श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 60 श्लोक 12-24

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दशम स्कन्ध: षष्टितमोऽध्यायः (60) (उत्तरार्धः)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षष्टितमोऽध्यायः श्लोक 12-24 का हिन्दी अनुवाद

सुन्दरी! देखो, हम जरासन्ध आदि राजाओं से डरकर समुद्र की शरण में आ बसे हैं। बड़े-बड़े बलवानों से हमने वैर बाँध रखा है और प्रायः राजसिंहासन के अधिकार से भी वंचित ही हैं । सुन्दर! हम किस मार्ग के अनुयायी हैं, हमारा कौन-सा मार्ग है, यह भी लोगों को अच्छी तरह मालूम नहीं है। हम लोग लौकिक व्यवहार का भी ठीक-ठाक पालन नहीं करते, अनुनय-विनय के द्वारा स्त्रियों को रिझाते भी नहीं। जो स्त्रियाँ हमारे-जैसे पुरुषों का अनुसरण करती हैं, उन्हें प्रायः क्लेश-ही-क्लेश भोगना पड़ता है । सुन्दरी! हम तो सदा के अकिंचन हैं। न तो हमारे पास कभी कुछ था और न रहेगा। ऐसे ही अकिंचन लोगों से हम प्रेम भी करते हैं और वे लोग भी हमसे प्रेम करते हैं। यही कारण है कि अपने को धनी समझने वाले लोग प्रायः हमसे प्रेम नहीं करते, हमारी सेवा नहीं करते । जिनका धन, कुल, ऐश्वर्य, सौन्दर्य और आय अपने समान होती है—उन्हीं से विवाह और मित्रता का सम्बन्ध करना चाहिये। जो अपने से श्रेष्ठ या अधम हों, उनसे नहीं करना चाहिये । विदर्भराजकुमारी! तुमने अपनी अदूरदर्शिता के कारण इन बातों का विचार नहीं किया और बिना जाने-बूझे भिक्षुकों से मेरी झूठ प्रशंसा सुनकर मुझ गुणहीन को वरण कर लिया । अब भी कुछ बिगड़ा नहीं है। तुम अपने अनुरूप किसी श्रेष्ठ क्षत्रिय को वरण कर लो। जिसके द्वारा तुम्हारी इहलोक और परलोक की सारी आशा-अभिलाषाएँ पूरी हो सकें । सुन्दरी! तुम जानती ही हो कि शिशुपाल, शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्त्र आदि नरपति और तुम्हारा बड़ा भाई रुक्मी—सभी मुझसे द्वेष करते थे । कल्याणी! वे सब बल-पौरुष के मद से अंधे हो रहे थे, अपने सामने किसी को कुछ नहीं गिनते थे। उन दुष्टों का मान मर्दन करने के लिए ही मैंने तुम्हारा हरण किया था और कोई कारण नहीं था । निश्चय ही हम उदासीन हैं। हम स्त्री, सन्तान और धन के लोलुप नहीं हैं। निष्क्रिय और देह-गेह से सम्बन्धरहित दीपशिखा के समान साक्षीमात्र हैं। हम अपने आत्मा के साक्षात्कार से ही पूर्णकाम हैं, कृतकृत्य हैं ।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण के क्षणभर के लिये अलग न होने कारण रुक्मिणीजी को यह अभिमान हो गया था कि मैं इनकी सबसे अधिक प्यारी हूँ। इसी गर्व की शान्ति के लिये इतना कहकर भगवान् चुप हो गये । परीक्षित्! जब रुक्मिणीजी ने अपने परम प्रियतम पति त्रिलोकेश्वर भगवान् की यह अप्रिय वाणी सुनी—जो पहले कभी नहीं सुनी थी, तब वे अत्यन्त भयभीत हो गयीं; उनका ह्रदय धड़कने लगा, वे रोते-रोते चिन्ता के अगाध समुद्र में डूबने-उतराने लगीं ॥ २२ ॥ वे अपने कमल के समान कोमल और नखों की लालिमा से कुछ-कुछ लाल प्रतीत होने वाले चरणों से धरती कुरेदने लगीं। अंजन से मिले हुए काले-काले आँसू केशर से रँगे हुए वक्षःस्थल को धोने लगे। मुँह नीचे को लटक गया। अत्यन्त दुःख के कारण उनकी वाणी रुक गयी और वे ठिठकी-सी रह गयीं । अत्यन्त व्यथा, भय और शोक के कारण विचारशक्ति लुप्त हो गयी, वियोग की सम्भावना से वे तक्षण इतनी दुबली हो गयीं कि उनकी कलाई का कंगन तक खिसक गया। हाथ का चँवर गिर पड़ा, बुद्धि की विकलता के कारण वे एकाएक अचेत हो गयीं, केश बिखर गये और वे वायुवेग से उखड़े हुए केले के खंभे की तरह धरती पर गिर पड़ी ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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