श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 90 श्लोक 47-50

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दशम स्कन्ध: नवतितमोऽध्यायः(90) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: ननवतितमोऽध्यायः श्लोक 47-50 का हिन्दी अनुवाद


परीक्षित्! भगवान् का चरणधोवन गंगाजी अवश्य ही समस्त तीर्थों में महान् एवं पवित्र हैं। परन्तु स्वयं परमतीर्थ स्वरुप भगवान् ने ही यदुवंश में अवतार ग्रहण किया, तब तो गंगाजल की महिमा अपने-आप ही उनके सुयशतीर्थ की अपेक्षा कम हो गयी। भगवान् के स्वरुप की यह कितनी बड़ी महिमा है कि उनसे प्रेम करने वाले भक्त और द्वेष करने वाले शत्रु दोनों ही उनके स्वरुप को प्राप्त हुए। जिस लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिये बड़े-बड़े देवता यत्न करते रहते हैं, वे ही भगवान् की सेवा में नित्य-निरन्तर लगी रहती हैं। भगवान् का नाम एक बार सुनने अथवा उच्चारण करने से ही सारे अमंगलों को नष्ट कर देता है। ऋषियों के वंशजों में जितने भी धर्म प्रचिलित हैं, सबके संस्थापक भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं। वे अपने हाथ में काल-स्वरुप चक्र लिये रहते हैं। परीक्षित्! ऐसी स्थिति में पृथ्वी का भार उतार देते हैं, यह कौन बड़ी बात है । भगवान् श्रीकृष्ण ही समस्त जीवों के आश्रयस्थान हैं। यद्यपि वे सदा-सर्वदा सर्वत्र उपस्थित ही रहते हैं, फिर भी कहने के लिये उन्होंने देवकीजी के गर्भ से जन्म लिया है। यदुवंशी वीर पार्षदों के रूप में उनकी सेवा करते रहते हैं। उन्होंने अपने भुजबल से अधर्म का अन्त कर दिया है। परीक्षित्! भगवान् स्वभाव से ही चराचर जगत् का दुःख मिटाते रहते हैं। उनका मन्द-मन्द मुसकान से युक्त सुन्दर मुखारविन्द व्रजस्त्रियों और पुरस्त्रियों के ह्रदय में प्रेम—भाव का संचार करता रहता है। वास्तव में सारे जगत् पर वही विजयी हैं। उन्हीं की जय हो! जय ! ! परीक्षित्! प्रकृति से अतीत परमात्मा ने अपने द्वारा स्थापित धर्म-मर्यादा की रक्षा के लिये दिव्य लीला-शरीर ग्रहण किया और उनके अनुरूप अनेकों अद्भुत चरित्रों का अभिनय किया। उनका एक-एक कर्म स्मरण करने वालों के कर्मबन्धनों को काट डालने वाला है। जो यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों की सेवा का अधिकार प्राप्त करना चाहे, उसे उनकी लीलाओं का ही श्रवण करना चाहिये । परीक्षित्! जब मनुष्य प्रतिक्षण भगवान् श्रीकृष्ण की मनोहारिणी लीला-कथाओं का अधिकाधिक श्रवण, कीर्तन और चिन्तन करने लगता है, तब उसकी यदि भक्ति उसे भगवान् के परमधाम में पहुँचा देती है। यद्यपि काल की गति के परे पहुँच जाना बहुत ही कठिन है परन्तु भगवान् के धाम में काल की दाल नहीं गलती। वह वहाँ तक पहुँच ही नहीं पाता। उसी धाम की प्राप्ति के लिये अनेक सम्राटों ने अपना राजपाट छोड़कर तपस्या करने के उद्देश्य से जगल की यात्रा की है। इसलिए मनुष्य को उनकी लीला-कथा का ही श्रवण करना चाहिये ।





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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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