श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 39 श्लोक 31-44
दशम स्कन्ध: एकोनचत्वरिंशोऽध्यायः (39) (पूर्वाध)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! गोपियाँ वाणी से तो इस प्रकार कह रही थीं; परन्तु उनका एक-एक मनोरथ भगवान् श्रीकृष्ण का स्पर्श, उनका आलिंगन कर रहा था। वे विरह की सम्भावना से अत्यन्त व्याकुल हो गयीं और लाज छोड़कर ‘हे गोविन्द! हे दामोदर! हे माधव!’—इस प्रकार ऊँची आवाज से पुकार-पुकारकर सुललित स्वर से रोने लगीं । गोपियाँ इस प्रकार रो रहीं थीं! रोते-रोते सारी रात बीत गयी, सूर्योदय हुआ। अक्रूरजी सन्ध्या-वन्दन आदि नित्य कर्मों से निवृत्त होकर रथपर सवार हुए और उसे हाँक ले चले । नन्दबाबा आदि गोपों ने भी दूध, दही, मक्खन, घी आदि से भरे मटके और भेंट की बहुत-सी सामग्रियाँ ले लीं तथा वे छकड़ों पर चढ़कर उनके पीछे-पीछे चले । इसी समय अनुराग के रँग में रँगी हुई गोपियाँ अपने प्राणप्यारे श्रीकृष्ण के पास गयीं और उनकी चितवन, मुसकान आदि निरखकर कुछ-कुछ सुखी हुईं। अब वे अपने प्रियतम श्यामसुन्दर से कुछ सन्देश पाने की आकांक्षा से वहीँ खड़ी हो गयीं । यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरे मथुरा जाने से गोपियों के ह्रदय में बड़ी जलन हो रही है, वे सन्तप्त हो रही हैं, तब उन्होंने दूत के द्वारा ‘मैं आऊँगा’ यह प्रेम-सन्देश भेजकर उन्हें धीरज बँधाया । गोपियों को जब तक रथ की ध्वजा और पहियों से उड़ती हुई धूल दीखती रही तब तक उनके शरीर चित्रलिखित-से वहीँ ज्यों-के-त्यों खड़े रहे। परन्तु उन्होंने अपना चित्त तो मनमोहन प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण के साथ ही भेज दिया था । अभी उनके मन में आशा थी कि शायद श्रीकृष्ण कुछ दूर जाकर लौट आयें! परन्तु जब नहीं लौटे, तब वे निराश हो गयीं और अपने-अपने घर चली आयीं। परीक्षित्! वे रात-दिन अपने प्यारे श्यामसुन्दर की लीलाओं का गान करती रहतीं और इस प्रकार अपने शोकसन्ताप को हल्का करतीं ।
परीक्षित्! इधर भगवान् श्रीकृष्ण भी बलरामजी और अक्रूरजी के साथ वायु के समान वेगवाले रथपर सवार होकर पापनाशिनी यमुनाजी के किनारे जा पहुँचे । वहाँ उन लोगों ने हाथ-मुँह धोकर यमुनाजी का मरकतमणि के समान नीला और अमृत के समान मीठा जल पिया। इसके बाद बलरामजी के साथ भगवान् वृक्षों के झुरमुट के खड़े रथ पर सवार हो गये । अक्रूरजी ने दोनों भाइयों को रथपर बैठाकर उनसे आज्ञा ली और यमुनाजी के कुण्ड ( अनन्त—तीर्थ या ब्रम्हहृद) पर आकर वे विधिपूर्वक स्नान करने लगे । उस कुण्ड में स्नान करने के बाद वे जल में डुबकी लगाकर गायत्री का जप करने लगे। उसी समय जल के भीतर अक्रूरजी ने देखा कि श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई एक साथ ही बैठे हुए हैं । अब उनके मन में वे शंका हुई कि ‘वसुदेवजी के पुत्रों को तो मैं रथपर बैठा आया हूँ, अब वे यहाँ जल में कैसे आ गये ? जब यहाँ हैं तो शायद रथपर नहीं होंगे।’ ऐसा सोंचकर उन्होंने सिर बाहर निकालकर देखा । वे उस रथपर भी पूर्ववत् बैठे हुए थे। उन्होंने यह सोचकर कि मैंने उन्हें जो जल में देखा था, वह भ्रम ही रहा होगा, फिर डुबकी लगायी । परन्तु फिर उन्होंने वहाँ भी देखा कि साक्षात् अनन्तदेव श्रीशेषजी विराजमान हैं और सिद्ध, चारण, गन्धर्व एवं असुर अपने-अपने सिर झुकाकर उनकी स्तुति कर रहे हैं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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