महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 45 श्लोक 1-14

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पैंतालीसवॉं अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: पैंतालीसवॉं अध्याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद

कन्‍याके विवाहका त‍था कन्‍या और दोहित्र आदिके उतराधिकारका विचार युधिष्‍ठीरने पूछा- पितामह ! जिस कन्‍याका मूल्‍य ले लिया गया हो उसका ब्‍याह करनेके लिये यदि कोई उपस्थित न हो, अर्थात् मूल्‍य देनेवाला परदेश चला गया हो और उसके भयसे दूसरा पुरुष भी उस कन्‍यासे विवाह करनेको तैयार न हो तो उसके पिताको क्‍या करना चाहिये? यह मुझे बताइये। भीष्‍मजीने कहा- युधिष्ठिर ! यदि संतानहीन धनीसे कन्‍याका मूल्‍य लिया गया हो तो पिताका कर्तव्‍य है कि वह उसके लौटनेतक कन्‍याकी हर तरह से रक्षा करे। खरीदी हुई कन्‍याका मूल्‍य जबतक मूल्‍य लौटा नहीं दिया जाता तबतक वह कन्‍या मूल्‍य देनेवालेकी ही मानी जाती है। जिस न्‍यायोचित उपायसे सम्‍भव हो, उसीके द्वारा वह कन्‍या अपने मृत्‍युदाता पतिके लिये ही संतान उत्‍पन्‍न करनेकी इच्‍छा करे। अत: दूसरा कोई पुरुष वैदिक मन्‍त्रयुक्‍त विधिसे उसका पाणिग्रहण या और कोई कार्य नहीं कर सकता। सावित्रीने पिताकी आज्ञा लेकर स्‍वंय चुने हुए पतिके साथ सम्‍बन्‍ध स्‍थापित किया था, उसके इस कार्यकि दूसरे धर्मज्ञ पुरुष प्रशंसा करते हैं; परंतु कुछ लोग नहीं भी करते हैं। कुछ लोगोंका कहना है कि दूसरे सत्‍पुरुषोंने ऐसा नहीं किया है और कुछ कहते हैं कि अन्‍य सत्‍पुरुषोंने भी अभी-अभी ऐसा किया हैं, अत: श्रेष्‍ठ पुरुषोका आचार ही धर्मका सर्वश्रेष्‍ठ लक्षण है। इसी प्रसंगमें विदेहराज महात्‍मा जनकके नाती सुक्रतुनेऐसा कहा है। दुराचारियोंके मार्गका शास्‍त्रोंद्वारा कैसे अनुमोदन किया जा सकता है? इस विषयमें सत्‍पुरुषोंके समक्ष प्रश्‍्न, संशय अथवा उपालम्‍भ कैसे उपस्थित किया जा सकता है? स्त्रियॉं सदा पिता, या पुत्रोंके संरक्षणमें ही रहती हैं, स्‍वतंत्र नहीं होती। यह पुरातन धर्म है। इस धर्मका खंडन करना असत् कर्म या आसुर धर्म है। पूर्वकालके बड़े-बूढ़ोंमें विवाहके अवसरोंपर कभी इस आसुरी पध्‍दतीका अपनाया जाना हमने नहीं सुना है। पति और पत्‍नीका अथवा स्‍त्री और पुरुषका सम्‍बन्‍ध बहुत ही घनिष्‍ठ एवं सूक्ष्‍म है। रति उनके साधारण धर्म है। यह बात भी राजा सुक्रतुने कही थी। युधिष्ठिरने पूछा- पितामह ! पिताके लिये पुत्री भी तो पुत्रके समान होती हैं; फिर उसके रहते हुए किस प्रमाणसे केवल पुरुष ही धनके अधिकारी होते है? भीष्‍मजीने कहा- बेटा ! पुत्र अपने आत्‍माके समान हैं और कन्‍या भी पुत्रके ही तुल्‍य है, अत: आत्‍मस्‍वरुप पुत्रके रहते हुए दूसरा कोई उसका धन कैसे ले सकता है?। माताको दहेजमें जो धन मिलता हैं उसपर कन्‍याका ही अधिकार हैं, अत: जिसके कोई पुत्र नहीं है उसके धनको पानेका अधिकारी उसका दोहित्र (नाती) ही है। वही उस धनको ले सकता है। दौहित्र अपने पिता और नानाको भी पिण्‍ड देता हैं। धर्मकी दृष्टिसे पुत्र और दौहित्रमें कोई अन्‍तर नहीं है। अन्‍यत्र अर्थात् यदि पहले कन्‍या उत्‍पन्‍न हुई और वह पुत्ररुपमें स्‍वीकार कर ली गयी तथा उसके बाद पुत्र भी पैदा हुआ तो वह पुत्र उस कन्‍याके साथ ही पिताके धनका अधिकारी होता है। यदि दूसरेका पुत्र गोद लिया गया हो तो उस दतक पुत्रकी अपेक्षा अपनी सगी बेटी ही श्रेष्‍ठ मानी जाती है (अत: वह पैतृक धनके अधिक भागकी अधिकारिणी है)। जो कन्‍याऍं मूल्‍य लेकर बेच दी गयी हों उनसे उत्‍पन्‍न होनेवाले पुत्र केवल अपने पिताके ही उतराधिकारी होते है। उन्‍हें दौहित्रक धर्मके अनुसार नानाके धनका अधिकारी बनानेके लिये कोई युक्तिसंगत कारण मैं नहीं देखता। आसुर विवाहसे जिन पुत्रोंकी उत्‍पति होती हैं, वे दूसरोंके दोष रखनेवाले, पापाचारी, पराया धन हड़पनेवाले, शठ तथा धर्मके विपरीत बर्ताव करनेवाले होते है। इस विषयमें प्राचीन बातोंको जाननेवाले तथा धर्मशास्‍त्रों और धर्ममर्यादाओंमें स्थित रहनेवाले धर्मज्ञ पुरुष यमकी गायी इस प्रकार वर्णन करते हैं- ‘जो मनुष्‍य अपने पुत्रको बेचकर धन पाना चा‍हता है अथवा जीविकाके लिये मूल्‍य लेकर कन्‍याको बेच देता हैं, वह मूढ़ कुम्‍भीपाक आदि सात नरकोंसे भी निकृष्‍ट कालसूत्र नामक नरकमें पड़कर अपने ही मल-मूत्र और पसीनेका भक्षण करता है’। राजन् ! कुछ लोग आर्ष विवाहमें एक गाय और एक बैल- इन दो पशुओंको मूल्‍यके रुपमें लेनेका विधान बताते हैं, परंतु यह भी मिथ्‍या ही है, क्‍योंकि मूल्‍य थोड़ा लिया जाय या बहुत, उतनेहीसे वह कन्‍याका विक्रय हो जाता है। य‍द्पि कुछ पुरुषोंने ऐसा आचरण किया हैं, परंतु यह सनातन धर्म नहीं है। दूसरे लोगोंमें भी लोकाचारवश बहुत-सी प्रवृतियॉं देखी जाती हैं। जो किसी कुमारी कन्‍याको बलपूर्वक अपने वशमें करके उसका उपभोग करते हैं, वे पापाचारी मनुष्‍य अन्‍धकारपूर्ण नरकमें गिरते हैं। जो किसी कुमारी कन्‍याको बलपूर्वक अपने वशमें करके उसका उपभोग करते हैं, वे पापाचारी मनुष्‍य अन्‍धकारपूर्ण नरकमें गिरते है। किसी दुसरे मनुष्‍यको भी नहीं बेचना चाहिये, फिर अपनी संतानको बेचनेकी तो बात ही क्‍या ? अधर्म मूलक धनसे किया हुआ कोई भी धर्म सफल नहीं होता।।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें विवाहधर्मसम्‍बन्‍धी यमगाथानामक पैंतालीसवॉं अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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