श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 60 श्लोक 25-35

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०६:२२, ११ जुलाई २०१५ का अवतरण ('== दशम स्कन्ध: षष्टितमोऽध्यायः (60) (उत्तरार्धः)== <div style="text-...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

दशम स्कन्ध: षष्टितमोऽध्यायः (60) (उत्तरार्धः)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षष्टितमोऽध्यायः श्लोक 25-35 का हिन्दी अनुवाद

भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरी प्रेयसी रुक्मिणीजी हास्य-विनोद की गम्भीरता नहीं समझ रही हैं और प्रेम-पाश की दृढ़ता के कारण उनकी यह दशा हो रही है। स्वभाव से ही परम कारुणिक भगवान् श्रीकृष्ण का ह्रदय उनके प्रति करुणा से भर गया । चार भुजाओं वाले वे भगवान् उसी समय पलँग से उतर पड़े और रुक्मिणीजी को उठा लिया तथा उनके खुले हुए केशपाशों को बाँधकर अपने शीतल करकमलों से उनका मुँह पोंछ दिया । भगवान् ने उनके नेत्रों के आँसू और शोक के आँसूओं से भीगे हुए स्तनों को पोंछकर अपने प्रति अनन्य प्रेमभाव रखने वाली उन सती रुक्मिणीजी को बाँहों में भरकर छाती से लगा लिया । भगवान् श्रीकृष्ण समझाने-बुझाने में बड़े कुशल और अपने प्रेमी भक्तों के एकमात्र आश्रय हैं। जब उन्होंने देखा कि हास्य की गम्भीरता के कारण रुक्मिणीजी की बुद्धि चक्कर में पड़ गयी और वे अत्यन्त दीन हो रही हैं, तब उन्होंने इस अवस्था के अयोग्य अपनी प्रेयसी रुक्मिणीजी को समझाया ।

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा—विदर्भनन्दिनी! तुम मुझसे बुरा मत मानना। मुझसे रूठना नहीं। मैं जानता हूँ कि तुम एकमात्र मेरे ही परायण हो। मेरी प्रिय सहचरी! तुम्हारी प्रेमभरी बात सुनने के लिये ही मैंने हँसी-हँसी में यह छलना की थी । मैं देखना चाहता था कि मेरे यों कहने पर तुम्हारे लाल-लाल होठ प्रणय-कोप से किस प्रकार फड़कने लगते हैं। तुम्हारे कटाक्षपूर्वक देखने से नेत्रों में कैसी लाली छा जाती है और भौंहें चढ़ जाने के कारण तुम्हारा मुँह कैसा सुन्दर लगता है । मेरी परमप्रिये! सुन्दरी! घर के काम-धंधों में रात-दिन लगे रहने वाले गृहस्थों के लिये घर-गृहस्थी में इतना ही तो परम लाभ है कि अपनी प्रिय अर्द्धांगिनी के साथ हास-परिहास करते हुए कुछ घड़ियाँ सुख से बिता ली जाती हैं ।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन्! यह भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी प्राणप्रिया को इस प्रकार समझाया-बुझाया, तब उन्हें इस बात का विश्वास हो गया कि मेरे प्रियतम ने केवल परिहास में ही ऐसा कहा था। अब उनके ह्रदय से यह भय जाता रहा कि प्यारे हमें छोड़ देंगे । परीक्षित्! अब वे सलज्ज हास्य और प्रेमपूर्ण मधुर चितवन से पुरुषभूषण भगवान् श्रीकृष्ण का मुखारविन्द निखरती निरखती हुई उनसे कहने लगीं—

रुक्मिणीजी ने कहा—कमलनयन! आपका यह कहना ठीक है कि ऐश्वर्य आदि समस्त गुणों से युक्त, अनन्त भगवान् के अनुरूप मैं नहीं हूँ। आपकी समानता मैं किसी प्रकार नहीं कर सकती। कहाँ तो अपनी अखण्ड महिमा से स्थित, तीनों गुणों के स्वामी तथा ब्रम्हा आदि देवताओं से सेवित आप भगवान्; और कहाँ तीनों गुणों के अनुसार स्वभाव रखने वाली गुणमयी प्रकृति मैं, जिसकी सेवा कामनाओं के पीछे भटकने वाले अज्ञानी लोग ही करते हैं । भला मैं आपके समान कब हो सकती हूँ। स्वामिन्! आपका यह कहना भी ठीक ही है कि आप राजाओं के भय से समुद्र में आ छिपे हैं। परन्तु राजा शब्द का अर्थ पृथ्वी के राजा नहीं, तीनों गुणरूप राजा हैं। मानो आप उन्हीं के भय से अन्तःकरणरूप समुद्र में चैतन्यघन अनुभूतिस्वरुप आत्मा के रूप में विराजमान रहते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि आप राजाओं से वैर रखते हैं, परन्तु वे राजा कौन हैं ? यही अपनी दुष्ट इन्द्रियाँ। इनसे तो आपका वैर है ही। और प्रभो! आप राजसिंहासन से रहित हैं, यह भी ठीक ही है; क्योंकि आपके चरणों की सेवा करने वालों ने भी राजा के पद को घोर अज्ञानअन्धकार समझकर दूर से ही दुत्कार रखा है। फिर आपके लिये तो कहना ही क्या है ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-