श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 79 श्लोक 1-16

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दशम स्कन्ध: एकोनाशीतितमोऽध्यायः(78) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनाशीतितमोऽध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


बल्वल का उद्धार और बलरामजी कि तीर्थयात्रा

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! पूर्व का दिन आने पर बड़ा भयंकर अंधड़ चलने लगा। धूल की वर्षा होने लगी और चारों ओर से पीब की दुर्गन्ध आने लगी । इसके बाद यज्ञशाला में बल्वल दानव ने मल-मूत्र आदि अपवित्र वस्तुओं की वर्षा की। तदनन्तर हाथ में त्रिशूल लिये वह स्वयं दिखायी पड़ा । उस का डील-डौल बहुत बड़ा था, ऐसा जान पड़ता मानो ढेर-का-ढेर कालिख इकठ्ठा कर दिया गया हो। उसकी चोटी और दाढ़ी-मूँछ तपे हुए ताँबे के समान लाल-लाल थीं। बड़ी-बड़ी दाढ़ों और भौंहों के कारण उसका मुँह बड़ा भयावना लगता था। उसे देखकर भगवान् बलरामजी ने शत्रु सेना की कुंदी करने वाले मूसल और दैत्यों को चीर-फाड़ डालने वाले हल का स्मरण किया। उनके स्मरण करते ही वे दोनों शस्त्र तुरंत वहाँ आ पहुँचे ।

बलरामजी ने आकाश में विचरने वाले बल्वल दैत्य को अपने हल के अगले भाग से खींचकर उस ब्रम्हद्रोही के सिर पर बड़े क्रोध से एक मूसल कसकर जमाया, जिससे उसका ललाट फट गया और वह खून उगलता तथा आर्तस्वर से चिल्लाता हुआ धरती पर गिर पड़ा, ठीक वैसे ही जैसे वज्र की चोट खाकर गेरू आदि लाल हुआ कोई पहाड़ गिर पड़ा हो ।

नैमिषारण्यवासी महाभाग्यवान् मुनियों ने बलरामजी की स्तुति की, उन्हें कभी न व्यर्थ होने वाले आशीर्वाद दिये और जैसे देवता लोग देवराज इन्द्र का अभिषेक करते हैं, वैसे ही उनका अभिषेक किया । इसके बाद ऋषियों ने बलरामजी को दिव्य वस्त्र और दिव्य आभूषण दिये तथा एक ऐसी वैजन्ती की माला भी दी, जो सौन्दर्य का आश्रय एवं कभी ने मुरझाने वाले कमल के पुष्पों से युक्त थी ।

तदनन्तर नैमिषारण्यवासी ऋषियों से विदा होकर उनके आज्ञानुसार बलरामजी ब्राम्हणों के साथ कौशिकी नदी के तट पर आये। वहाँ स्नान करके वे उस सरोवर पर गये, जहाँ से सरयू नदी निकलती है । वहाँ से सरयू के किनारे-किनारे चलने लगे, फिर उसे छोड़कर प्रयाग आये; वहाँ स्नान तथा देवता, ऋषि येवान्न पितरों का तर्पण करके वहाँ से पुलहाश्रम गये । वहाँ से गण्डकी, गोमती टाटा विपाशा नदियों में स्नान किया। इसके बाद गया में जाकर पितरों का वसुदेवजी के आज्ञानुसार पूजन-यजन किया। फिर गंगासागर-संगम पर गये; वहाँ भी स्नान आदि तीर्थ-कृत्यों से निवृत्त होकर महेन्द्र पर्वत पर गये। वहाँ परशुरामजी का दर्शन और अभिवादन किया। तदनन्तर सप्तगोदावरी, वेणा, पम्पा और भीमरथी आदि में स्नान करते हुए स्वामिकार्तिक का दर्शन करने गये तथा वहाँ से महादेवजी के निवास स्थान श्रीशैल पर पहुँचे। इसके बाद भगवान् बलराम ने द्रविड़ देश के परम पुण्यमय स्थान वेंकटाचल (बालाजी) का दर्शन किया और वहाँ से वे कामाक्षी—शिवकांची, विष्णुकांची होते हुए तथा श्रेष्ठ नदी कावेरी में स्नान करते हुए पुण्यमय श्रीरंग क्षेत्र में पहुँचे। श्रीरंग क्षेत्र में भगवान् विष्णु सदा विराजमान रहते हैं । वहाँ से उन्होंने विष्णु भगवान् के क्षेत्र ऋषभ पर्वत, दक्षिण मथुरा तथा बड़े-बड़े महापापों को नष्ट करने वाले सेतुबन्ध की यात्रा की । वहाँ बलरामजी ने ब्राम्हणों को दस हजार गौएँ दान कीं। फिर वहाँ से कृतमाला और ताम्रपणीं नदियों में स्नान करते हुए वे मलयपर्वत पर गये। वह पर्वत सात कुलपर्वतों में से एक है ।






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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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