श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 40 श्लोक 1-12

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दशम स्कन्ध: चत्वारिंशोऽध्यायः (39) (पूर्वाध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चत्वारिंशोऽध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

अक्रूरजी बोले—प्रभो! आप प्रकृति आदि समस्त कारणों के परम कारण हैं। आप ही अविनाशी पुरुषोत्तम नारायण हैं तथा आपके ही नाभिकमल से उन ब्रम्हाजी का आविर्भाव हुआ है, जिन्होंने इस चराचर जगत् की सृष्टि की है। मैं आपके चरणों में नमस्कार करता हूँ । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार, महतत्व, प्रकृति, पुरुष, मन, इन्द्रिय, सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषय और उनके अधिष्ठातृ देवता—यही सब चराचर जगत् तथा तथा उनके व्यवहार के कारण हैं और ये सब-के-सब आपके ही अंगस्वरुप हैं । प्रकृति और प्रकृति से उत्पन्न होने वाले समस्त पदार्थ ‘इंद्रवृत्ति’ के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, इसलिये ये सब अनात्मा हैं। अनात्मा होने के कारण जड़ है और इसलिये आपका स्वरुप नहीं जान सकते। क्योंकि आप तो स्वयं आत्मा ही ठहरे। ब्रम्हाजी अवश्य ही आपके स्वरुप हैं। परन्तु वे प्रकृति के गुण रजस् से युक्त हैं, इसलिये वे भी आपकी प्रकृति का और उसके गुणों से परे का स्वरुप नहीं जानते । साधु योगी स्वयं अपने अतःकरण में स्थित ‘अन्तर्यामी’ के रूप में, समस्त भूत-भौतिक पदार्थों में व्याप्त ‘परमात्मा के’ रूप में और सूर्य, चन्द्र, अग्नि आदि देवमण्डल में स्थित ‘इष्ट-देवता’ के रूप में तथा उनके साक्षी महापुरुष एवं नियन्ता ईश्वर के रूप में साक्षात् आपकी ही उपासना करते हैं । बहुत-से कर्मकाण्डी ब्राम्हण कर्ममार्ग का उपदेश करने वाली त्रयीविद्या के द्वारा, जो आपके इन्द्र, अग्नि आदि अनेक देववाचक नाम वज्रहस्त, सप्तार्चि आदि अनेक रूप बतलाती है, बड़े-बड़े यज्ञ करते हैं और उनसे आपकी ही उपासना करते हैं । बहुत-से ज्ञानी अपने समस्त कर्मों का संन्यास कर देते हैं और शान्त-भाव में स्थित हो जाते हैं। वे इस प्रकार ज्ञानयज्ञ के द्वारा ज्ञानस्वरुप आपकी ही आराधना करते हैं । और भी बहुत-से संस्कार-सम्पन्न अथवा शुद्धचित्त वैष्णवजन आपकी बतलायी हुई पांतरात्र आदि विधियों से तन्मय होकर आपके चतुर्व्यूह आदि अनके और नारायणरूप एक स्वरुप की पूजा करते हैं । भगवन्! दूसरे लोग शिवजी के द्वारा बतलाये हुए मार्ग से, जिसके आचार्य भेद से अनेक अवान्तर भेद भी हैं, शिवस्वरुप आपकी ही पूजा करते हैं । स्वामिन्! जो लोग दूसरे देवताओं की भक्ति करते हैं और उन्हें आपसे भिन्न समझते हैं, वे सब भी वास्तव में आपकी ही आराधना करते हैं; क्योंकि आप ही समस्त देवताओं के रूप में हैं और सर्वेश्वर भी हैं । प्रभो! जैसे पर्वतों से सब ओर बहुत-सी नदियाँ निकलती हैं और वर्षा के जल से भरकर घूमती-घामती समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं, वैसे ही सभी प्रकार के उपासना-मार्ग घूम-घामकर देर-सबेर आपके ही पास पहुँच जाते हैं ।

प्रभो! आपकी प्रकृति के तीन गुण हैं—सत्व, रज और तम। ब्रम्हा से लेकर स्थानवरपर्यन्त सम्पूर्ण चराचर जीव प्राकृत हैं और जैसे वस्त्र सूत्रों से ओतप्रोत रहते हैं, वैसे ही ये सब प्रकृति के उन गुणों से ही ओतप्रोत हैं । परन्तु आप सर्वस्वरुप होने पर भी उनके हाथ लिप्त नहीं हैं। आपकी दृष्टि निर्लिप्त हैं, क्योंकि आप समस्त वृत्तियों के साक्षी हैं। यह गुणों के प्रवाह से होने वाली सृष्टि अज्ञानमूलक है और वह देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि समस्त योनियों में व्याप्त हैं; परन्तु आप उससे सर्वथा अलग हैं। इसलिये मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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