श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 86 श्लोक 41-51

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दशम स्कन्ध: षडशीतितमोऽध्यायः(86) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षडशीतितमोऽध्यायः श्लोक 41-51 का हिन्दी अनुवाद


तदनन्तर उन्होंने फल, गन्ध, खस से सुवासित निर्मल एवं मधुर जल, सुगन्धित मिट्टी, तुलसी, कुश, कमल आदि अनायास-प्राप्त पूजा-सामग्री और सत्वगुण बढ़ाने वाले अन्न से सबकी आराधना की ।उस समय श्रुतदेव जी मन-ही-मन तर्कना करने लगे कि ‘मैं तो घर-गृहस्थी के अँधेरे कूएँ में गिरा हुआ हूँ, अभागा हूँ; मुझे भगवान् श्रीकृष्ण और उनके निवासस्थान ऋषि-मुनियों का,, जिनके चरणों की धूल ही समस्त तीर्थों को तीर्थ बनाने वाली हैं, समागम कैसे प्राप्त हो गया ?’ । जब सब लोग आतिथ्य स्वीकार करके आराम से बैठ गये, तब श्रुतदेव अपने स्त्री-पुत्र तथा अन्य सम्बन्धियों के साथ उनकी सेवा में उपस्थित हुए। वे भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों का स्पर्श करते हुए कहने लगे । श्रुतदेव ने कहा—प्रभो! आप व्यक्त-अव्यक्त रूप प्रकृति और जीवों से परे पुरुषोत्तम हैं। मुझे आपने आज ही दर्शन दिया हो, ऐसी बात नहीं है। आप तो तभी से सब लोगों से मिले हुए हैं, जब से आपने अपनी शक्तियों के द्वारा इस जगत् की रचना करके आत्मसत्ता के रूप में इसमें प्रवेश किया है। जैसे सोया हुआ पुरुष स्वप्नावस्था में विद्यानाश मन-ही-मन स्वपन जगत् की सृष्टि कर लेता है और उसमें स्वयं उपस्थित होकर अनेक रूपों में अनेक कर्म करता हुआ प्रतीत होता है, वैसे ही आपने अपने में ही अपनी माया से जगत् की रचना कर ली है और अब इसमें प्रवेश करके अनेकों रूपों से प्रकाशित हो रहे हैं । जो लोग सर्वदा आपकी लीला कथा का श्रवण-कीर्तन तथा आपकी प्रतिमाओं का अर्चन-वन्दन करते हैं और आपस में आपकी ही चर्चा करते हैं, उनका ह्रृदय शुद्ध हो जाता है और आप उसमें प्रकाशित हो जाते हैं । जिन लोगों का चित्त लौकिक-वैदिक आदि कर्मों की वासना से बहिर्मुख हो रहा है, उनके ह्रदय में रहने पर भी आप उनसे बहुत दूर हैं। किन्तु जिन लोगों ने आपके गुणगान से अपने अन्तःकरण को सद्गुणसम्पन्न बना दिया है, उनके लिये चित्तवृत्तियों से अग्राह्य होने पर भी आप अत्यन्त निकट हैं । प्रभो! जो लोग आत्मतत्व को जानने वाले हैं, उनके आत्मा के रूप में ही आप स्थित हैं और जो शरीर आदि को ही अपना आत्मा मान बैठे हैं, उनके लिये आप अनात्मा को प्राप्त होने वाली मृत्यु के रूप में हैं। आप महतत्व आदि कार्यद्रव्य और प्रकृति रूप कारण के नियामक हैं—शासक हैं। आपकी माया आपकी अपनी दृष्टि पर पर्दा नहीं डाल सकती, किन्तु उसने दूसरों की दृष्टि को ढक रखा है। आपको मैं नमस्कार करता हूँ । स्वयंप्रकाश प्रभो! हम आपके सेवक हैं। हमें आज्ञा दीजिये की हम आपकी क्या सेवा करें ? नेत्रों के द्वारा आपका दर्शन करने होने तक ही जीवों के क्लेश रहते हैं। आपके दर्शन में ही समस्त क्लेशों की परिसमाप्ति है । श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! शरणागत-भयहारी भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रुतदेव की प्रार्थना सुनकर अपने हाथ उनका हाथ पकड़ लिया और मुसकराते हुए कहा । भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा—प्रिय श्रुतदेव! ये बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तुम पर अनुग्रह करने के लिये ही यहाँ पधारे हैं। ये अपने चरणकमलों की धूल से लोगों और लोकों को पवित्र करते हुए मेरे साथ विचरण कर रहे हैं ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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