महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 164 श्लोक 1-15

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चतु:षष्टयधिकशततम (164) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: चतु:षष्टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दुख की प्राप्ति में कारण बताते हुए धर्म के अनुष्ठान पर जोर देना

भीष्मजी ने कहा-बेटा! मनुष्य जो शुभ और अशुभ कर्म करता या कराता है, उन दोनों प्रकार के कर्मों में से शुभ कर्म का अनुष्ठान करके उसे यह आश्वासन प्राप्त करना चाहिये कि इसका मुझे शुभ फल मिलेगा, किंतु कर्म करने पर उसे किसी अच्‍छाफल मिलने का विश्वास नहीं करना चाहिये। काल ही सदा निग्रह और अनुग्रह करता हुआ प्राणियों की बुद्धि में प्रविष्ट हो धर्म और अधर्म का फल देता रहता है। जब धर्म का फल देखकर मनुष्य की बुद्धि में धर्म की श्रेष्ठता का निश्चय हो जाता है, तभी उसका धर्म के प्रति विश्वास बढ़ता है और तभी उसका मन धर्म में लगता है। जब तक धर्म में बुद्धि दृढ़ नहीं होती तब तक कोई उस पर विश्वास नहीं करता है। प्राणियों की बुद्धिमत्ता की यही पहचान है कि वे धर्म के फल में विश्वास करके उसके आचरण में लग जाय। जिसे कर्तव्य-अकर्तव्य दोनों का ज्ञान है, उस पुरुष को चाहिये कि प्रतिकूल प्रारब्ध से युक्त होकर भी यथायोज्य धर्म का ही आचरण करे। जो अतुल ऐश्वर्य के स्वामी हैं, वे यह सोचकर कि कहीं रजोगुणी होकर पुन: जन्‍म-मृत्यु के चक्कर में न पड़ जाय, धर्म का अनुष्ठान करते हैं और इस प्रकार अपने ही प्रयत्न से आत्मा को महत्त पद की प्राप्ति कराते हैं। काल किसी तरह धर्म को अधर्म नहीं बना सकता अर्थात धर्म करने वाले को दु:ख नहीं दे सकता। इसलिये धर्माचरण करने वाले पुरुष को विशुद्ध आत्मा ही समझना चाहिये। धर्म का स्वरूप प्रज्वलित अग्‍नि के समान तेजस्वी है, काल उसकी सब ओर से रक्षा करता है। अत: अधर्म में इतनी शक्ति नहीं है कि वह फैलकर धर्म को छू भी सके। विशुद्ध और पाप के स्पर्श का अभाव-ये दोनों धर्म के कार्य हैं। धर्म विजय की प्राप्ति कराने वाला और तीनों लोकों में प्रकाश फैलाने वाला है। वहीं इस लोक की रक्षा का कारण है। कोई कितना ही बुद्धिमान क्यों न हो, वह किसी मनुष्य का हाथ पकड़ कर उसे बलपूर्वक धर्म में नहीं लगा सकता, किंतु न्यायानुसार धर्ममय तथा लोकभय का बहाना लेकर उसे पुरुषको धर्म के लिये कहा सकता है। मैं शूद्र हूँअत: ब्रह्मचर्य आदि चारों आश्रमों के सेवन का मुझे अधिकार नहीं है- शूद्र ऐसा सोचा करता है, परंतु साधु द्विजगण अपने भीतर छल को आश्रय नहीं देते हैं। अब मैं चारों वर्णों का विशेष रूप से लक्षण बता रहा हूँ। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन चारों वर्णों के शरीर पंच महाभूतों से ही बने हुए हैं और सबका आत्मा एक-सा ही है। फिर भी उनके लौकिक धर्म और विशेष धर्म में विभिन्नता रखी गयी है। इसका उद्देश्य यही है कि सब लोग अपने-अपने धर्म का पालन करते हुए पुन: एकत्वको प्राप्त हों। इसका शास्त्रों में विस्तारपूर्वक वर्णन है। तात! यदि कहो, धर्म तो नित्य माना गया है, फिर उससे स्वर्ग आदि अनित्य लोकों की प्राप्ति कैसे होती है? और यदि होती है तो वह नित्य कैसे है? इसका उत्तर यह है कि जब धर्म का संकल्प नित्य होता है अर्थात अनित्य कामनाओं का त्या करके निष्काम भाव से धर्म का अनुष्ठान किया जाता है, उस समय किये हुए धर्म से सनातन लोक (नित्य परमात्मा)- की ही प्राप्ति होती है। सब मनुष्यों के शरीर एक-से होते हैं और सबका आत्मा भी समान ही है, किंतु धर्मयुक्त संकल्प ही यहाँ शेष रहता है, दूसरा नहीं। वह स्वयं ही गुरु है अर्थात धर्म बल से स्वयं ही उदित होता है। ऐसी दशा में समस्त प्राणियों के लिये पृथक्-पृथक् धर्म सेवन में कोई देाष नहीं है। तिर्भग्योनि में पड़े हुए पशु-पक्षी आदि योनियों के लिये भी यह लोक ही गुरू (कर्तव्याकर्तव्य का निर्देशक ) है।

इस प्रकार रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अनतर्गत दानधर्म पर्व में धर्म की प्रशंसाविषयक एक सौ चौंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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