श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 66 श्लोक 15-29
दशम स्कन्ध:षट्षष्टितमोऽध्यायः (66) (उत्तरार्धः)
उसका यह सारा-का-सारा वेष बनावटी था, मानो कोई अभिनेता रंगमंच पर अभिनय करने के लिये आया हो। उसकी वेष-भूषा अपने समान देखकर भगवान् श्रीकृष्ण खिलखिलाकर हँसने लगे । अब शत्रुओं ने भगवान् श्रीकृष्ण पर त्रिशूल, गदा, मुद्गर, शक्ति, ऋष्टि, प्रास, तोमर, तलवार, पट्टिश और बाण आदि अस्त्र-शस्त्रों से प्रहार किया । प्रलय के समय जिस प्रकार आग सभी प्रकार के प्राणियों को जला देती है, वैसे ही भगवान् श्रीकृष्ण ने भी गदा, तलवार, चक्र और बाण आदि शस्त्रास्त्रों से पौण्ड्रक तथा काशिराज के हाथी, रथ, घोड़े और पैदल की चतुरंगिणी सेना को तहस-नहस कर दिया । वह रणभूमि भगवान् के चक्र से खण्ड-खण्ड हुए रथ, घोड़े, हाथी, मनुष्य, गधे और ऊँटों से पट गयी। उस समय ऐसा मालूम हो रहा था, मानो वह भूतनाथ शंकर की भयंकर क्रीडास्थली हो। उसे देख-देखकर शूरवीरों का उत्साह और भी बढ़ रहा था ।
अब भगवान् श्रीकृष्ण ने पौण्ड्रक से कहा—‘रे पौण्ड्रक! तूने दूत के द्वारा कहलाया था कि मेरे चिन्ह अस्त्र-शास्त्रादि छोड़ दो। सो अब मैं उन्हें तुझ पर छोड़ रहा हूँ । तूने झूठ-मुठ मेरा नाम रख लिया है। अतः मूर्ख! अब मैं तुझसे उन नामों को भी छुड़ाकर रहूँगा। रही तेरे शरण में आने की बात; सो यदि मैं तुझसे युद्ध न कर सकूँगा तो तेरी शरण ग्रहण करूँगा’। भगवान् श्रीकृष्ण ने इस प्रकार पौण्ड्रक का तिरस्कार करके अपने तीखे बाणों से उसके रथ को तोड़-फोड़ डाला और चक्र से उसका सिर वैसे ही उतार लिया, जैसे इन्द्र ने अपने वज्र से पहाड़ की चोटियों को उड़ा दिया था । इसी प्रकार भगवान् ने अपने बाणों से काशिनरेश का सिर भी धड़ से ऊपर उड़ाकर काशीपुरी में गिरा दिया, जैसे वायु कमल का पुष्प गिरा देती है । इस प्रकार अपने साथ डाह रखने वाले पौण्ड्रक को और उसके सखा काशिनरेश को मारकर भगवान् श्रीकृष्ण अपनी राजधानी द्वारका में लौट आये। यह समय सिद्धगण भगवान् की अमृतमयी कथा का गान कर रहे थे । परीक्षित्! पौण्ड्रक भगवान् के रूप का, चाहे वह किसी भाव से हो, सदा चिन्तन करता रहता था। इससे उसके सारे बन्धन कट गये। वह भगवान् का बनावटी वेष धारण किये रहता था, इससे बार-बार उसी का स्मरण होने के कारण वह भगवान् के सारुप्य को ही प्राप्त हुआ ।
इधर काशी में राजमहल के दरवाजे पर एक कुण्डल-मण्डित मुण्ड गिरा देखकर लोग तरह-तरह का सन्देह करने लगे और सोचने लगे कि ‘यह क्या है, यह किसका सिर है ?’।
जब यह मालूम हुआ कि वह तो काशिनरेश का ही सिर है, तब रानियाँ, राजकुमार, राजपरिवार के लोग तथा नागरिक रो-रोकर विलाप करने लगे—‘हा नाथ! हा राजन्! हाय-हाय! हमारा तो सर्वनाश हो गया’। काशिनरेश का पुत्र था सुदक्षिण। उसने अपने पिता का अन्त्योष्टि-संस्कार करके मन-ही-मन यह निश्चय किया कि अपने पितृघाती को मारकर ही मैं पिता के ऋण से उऋण हो सकूँगा। निदान वह अपने कुलपुरोहित और आचार्यों के साथ अत्यन्त एकाग्रता से भगवान् शंकर की आराधना करने लगा । काशी नगरी में उसकी उसकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान् शंकर ने वर देने को कहा। सुदक्षिण ने यह अभीष्ट वर माँगा कि मुझे मेरे पितृघाती के वध का उपाय बतलाइये ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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