महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 2 श्लोक 1-19

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द्वितीय अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)

महाभारत: शान्तिपर्व : द्वितीय अध्याय: श्लोक 1- 29 का हिन्दी अनुवाद

नारदजी का कर्ण को शाप, प्राप्त होने का प्रसंग सुनाना

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! यधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर वक्ताओं में श्रेष्ठ नारद मुनि ने सूतपुत्र कर्ण को जिस प्रकार शाप प्राप्त हुआ था, वह सब प्रसंग कह सुनाया।

नारद् जी ने कहा- महाबाहु भरतनन्दन! तुम जैसा कह रहे हो, ठीक ऐसी ही बात है। वास्तव में कर्ण और अर्जुन के लिये युद्ध में कुछ भी असाध्य नहीं हो सकता था। अनघ! यह देवताओं की गुप्त बात है, जिसको मैं तुम्हें बता रहा हॅूं। महाबाहो! पूर्वकालके इस यथावत् वृत्ताव्त को तुम ध्यान देकर सुनो। प्रभो! एक समय देवताओं ने यह विचार किया कि कोन-सा ऐसा उपया हो, जिससे भूमण्डल का सारा क्षत्रिय समुदाय शस्त्रों के आघात से पवित्र हो स्वर्गलोक में पहुଁच जाय। यह सोचकर उन्होने सूर्य द्वारा कुमारी कुन्ती के गर्भ से एक तेजस्वी बालक उत्पन्न कराया, जो संघर्ष का जनक हुआ। वही तेजस्वी बालक सूतपुत्र के रूप में प्रसिद्ध हुआ। उसने अड़िगरागोत्रीय ब्राह्मंणों में श्रेष्ठ गुरू द्रोणाचार्य से धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की। राजेन्द्र! वह भीमसेन का बल, अर्जुन की फुर्ती , आपकी बुद्धि नकुल और सहदेव की विनय, गाण्डीव- धारी अर्जुन की श्री कृष्ण के साथ बचपन में ही मित्रता तथा पाण्डवों पर प्रजा का अनुराग देखकर चिन्तामग्‍न हो जलता रहता था। इसी लिये उसने बाल्यावस्था में ही राजा दुर्योधन के साथ मित्रता स्थापित कर ली और दैवकी प्ररेणा से तथा स्वभाववश भी वह आप लोगों के साथ सदा द्वेष रखने लगा। एक दिन अर्जुन को धनुर्वेद में अधिक शक्तिशाली देख कर्ण ने एकान्त में द्रोणाचार्य के पास जाकर कहा-। ’गुरूदेव! मैं ब्रहमणों को उसके छोड़ने और लौटाने के रहस्य सहित जानना चाहता हूଁ । मेरी इच्छा है कि मैं अर्जुन के साथ युद्ध करूଁ। निश्चय ही आपका सभी शिष्यों और पुत्रपर बराबर स्नेह है। आपकी कृपा से विद्वान् पुरूष यह न कहें कि यह सभी अस्त्रों का ज्ञाता नहीं है’। कर्ण के ऐसा कहने पर अर्जुन के प्रति पक्षपात रखने वाले द्रोणाचार्य कर्ण की दुष्टता को समझकर उससे बोले—। ’वत्स! ब्राह्मास्त्र को ठीक-ठीक ब्राह्मचर्य व्रत का पालन करने वाला ब्राह्मण जान सकता है अथवा तपस्वी क्षत्रिय दूसरा कोई सिकी तरह इसे नहीं सीख सकता ’। उनके ऐसा कहने पर अड़िगरागोत्रीय ब्राह्मंणों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य की आज्ञा ले उनका यथोचित सम्मान करके कर्ण सहसा महेन्द्र पर्वत पर परशुराम जी के पास चला गया। परशुराम जी के पास जाकर उसने मस्तक झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और ’मैं भृगवंशी ब्राह्मणहॅूं’ ऐसा कहकर उसने गुरूभाव से उनकी शरण ली। परशुराम जी ने गोत्र आदि सारी बातें पूछकर उसे शिष्य भाव से स्वीकार कर लिया और कहा- ’वत्स! तुम यहां रहो। तुम्हारा स्वागत है।’ ऐसा कहकर वे मुनि उसपर बहुत प्रसन्न हुए। स्वर्गलोग के सदृश मनोहर उस महेन्द्र पर्वत पर रहते हुए कर्ण को गन्धर्वों, राक्षसों , यक्षों तथा देवतओं से मिलने का अवसर प्राप्त होता रहता था। उस पर्वत पर भृगश्रेष्ठ परशुराम जी से विधिपूर्वक धनुर्वेद सीखकर कर्ण उसका अभ्यास करने लगा। वह देवताओं, दानवों एवं राक्षसों का अत्यन्त प्रिय हो गया। एक दिन की बात है, सूर्य पुत्र कर्ण हाथ में धनुष बाण और तलवार ले समुद्र के तट पर आश्रम के पास ही अकेला टहल रहा था। पार्थ! डस समय अग्निहोत्र में लगे हुए किसी वेदपाठीब्राह्मणकी होमधेनु उधर आ निकली। उसे अनजाने में उस धेनुको (हिस्त्र जीव समझकर) अकस्मात् मार डाला। अनजाने में यह अपराध बन गया है, ऐसा समझकर कर्ण नेब्राह्मणको सारा हाल बता दिया और उसे प्रसन्न करते हुए इस प्रकार कहा-। ’भगवन्! मैंने अनजाने में आपकी गाय मार डाली है, अतः आप मेरा यह अपराध क्षमा करके मुझपर कृपा कीजिये,’ कर्ण ने इस बात को बार- बार दुहराया। ब्राह्मण उसकी बात सुनते ही कुपित हो उठा और कठोर वाणी द्वारा उसे डांटता हुआ सा बोला- ’दुराचारी! तू मार डालने योग्य है। दुर्मते ! तू अपने इस पाप का फल प्राप्त कर ले। पापी ! तू जिसके साथ सदा ईष्र्या रखता है और जिसे परास्त करने के लिये निरन्तर चेष्टा करता है, उसके साथ युद्ध करते हुए तेरे रथ के पहिये को धरती निगल जायेगी। नारदजी का कर्ण को शाप, प्राप्त होने का प्रसंग सुनाना नराधम! जब पृथ्वी में तेरा पहिया फॅंस जायगा और तू अचेत- सा हो रहा होगा, उस समय तेरा शत्रु पराक्रम करके तेरे मस्तक को काट गिरायेगा। अब तू चला जा। ’ओ मूढ! जैसे असावधान होकर तूने इस गौका बध किया है, उसी प्रकार असावधान- अवस्थामें ही शत्रु तेरा सिर काट डालेगा’। इस प्रकार शाप प्राप्त होने पर कर्ण ने उस श्रेष्ठब्राह्मणको बहुत- सी गौए, धन और रत्न देकर उसे प्रसन्न करने की चेष्टा की ।तब उसने इस प्रकार उत्तर दिया-। ’सारा संसार आ जाये तो भी कोई मेरी बातकों झूठी नहीं कर सकता । तू यहाଁ से जा या खड़ा रह अथवा तुझे जो कुछ करना हो, वह कर ले,। ब्राह्मण के ऐसा कहने पर कर्ण को बड़ा भय हुआ। उसने दीनतावश सिर झुका लिया । वह मन-ही-मन उस बात का चिन्तन करता हुआ परशुराम जी के पास लौट आया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में कर्णकोंब्राह्मणका शाप नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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