महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 28 श्लोक 41-49
अष्टविंश (28) अध्याय: कर्ण पर्व
इस प्रकार जब सभी योद्धा युद्ध में लगे थे और तुमुल संग्राम चल रहा था,एस समय यैंकड़ों और हजारों कबन्ध ( धड़ ) उठ खड़े हुए थे। खून से भींगे हुए शस्त्र और कवच गाढ़े रंग में रंगे हुए वस्त्रों के समान सुशोभित होते थे। इस प्रकार अस्त्र-शस्त्रों से परिपूर्ण यह महाभयानक युद्ध बढ़ी हुई गंगा के समान जगत् को कालाहल से पकरपूर्ण कर रहा था। राजन् ! बाणों की चोट से व्याकुल हुए अपने और पराये योद्धा पहचान में नहीं आते थे। विजय की अभिलाषा रखने वाले राजा लोग ‘युद्ध करना अपना कर्तव्य है ‘यह समझकर जूझ रहे थे। महाराज ! सामने आये हुए अपने और शत्रु के योद्धाओं को भी अपने पक्ष के लोग मार डालते थे। दोनों सेनाओं के वीर मर्यादाशून्य युद्ध में प्रवृत्त हो गये थे। राजेन्द्र ! टूटे हुए रथों,धराशायी हुए हाथियों, मरकर गिरे हुए घोड़ों और गिराये गये पैदल सैनिकों से क्षण भर में यह पृथ्वी ऐसी हो गई कि वहाँ चलना-फिरना असम्भव हो गया। भूपाल ! क्षण भर में वहाँ भूतलपर खून की नदी बह चली। कर्ण ने पांचालों और अर्जुन ने त्रिगतों का संहार कर डाला। राजन् ! भमसेन ने कौरवों तथा आपकी गजसेना को सर्वथा नष्ट कर दिया। इस प्रकार सूर्यदेव के अपरान्ह काल में जाते-जाते कौरव और पाण्डव दोनों सेनाओं में महान् यश की अभिलाषा रखने वाले वीरों का यह विनाश-कार्य सम्पन्न हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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