महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 147 श्लोक 64-83
सप्तचत्वारिंशदधिकशततम (147) अध्याय: द्रोणपर्व (जयद्रथवध पर्व )
नरश्रेष्ठ ! इसके बाद सात्यकि ने तीखे बाणों द्वारा कर्ण के चारों श्वेत घोडों को मार डाला और उसके ध्वज को काटकर रथ के सैकड़ों टूकडे़ करके आपके पुत्र के देखते-देखते कर्ण को रथहीन कर दिया। राजन ! इससे खिन्नचित होकर आपके महारथी वीर कर्ण-पुत्र वृषसेन, मद्रराज शल्य तथा द्रोणकुमार अश्वत्थामा ने सात्यकि को सब ओर से घेर लिया। सात्यकि के द्वारा वीरवर सूतपुत्र कर्ण के रथहीन कर दिये जाने पर सारा सैन्यदल सब ओर से व्याकुल हो उठा। किसी को कुछ सूझ नहीं पड़ता था। राजन ! उस समय सारी सेनाओें में महान हाहाकार होने लगा। महाराज ! सात्यकि के बाणों से रथहीन किया गया कर्ण भी लंबी सांस खीचता हुआ तुरंत ही दुर्योधन के रथ पर जा बै। बचपन से लेकर सदा ही किये हुए आपके पुत्र के सौहार्द का वह समादर करता था और दुर्योधन को राज्य दिलाने की जो उसने प्रतिज्ञा कर रखी थी, उसके पालन में वह तत्पर था। राजन् ! अपने मन को वश में करने वाले सात्यकि ने रथहीन हुए कर्ण को तथा दुःशासन आदि आपके वीर पुत्रों को भी उस समय इसलिये नही मारा कि वे भीमसेन और अर्जुन की पहले से की हुई प्रतिज्ञा की रक्षा कर रहे थे। उन्होंने उन सबको रथहीन और अत्यन्त व्याकुल तो कर दिया, परंतु उनके प्राण नहीं लिये। जब दुबारा द्यूत हुआ था, उस समय भीमसेनने आपके पुत्रों के वध की प्रतिज्ञा की थी और अर्जुन ने कर्ण को मार डालने की घोषणा की थी। कर्ण आदि श्रेष्ठ महारथियों ने सात्यकि के वध के लिये पूरा प्रयत्न किया; परंतु वे उन्हें मार न सके। अश्वत्थामा, कृतवर्मा, अन्यान्य महारथी तथा सैकडों क्षत्रिय शिरोमणि सात्यकि द्वारा एकमात्र धनुष से परास्त कर दिये गये। सात्यकि धर्मराज का प्रिय करना और परलोक पर विजय पाना चाहते थे। शत्रुओं के संताप देने वाले सात्यकि श्रीकृष्ण और अर्जुन के समान पराक्रमी थे। उन्होंने आपकी सारी सेनाओं को हंसते हुए से जीत लिया था। नरव्याघ्र ! संसार में श्रीकृष्ण, कुन्तीकुमार अर्जुन और शिनिपौत्र सात्यकि- ये तीन ही वास्तवमें धनुर्धर हैं। इनके समान चौथा कोई नहीं है।
धृतराष्टने पूछा- संजय ! सात्यकि युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण के समान हैं। उन्होंने श्रीकृष्ण के ही अजेय रथ पर आरूढ होकर कर्ण को रथहीन कर दिया। उस समय उनके साथ दारूक जैसा सारथि था और उन्हें अपने बाहुबल का अभिमान तो था ही; परंतु शत्रुओं को संताप देने वाले सात्यकि क्या किसी दूसरे रथ पर भी आरूढ हुए थे। मैं यह सुनना चाहता हूं। तुम कथा कहने में बडे़ कुशल हो। मैं तो सात्यकि को किसी के लिये भी असहाय मानता हूं, अतः संजय ! तुम मुझसे सारी बातें स्पष्ट रूप से बताओ।
संजयने कहा- राजन ! सारा वृतान्त यथार्थ रूप से सुनिये। दारूक का एक छोटा भाई था, जो बडा बुद्धिमान था। वह तुरंत ही रथ सजाने की विधि से सुसज्जित किया हुआ एक दूसरा रथ ले आया। लोहे और सेना के पटटों से उसका कूबर अच्छी तरह कसा हुआ था। उसमें सहस्त्रों सारे जडे़ गये थे। उसकी ध्वजा-पताकाओं में सिंह का चिन्ह बना हुआ था। उस रथ में सुवर्णमय आभूषणों से विभूषित, वायु के समान वेगशाली, सम्पूर्ण शब्दों को लांघ जाने वाले, सुद्दढ़ तथा चन्द्रमा के समान श्वेतवर्ण घोडे़ जुते हुए थे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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