महाभारत वन पर्व अध्याय 2 श्लोक 54-69

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १३:०८, १० जुलाई २०१५ का अवतरण
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

द्वितीय (2) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 54-69 का हिन्दी अनुवाद


आसन के लिए तृण (कुश) बैठने के लिए स्थान, जल और चौथी मधुर वाणी सत्पुरुषों के घर में इन चार वस्तुओं का अभाव कभी नहीं होता। रोग आदि से पीड़ित मनुष्य का सोने के लिये शय्या, थके माँदे हुए को बैठने के लिए आसन ,प्यासे को पानी और भूखे को भोजन तो देना ही चाहिये।जो अपने घर पर आ जाये उसे प्रेमभरी दृष्टि से देखें, मन से उसके प्रति उत्तम भाव रखें, उससे मीठे वचन बोलें और उठ के उसके लिए आसन दें। यह गृहस्थ का सनातन धर्म है। अतिथि को आते देख उठ कर उसकी अगवानी और यथोचित रीति से उसका आदर सत्कार करें।
यदि गृहस्थ मनुष्य अग्निहो़त्र, जाति-भाई अतिथि ,अभ्यासगत बन्धु-बान्धव, स्त्री-पुत्र तथा मृत्युजनों का आदर-सत्कार करे तो व अपनी क्रोधाग्नि से उसे जला सकते हैं। केवल अपने लिए अन्न न पकावें (देवता-पितरों एवं अतिथियों के उद्देश्य से ही भोजन बनाने का विधान है) निकम्मे पशुओं पर हानि न करें और जिस वस्तु को विधिपूर्वक देवता आदि के लिये अर्पित न करें उसे स्वयं भी न खायें। कुत्तों, चाण्डालों और कौवों के लिए पृथ्वी पर अन्न डाल दें। यह वैश्वदेव नामक महान यज्ञ है जिसका अनुष्ठान प्रातःकाल और सायंकाल में भी किया जाता है। अतः गृहस्थ मनुष्य प्रतिदिन विघस एवं अमृत भोजन करे। घर के सब लोगों के भोजन कर लेने पर जो अन्न शेष रह जाये उसे विघस कहते है तथा कलिवैश्देव से बचे हुए देव का नाम अमृत है। अतिथि को नेत्र दें (उसे प्रेमभरी दृष्टि से देखें) मन दें (मन से हित-चिन्तन करें ) तथा मधुर वाणी प्रदान करें (सत्यप्रिय हित ही बात कहें)। जब वह जाने लगे तब कुछ दूर तक उसके पीछे-पीछे जायें और वह जब तक घर पर रहे, तब तक उसके पास बैठें (उसकी सेवा में लगे रहें )। यह पाँच प्रकार की दक्षिाणाओं से युक्त अतिथि यज्ञ है, जो गुहस्थ अपरिचित थके-माँदे पथिक को प्रसन्नतापूर्वक भोजन देता है उसे महान पुण्यफल की प्राप्ति हेती है। ब्रह्मन जो गृहस्थ इस वृत्ति से रहता है, उसके लिये उत्तम धर्म की प्राप्ति बतायी गयी है,अथवा इस विषय में आपकी क्या सम्मती है ।

शौनकजी ने कहा- अहो ! बहुत दुःख की बात है, इस जगत में विपरीत बातें दिखायी देती हैं। साधु पुरुष जिस कर्म से लज्जित होते हैं, दुष्ट मनुष्यों को उसी से प्रसन्नता प्राप्त होती है। अज्ञानी मनुष्य अपनी ज्ञाननेंन्द्रियों तथा उदर की तृप्ति के लिए मोह एवं राग के वशीभूत हो अनुसरण करता हुआ नाना प्रकार की विषय-सामग्री को यज्ञावशेष मानकर उनका संग्रह करता है। समझदार मनुष्य भी मन को हर लेने वाली इन्द्रियों द्वारा विषयों की ओर खींच लिया जाता है। उस समय उसकी विचारशक्ति मोहित हो जाती है। जैसे दुष्ट घोड़े वश में न हाने पर सारथी को कुमार्ग में घसीट ले जाते हैं यही दशा उस अजितेन्द्रिय पुरुष की भी होती है। जब मन और पाँचों इन्द्रियाँ अपने विषयों में प्रवृत्त होती हैं उस समय प्राणियों के पूर्व संकल्प के अनुसार उसी की वासना से वासित मन विचलित हो उठता है। मन जिस इन्द्रिय के विषयों का सेवन करने जाता है, उसी में उस विषय के प्रति उत्सुकता भर जाती है और वह इन्द्रिय उस विषय के उपभोग में प्रवृत्त हो जाती है। तदनन्तर संकल्प ही जिसका बीज है उस काम के द्वारा विषयरूपी बाणों से बंधकर मनुष्य ज्योति के लोभ से पतंग की भाँति लाभ की आग में गिर पड़ता हैं।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख