श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 13 श्लोक 12-24

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एकादश स्कन्ध: त्रयोदशोऽध्यायः (13)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रयोदशोऽध्यायः श्लोक 12-24 का हिन्दी अनुवाद

यद्यपि विवेकी पुरुष का चित्त भी कभी-कभी रजोगुण और तमोगुण के वेग से विक्षिप्त होता है, तथापि उसकी विषयों में दोष दृष्टि बनी रहती है; इसलिये वह बड़ी सावधानी से अपने चित्त को एकाग्र करने की चेष्टा करता रहता है, जिससे उसकी विषयों में आसक्ति नहीं होती । साधक को चाहिये कि आसन पर प्राण वायु पर विजय प्राप्त कर अपनी शक्ति और समय के अनुसार बड़ी सावधानी से धीरे-धीरे मुझमें अपना मन लगावे और इस प्रकार अभ्यास करते समय अपनी असफलता देखकर तनिक भी ऊबे नहीं, बल्कि और भी उत्साह से उसी में जुड़ जाय । प्रिय उद्धव! मेरे शिष्य सनकादि परमर्षियों ने योग का यही स्वरुप बताया है कि साधक अपने मन को सब ओर से खींचकर विराट् आदि में नहीं, साक्षात् मुझमें ही पूर्णरूप से लगा दे । उद्धवजी ने कहा—श्रीकृष्ण! आपने जिस समय जिस रूप से, सनकादि परमर्षियों को योग का आदेश दिया था, उस रूप को मैं जानना चाहता हूँ । भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा—प्रिय उद्धव! सनकादि परमर्षि ब्रम्हाजी के मानस पुत्र हैं। उन्होंने एक बार अपने पिता से योग की सूक्ष्म अन्तिम सीमा के सम्बन्ध में इस प्रकार प्रश्न किया था । सनकादि पर्मार्षियों ने पूछा—पिताजी! चित्त गुणों अर्थात् विषयों में घुसा ही रहता है और गुण भी चित्त की एक-एक वृत्ति में प्रविष्ट रहते ही हैं। अर्थात् चित्त और गुण आपस में मिले-जुले ही रहते हैं। ऐसी स्थिति में जो पुरुष इस संसार सागर से पार होकर मुक्तिपद प्राप्त करना चाहता है, वह इन दोनों को एक-दूसरे से अलग कैसे कर सकता है ? भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव! यद्यपि ब्रम्हाजी सब देवताओं के शिरोमणि, स्वयम्भू और प्राणियों के जन्मदाता हैं। फिर भी सनकादि पर्मार्षियों के इस प्रकार पूछने पर ध्यान करके भी वे इस प्रश्न का मूल कारण न समझ सके; क्योंकि उनकी बुद्धि कर्मप्रवण थी । उद्धव! उस समय ब्रम्हाजी ने इस प्रश्न का उत्तर देने के लिये भक्ति भाव से मेरा चिन्तन किया। तब मैं हंस का रूप धारण करके उनके सामने प्रकट हुआ । मुझे देखकर सनकादि ब्रम्हाजी को आगे करके मेरे पास आये और उन्होंने मेरे चरणों की वन्दना करके मुझसे पूछा कि ‘आप कौन हैं ?’। प्रिय उद्धव! सनकादि परमार्थ तत्व के जिज्ञासु थे; इसलिये उनके पूछने पर उस समय मैंने जो कुछ कहा वह तुम मुझसे सुनो— ‘ब्राम्हणों! यदि परमार्थ रूप वस्तु नानात्व से सर्वथा रहित है, तब आत्मा सम्बन्ध में आप लोगों का ऐसा प्रश्न कैसे युक्ति संगत हो सकता है ? अथवा मैं यदि उत्तर देने के लिये बोलूँ भी तो किस जाति, गुण, क्रिया और सम्बन्ध आदि का आश्रय लेकर उत्तर दूँ । देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सभी शरीर पंच-भूतात्मक होने के कारण अभिन्न ही हैं और परमार्थ-रूप से भी अभिन्न हैं। ऐसी स्थिति में ‘आप कौन हैं ?’ आप लोगों का यह प्रश्न ही केवल वाणी का व्यवहार है। विचार पूर्वक नहीं है, अतः निरर्थक है । मन से, वाणी से, दृष्टि से तथा अन्य इन्द्रियों से भी जो कुछ ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूँ, उझ्से भिन्न और कुछ नहीं है। यह सिद्धान्त आप लोग तत्व-विचार के द्वारा समझ लीजिये ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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