक्षाविदों और मनोवैज्ञानिकों की आलोचना और अनुसंधान का भी प्रभाव पड़ा। इन संशोधनों के मूल में मनोवैज्ञानिक अनुसंधान और बाल-अध्ययन तो था ही वह प्रगतिवादी विचारधारा भी थी जिसके प्रवर्त्तक जी. स्टनले हॉल तथा जॉन ड्युई थे। २० वीं सदी के प्रारंभ में विकसित बालशिक्षण की दूसरी प्रणाली, मांतेसरी या मांटसरी पद्धति ने भी किंडरगाटेन को संशोधित रूप देने में सहायता दी। फलस्वरूप किंडरगार्टन के आधारभूत शिक्षण सिद्धांतों में हेर-फेर हुआ, और उसके साधन, क्रियाएँ और पाठ्यक्रम भी बदले; अधिक उपयुक्त, रोचक एवं शिक्षाप्रद साधन और कार्यकलाप समाविष्ट किए गए। बुनाई, सिलाई और मोती पिरोने जैसी महीन क्रियाओं के स्थान पर बड़े और सरल हाथ के काम रखे गए। बच्चों के शारीरिक विकास के उपयुक्त क्रियाओं, खेलकूद और प्रत्यक्ष अनुभव को अधिक महत्व दिया गया तथा उनके भावनात्मक एवं सामाजिक विकास के हेतु भी उपयोगी क्रियाओं की व्यवस्था की गई। इस प्रकार आधुनिक प्रगतिशील किंडरगार्टन का रूप फ्रॉएबेल के किंडरगार्टन से बहुत भिन्न है।

भारतवर्ष में वर्तमान किंडरगार्टन पद्वति की शिक्षा अमरीका के समकक्षी स्कूलों के समान प्रगतिशील नहीं हैं और कई जगह तो पुस्तक- शिक्षण का ही स्थान प्रमुख देखने में आता है। इसका मुख्य कारण है बालशिक्षण की ओर शासन, जनता और शिक्षाशास्त्रियों का समुचित ध्यान न होना। एक दूसरा कारण यह भी है कि यहाँ जितना प्रचार मांतेसरी या मांटसरी पद्धति का प्रचार अधिक हुआ है। यहाँ जो किंडरगार्टन हैं उनमें से अधिकांश ईसाई धर्मप्रचारकों द्वारा चलाए हुए है और उनके शिक्षा का माध्यम अँगरेजी है। वहाँ भारतीय संस्कृति और धर्म बहुत कुछ उपेक्षित है।

फ्रॉएबेल के किंडरगार्टन में सुधार करने के बाद किंडरगार्टन शिक्षा का प्रभाव जानने के हेतु अमरीका में कई अध्ययन किए गए जिनसे ज्ञात होता है कि इसका प्रभाव बच्चे के शिक्षाग्रहण एवं व्यक्तित्वविकास पर सामान्यत: अच्छा पड़ता है। भारत में पूर्वप्राथमिक शिक्षाप्राप्त बच्चों के अध्ययन से यह पता चलता है कि यह शिक्षा शिक्षाग्रहण में तो नहीं, किंतु व्यक्तित्व के भावनात्मक एवं सामाजिक विकास में अवश्य सहायक होती है। पूर्वप्राथमिक शिक्षाप्राप्त बच्चों में अन्य बच्चों की अपेक्षा नेतृत्व, उत्साह, आत्मविश्वास और सामाजिकता जैसे गुण अधिक विकसित होते हैं। वे प्राय: बर्हिमुखी और ज्ञानप्राप्ति के इच्छुक होते हैं।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. १७८२-१८५२ ई.
  2. स्वीजरलैंड
  3. गिफ़्ट
  4. आकुपेशन
  5. जर्मनी
  6. शिशु उद्यान