महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 46 श्लोक 1-14

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छियालीसवॉं अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: छियालीसवॉं अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

स्त्रियोंके आभूषणोंसे सत्‍कार करनेकी आवश्‍यकताका प्रतिपादन भीष्‍मजी कहते हैं-युधिष्ठिर ! प्राचीन इतिहासके जाननेवाले विद्वान् दक्षप्रजापतिके वचनोंको इस प्रकार उदधृत करते हैं। कन्‍याके भाई-बन्‍धु यदि उसके वस्‍त्र-आभूषण लिये धन ग्रहण करते हैं और स्‍वयं उसमेंसे कुछ भी नहीं लेते हैं तो वह कन्‍याका विक्रय नहीं है। वह तो उन कन्‍याओं सत्‍कारमात्र है। वह परम दयालुतापूर्ण कार्य है। वह सारा धन जो कन्‍याके लियेही प्राप्‍त हुआ हो, सब-का-सब कन्‍याको ही अर्पित कर देना चाहिये। बहुविध कल्‍याणकी इच्‍छा रखनेवाले पिता, भाई, श्‍वशुर और देवरोंको उचित है कि वे नववधूका पूजन-वस्‍त्राभूषणोंद्वारा सत्‍कार करें। नरेश्‍वर ! यदि स्‍त्रीकी रुचि पूर्ण न की जाय तो वह अपने पतिको प्रसन्‍न नही कर सकती और उस अवस्‍थामे उस पुरुषकी संतानवृद्धि नहीं हो सकती। इसलिये सदा ही स्त्रियोंका सत्‍कार और दुलार करना चाहिये। जहॉं स्त्रियोंका आदर-सत्‍कार होता है वहॉ देवतालोग प्रसन्‍नतापर्वूक निवास करते हैं तथा जहॉं इनका अनादर किया जाता है वहॉंकी सारी क्रियाऍं निष्‍फल हो जाती हैं। जब कुलकी बहू-बेटियॉं दु:ख मिलनेके कारण शोकमग्‍न होती हैं तब उस कुलका नाश हो जाता है। वे खिन्‍न होकर जिन घरोंको शाप दे देती हैं, वे कृत्‍याके द्वारा नष्‍ट हुए के समान उजाड़ हो जाते हैं। पृथ्‍वीनाथ ! वे श्रीहीन गृह नतो शोभा पाते हैं औरन उनकी वृध्दि ही होती है। महाराज मनु जब स्‍वर्गको जाने लगेतब उन्‍होंने स्त्रियोंको पुरुषोंके हाथमें सौंप दिया और कहा- ‘मनुष्‍यों ! स्त्रियॉं अबला, थोड़े से वस्‍त्रोंसे काम चलानेवाली, अकारण हितसाधन करनेवाली, सत्‍यलोकको जीतनेकी इच्‍छावाली (सत्‍यपरायण), ईष्‍यालु, मान चाहनेवाली, अत्‍यन्‍त कोपकरनेवाली,पुरुषके प्रति मैत्रीभाव रखनेवाली और भोली-भाली होती हैं।स्त्रियॉं सम्‍मान पानेके योग्‍य हैं, अत: तुम सब लोग उनका सम्‍मान करो; क्‍योंकि स्‍त्री-जाति ही धर्मकी सिध्दिका मूल कारण है। तुम्‍हारे रतिभोग,परिचर्या और नमस्‍कार स्त्रियोंके ही अधीन होगें। ‘संतानकी उत्‍पति, उत्‍पन्‍न हुए बालकका लालन-पालन तथा लोकयात्राका प्रसन्‍नतापूर्वक निर्वाह-इन सबको स्त्रियोंके ही अधीन समझों। यदि तुमलोग स्त्रियोंका सम्‍मान करोगे तो तुम्‍हारे सब कार्य कार्य सिध्‍द होगें ‘(स्त्रियोंके कर्तव्‍यके विषयमें) विदेहराज जनककी पुत्रीने एक श्‍लोकका गान किया है, जिसका सारांश इस प्रकार है-स्‍त्रीके लिये कोई यज्ञ आदि कर्म, श्राध्‍द और उपवास करना आवश्‍यक नही हैं। उसका धर्म है अपने पतिकी सेवा। उसीसे स्त्रियॉं स्‍वर्ग स्‍वर्गलोकपर विजय पा लेती हैं। कुमारावस्‍था में स्‍त्रीकी रक्षा उसका पिता करता है, जवानीमें पति उसका रक्षक है और वृध्‍दावस्‍थामें पुत्रगण उसकी रक्षा करते हैं। अत: स्‍त्रीको कभी स्‍वतन्‍त्र नहीं करना चाहिये। भरतनन्‍दन ! स्त्रियॉं ही घरकी लक्ष्‍मी होती हैं। उन्‍नति चाहनेवाले पुरुषको उनका भलीभाँ‍ती सत्‍कार करना चाहिये। अपने वशमें रखकर उनका पालन करनेसे स्‍त्री थी (लक्ष्‍मी)-का स्‍वरुप बन जाती है।  

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वणि अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें विवाहधर्मके प्रसंगमें स्‍त्रीकी प्रशसानामक छियालीसवॉं अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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