महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 17 श्लोक 1-20

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सत्रहवां अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: सत्रहवां अध्याय: श्लोक 1-34 का हिन्दी अनुवाद

शिवसहस्त्रनामस्तोत्र और उसके पाठका फल भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-तात युधिष्ठिर! तदनन्तर ब्रह्मार्षि उपमन्युने मन और इन्द्रियोंको एकाग्र करके पवित्र हो हाथ जोड़ मेरे समक्ष वह नाम-संग्रह आदिसे ही कहना आरम्भ किया। उपमन्यु बोले-मैं ब्रह्माजीके कहे हुए, ऋषियोंके बताये हुए तथा वेद-वेदांगोंसेप्रकट हुए नामोंद्वारा सर्वलोकविख्यात एवं स्तुतिके योग्य भगवान की स्तुति करूंगा। इन सब नामोंका आविष्कार महापुरूषोंने किया है तथा वेदोंमें दत्‍तचित रहनेवाले महर्षि तण्डिने भक्तिपूर्वक इनका संग्रह किया हैं। इसलिये ये सभी नाम सत्य, सिद्ध तथा सम्पूर्ण मनोरथोंके साधक है। विख्यात श्रेष्ठ पुरूषो तथा तत्वदर्षी मुनियोंने इन सभी नामोंका यथावत्रूपसे प्रतिपादन किया हैं। महर्षि तण्डिने ब्रह्मालोकसे मत्र्यलोकमें इन नामोंको उतारा है; इसलिये ये सत्यनाम सम्पूर्ण जगत में आदरपूर्वक सुने गये हैं। यदुकुलतिलक श्रीकृष्ण! यह ब्रह्माजीकाकहा हुआ सनातन शिव-स्तोत्र अन्य स्तोत्रोंकी अपेक्षा श्रेष्ठ है और उतम वेदमय है। सब स्तोत्रों की इसका प्रथम स्थान है। यह स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला, सम्पूर्ण भूतोंके लिये हितकर एवं शुभकारक है। इसका मैं आपसे वर्णन करूंगा। आप सावधान होकर मेरे मुखसे इसका श्रवण करें। आप परमेश्वर महादेवजीके भक्त हैं; अतः इस शिवस्वरूप स्तोत्रका वरण करे। शिवभक्त होनेके ही कारण मैं यह सनातन वेदस्वरूप स्तोत्र आपको सुनाता हूं। महादेवजीकेइस सम्पूर्ण नामसमूह का पूर्णरूपसे विस्तारपूर्वक वर्णन तो कोई कर ही नहीं सकता। कोई व्यक्ति योगयुक्त होनेपर भी भगवानशिवकी विभूतियोंका सैकड़ों वर्षोंमें भी वर्णन नहीं कर सकता। माधव! भजनके आदि, मध्य और अन्तका पता देवता भी नहीं पाते हैं, उनके गुणोंका पूर्णरूपसे वर्णन कौन कर सकता हैं? परंतु मैं अपनी शक्तिके अनुसार उन बुद्धिमान् महादेवजीकी ही कृपासे संक्षिप्त अर्थ, पद और अक्षरोंसे युक्त उनके चरित्र एवं स्तोत्रका वर्णन करूंगा। उनकी आज्ञा प्राप्त किये बिना उन महेश्वरकी स्तुति नहीं की जा सकती है। जब उनकी आज्ञा प्राप्त हुई हैं, तभी मैंने उनकी स्तुति की हैं। आदि-अन्तसे रहित तथा जगत के कारणभूत अव्यक्तयोनि महात्मा शिवके नामोंकाकुछ संक्षिप्त संग्रह मैं बता रहा हूं। श्रीकृष्ण! जो वरदायक,वरेण्य सर्वश्रेष्ठ, विश्वरूप और बुद्धिमान हैं, उन भगवानशिवका पद्ययोनि ब्रह्माजीके द्वारा वर्णित नाम-संग्रह श्रवण करो।।प्रपितामह ब्रह्माजीने जो दस हजार नाम बताये थे, उन्हींको मनरूपी मथनीसे मथकर मथे हुए दहीसे घीकी भांति यह सहस्त्रनामस्तोत्र निकाला गया हैं।।जैसे पर्वतका सार सुवर्ण, फलाका सार मधु और घीका सार मण्ड है, उसी प्रकार यह दस हजार नामों का सार उदधृतकिया गया है। यह सहस्त्रनाम सम्पूर्ण पापोंका नाश करनेवाला और चारों वेदोंके समन्वयसे युक्त है। मनको वशमेंकरके प्रयत्नपूर्वक इसका ज्ञान प्राप्त करे और सदा अपने मनमें इसको धारण करे। यह मंगलजनक, पुष्टिकारक, राक्षसोंका विनाशक तथा परम पावन है। जो भक्त हो, श्रद्धालु और आस्तिक हो, उसीको इसका उपदेश देना चाहिये। अश्रद्धालु, नास्तिक और अजितात्मा पुरूषको इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। श्रीकृष्ण! जो जगत के कारणरूप ईश्वर महादेवके प्रति दोषदृष्टि रखता है, वह पूर्वजों और अपनी संतान के सहित नरकमें पड़ता है। सर्वोतम ध्येय है, यह जापनीय मन्त्र है, यह ज्ञान है और यह उत्‍तमरहस्य है।जिसको अन्तकालमें भी जान लेनेपर मनुष्य परमगतिको पा लेता है, वह यह सहस्त्रनामस्तोत्र परम उत्‍तमहै। सम्पूर्ण लोकोंके पितामह ब्रह्माजीने पूर्वकालमें इस स्तोत्रका आविष्कार करके इसे समस्त दिव्यस्तोत्रोंके राजाके पद पर प्रतिष्ठत किया था। तबसे महात्मा ईश्वर महादेवका यह देवपूजित स्तोत्र संसारमें ’स्तवराज’ के नामसे विख्यात हुआ। ब्रह्मालोकसे यह स्तवराज स्वर्गलोकमें उतारा गया। पहले इसे तण्डिमुनिने प्राप्त किया था, इसलिये यह ‘तण्डिकृत सहस्त्रनामस्तवराज’ के रूपमें प्रसिद्ध हुआ।तण्डिने स्वर्गसे उसे इस भूतलपर उतारा था। यह सम्पूर्ण मंगलोंका भी मंगल तथा समस्त पापोंका नाश करनेवाला है। महाबाहो!सब स्तोत्रों में उत्‍तमइस सहस्त्रनामस्तोत्रका मैं आपसे वर्णन करूंगा। जो वेदोंके भी वेद, उतम वस्तुओंमें भी परम उत्‍तम, तेजके भी तेज, तपके भी तप, शान्त पुरूषोंमें भी परम शान्त, कान्तिकी भी कान्ति, जितेन्द्रियोंमें भी परम जितेन्द्रिय, बुद्धिमानोंकी भी बुद्धि, देवताओंके भी देवता, ऋषियोंके भी ऋषि, यज्ञोंके भी यज्ञ, कल्याणोंके भी कल्याण, रूद्रोंके भी रूद्र, प्रभावशाली ईश्वरोंकी भी प्रभा (ऐश्वर्य), योगियोंके भी योगी तथा कारणोंके भी कारण हैं। जिनसे सम्पूर्ण लोक उत्पन्न होते और फिर उन्हींमें विलीन हो जाते हैं, जो सम्‍पूर्ण भतोंके आत्मा हैं, उन्हीं अमित तेजस्वी भगवान् शिवके एक हजार आठ नामोंका वर्णन मुझसे सुनिये। पुरूषसिंह! उसका श्रवणमात्र करके आप अपनी सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेंगे। 1 स्थिरः- चंचलतारहित, कूटस्थ एवं नित्य, 2 स्थाणुः- गृहके आधारभूत खम्भके समान समस्त जगत के आधारस्तम्भ, 3 प्रभः- समर्थ ईश्वर, 4 भीमः- संहारकारी होनके कारण भयंकर, 5 प्रवरः- सर्वश्रेष्ठ, 6 वरदः- अभीष्ट वर देनेवाले, 7 वरः- वरण करने योग्य, वरस्वरूप, 8 सर्वात्मा- सबके आत्मा, 9 सर्वविख्यातः- सर्वत्र प्रसिद्ध, 10 सर्वः- विश्वात्मा होनेके कारण सर्वस्वरूप, 11 सर्वकारः- सम्पूर्ण जगत के स्त्रष्टा, 12 भवः- सबकी उत्पतिके स्थान।,13 जटी- जटाधारी, 14 चर्मी- व्याघ्रचर्म धारण करनेवाले, 15शिखण्डी- शिखाधारी, 16 सर्वांगः- सम्पूर्ण अंगोंसे सम्पन्न, 17 सर्वभावनः- सबके उत्पादक, 18 हरः- पापहारी, 19 हरिणाक्षः- मृगके समान विशाल नेत्रवाले, 20 सर्वभूतहरः- सम्पूर्ण भूतोंका संहार करनेवाले, 21 प्रभुः- स्वामी।।22 प्रवृतिः- प्रवृतिमार्ग, 23 निवृतिः- निवृतिमार्ग, 24 नियतः- नियमपरायण, 25 शाश्वतः- नित्य, 26 ध्रुवः- अचल, 27शशानवासी- शषानभूमिमें निवास करनेवाले, 28 भगवान्- सम्पूर्ण ऐश्वर्य, ज्ञान,यज्ञ,श्री,वैराग्य, और धर्मसे सम्पन्न,120, 29 खचरः-आकाशमें विचरनेवाले, 30 गोचरः- पृथ्वीपर विचरनेवाले, 31 अर्दनः- पापियोंको पीड़ा देनेवाले। 32 अभिवाद्यः- नमस्कारके योग्य, 33 महाकर्मा- महान् कर्म करनेवाले, 34 तपस्वी- तपस्यामें संलग्न, 35 भूतभावनः- संकल्पमात्रसे आकाश आदि भूतोंकी सृष्टि करनेवाले, 36 उन्मतवेशप्रच्छन्नः- उन्मत वेशमें छिपे रहनेवाले, 37 सर्वलोकप्रजापतिः- सम्पूर्ण लोकोंकी प्रजाओंके पालक।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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