श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 39 श्लोक 23-30

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दशम स्कन्ध: एकोनचत्वरिंशोऽध्यायः (39) (पूर्वाध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनचत्वरिंशोऽध्यायः श्लोक 23-30 का हिन्दी अनुवाद

आज की रात का प्रातःकाल मथुरा की स्त्रियों के लिये निश्चय ही बड़ा मंगलमय होगा। आज उनकी बहुत दिनों की अभिलाषाएँ अवश्य ही पूरी हो जायँगी। जब हमारे व्रजराज श्यामसुन्दर अपनी तिरछी चितवन और मन्द-मन्द मुसकान से युक्त मुखारविन्द का मादक मधु वितरण करते हुए मथुरापुरी में प्रवेश करेंगे, अब वे उनका पान करके धन्य-धन्य हो जायँगी । यद्यपि हमारी श्यामसुन्दर धर्यवान् होने के साथ ही नन्दबाबा आदि गुरुजनों की आज्ञा में रहते हैं, तथापि मथुरा की युवतियों अपने मधु के समान मधुर वचनों से इनका चित्त बरबस अपनी ओर खींच लेंगी और ये उनकी सलज्ज मुसकान तथा विलासपूर्ण भाव-भंगी से वहीँ रम जायँगे। फिर हम गँवार ग्वालिनों के पास ये लौटकर क्यों आने लगे । धन्य है आज हमारे श्यामसुन्दर का दर्शन करके मथुरा के दाशार्ह, भोज, अन्धक और वृष्णिवंशी यादवों के नेत्र अवश्य ही परमानन्द का साक्षात्कार करेंगे। आज उनके यहाँ महान् उत्सव होगा। साथ ही जो लोग यहाँ से मथुरा जाते हुए रमारमण गुणसागर नटनागर देवकीनन्दन श्यामसुन्दर का मार्ग में दर्शन करेंगे, वे भी निहाल हो जायँगे ।

देखो सखी! यह अक्रूर कितना निष्ठुर, कितना ह्रदयहीन है। इधर तो हम गोपियाँ इतनी दुःखित हो रही हैं और यह हमारे परम प्रियतम नन्ददुलारे श्यामसुन्दर को हमारी आँखों से ओझल करके बहुत दूर ले जाना चाहता है और दो बात कहकर हमें धीरज भी नहीं बँधाता, आश्वासन भी नहीं देता। सचमुच ऐसे अत्यन्त क्रूर पुरुष का ‘अक्रूर’ नाम नहीं होना चाहिये था । सखी! हमारे ये श्यामसुन्दर भी तो कम निष्ठुर नहीं हैं। देखो-देखो, वे भी रथपर बैठ गये। और मतवाले गोपगण छकड़ों द्वारा उनके साथ जाने के लिये कितनी जल्दी मचा रहे हैं। सचमुच ये मूर्ख हैं। और हमारे बड़े-बूढ़े! उन्होंने तो इन लोगों की जल्दबाजी देखकर उपेक्षा कर दी है कि ‘जाओ जो मन में आवे, करो!’ अब हम क्या करें ? आज विधाता सर्वथा हमारे प्रतिकूल चेष्टा कर रहा है । चलो, हम स्वयं ही चलकर अपने प्राणप्यारे श्यामसुन्दर को रोकेंगी; कुल के बड़े-बूढ़े और बन्धुजन हमारा क्या कर लेंगे ? अरी सखी! हम आधे क्षण के लिये भी प्राणवल्लभ नन्दनन्दन का संग छोड़ने में असमर्थ थीं। आज हमारे दुर्भाग्य ने हमारे सामने उनका वियोग उपस्थित करके हमारे चित्त को विनष्ट एवं व्याकुल कर दिया है । सखियों! जिनकी प्रेमभरी मनोहर मुसकान, रहस्य की मीठी-मीठी बातें, विलासपूर्ण चितवन और प्रेमालिंगन से हमने रासलीला की वे रात्रियाँ—जो बहुत विशाल थीं—एक क्षण के समान बिता दी थीं। अब भला, उनके बिना हम उन्हीं की दी हुई अपार विरहव्यथा का पार कैसे पावेँगी । एक दिन की नहीं, प्रतिदिन की बात है, सायंकाल में प्रतिदिन वे ग्वालबालों से घिरे हुए बलरामजी के साथ वन से गौएँ चराकर लौटते हैं। उनकी काली-काली घुँघराली अलकें और गले के पुष्पहार गौओं के खुर की रज से ढके रहते हैं। वे बाँसुरी बजाते हुए अपनी मन्द-मन्द मुसकान और तिरछी चितवन से देख-देखकर हमारे ह्रदय को बेध डालते हैं। उनके बिना भला, हम कैसे जी सकेंगी ?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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