श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 32 श्लोक 19-22

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०७:२८, ८ जुलाई २०१५ का अवतरण ('== दशम स्कन्ध: द्वात्रिंशोऽध्यायः (32) (पूर्वाध)== <div style="text-...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

दशम स्कन्ध: द्वात्रिंशोऽध्यायः (32) (पूर्वाध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वात्रिंशोऽध्यायः श्लोक 19-22 का हिन्दी अनुवाद

कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो प्रेम करने वालों से भी प्रेम नहीं करते, न प्रेम करने वालों का तो उनके सामने कोई प्रश्न नहीं है। ऐसे लोग चार प्रकार के होते हैं। एक तो वे, जो अपने स्वरुप में ही मस्त रहते हैं—जिनकी दृष्टि में कभी द्वैत भासता ही नहीं। दूसरे वे, जिन्हें द्वेत तो भासता है, परन्तु जो कृतकृत्य हो चुके हैं; उनका किसी से कोई प्रयोजन ही नहीं है। तीसरे वे हैं, जो जानते ही नहीं कि हमसे कौन प्रेम करता है; और चौथे वे हैं, जो जान-बुझकर अपना हित करने वाले परोपकारी गुरुतुल्य लोगों से भी द्रोह करते हैं, उनको सताना चाहते है । गोपियों! मैं तो प्रेम करने-वालों से भी प्रेम का वैसा व्यवहार नहीं करता, जैसा करना चाहिये। मैं ऐसा केवल इसलिये करता हूँ कि उनकी चित्तवृति और भी मुझमें लगे, निरन्तर लगी ही रहे। जैसे निर्धन पुरुष को कभी बहुत-सा धन मिल जाय और फिर खो जाय तो उसका ह्रदय खोये हुए धन की चिन्ता से भर जाता है, वैसे ही मैं भी मिल-मिलकर छिप-छिप जाता हूँ । गोपियों! इसमें सन्देह नहीं कि तुम लोगों ने मेरे लिये लोक-मर्यादा, वेदमार्ग और अपने सगे-सम्बन्धियों को भी छोड़ दिया है। ऐसी स्थिति में तुम्हारी मनोवृत्ति और कहीं न जाय, अपने सौन्दर्य और सुहाग की चिन्ता न करने लगे, मुझमे ही लगी रहे—इसलिये परोक्षरूप से तुम लोगों से प्रेम करता हुआ ही मैं छिप गया था। इसलिये तुम लोग मेरे प्रेम में दोष मत निकालो। तुम सब मेरी प्यारी और मैं तुम्हारा प्यारा हूँ । मेरी प्यारी गोपियों! तुमने मेरे लिये घर-गृहस्थी की उन बेड़ियों को तोड़ डाला है, जिन्हें बड़े-बड़े योगी-यति भी नहीं तोड़ पाते। मुझसे तुम्हारा यह मिलन, यह आत्मिक संयोग सर्वथा निर्मल और सर्वथा निर्दोष है। यदि मैं अमर शरीर से—अमर जीवन से अनन्त काल तक तुम्हारे प्रेम, सेवा और त्याग का बदला चुकाना चाहूँ तो भी नहीं चुका सकता। मैं जन्म-जन्म के लिये तुम्हारा ऋणी हूँ। तुम अपने सौम्य स्वभाव से, प्रेम से मुझे उऋण सकती हो। परन्तु मैं तो तुम्हारा ऋणी ही हूँ ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-