श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 68 श्लोक 16-28

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दशम स्कन्ध: अष्टषष्टितमोऽध्यायः (68) (उत्तरार्धः)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टषष्टितमोऽध्यायः श्लोक 16-28 का हिन्दी अनुवाद

हस्तिनापुर पहुँचकर बलरामजी नगर के बाहर एक उपवन में ठहर गये और कौरव लोग क्या करना चाहते हैं, इस बात का पता लगाने के लिये उन्होंने उद्धवजी को धृतराष्ट्र के पास भेजा ।

उद्धवजी ने कौरवों की सभा में जाकर धृतराष्ट्र, भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, बाह्लीक और दुर्योधन की विधिपूर्वक अभ्यर्थना-वन्दना की और निवेदन किया कि ‘बलरामजी पधारे हैं’ । अपने परम हितैषी और प्रियतम बलरामजी का आगमन सुनकर कौरवों की प्रसन्नता की सीमा न रही। वे उद्धवजी का विधिपूर्वक सत्कार करके अपने हाथों में मांगलिक सामग्री लेकर बलरामजी की अगवानी करने चले । फिर अपनी-अपनी अवस्था और सम्बन्ध के अनुसार सब लोग बलरामजी से मिले तथा उनके सत्कार के लिये उन्हें गौ अर्पण की एवं अर्घ्य प्रदान किया। उनमें जो लोग भगवान् बलरामजी का प्रभाव जानते थे, उन्होंने सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया । तदनन्तर उन लोगों ने परस्पर एक-दूसरे का कुशल-मंगल पूछा और यह सुनकर कि सब भाई-बन्धु सकुशल हैं, बलरामजी ने बड़ी धीरता और गम्भीरता के साथ यह बात कही—

‘सर्वसमर्थ राजाधिराज महाराज उग्रसेन ने तुम लोगों को एक आज्ञा दी है। उसे तुम लोग एकाग्रता और सावधानी से सुनो और अविलम्ब उसका पालन करो । उग्रसेनजी ने कहा है—हम जानते हैं कि तुम लोगों ने कईयों ने मिलकर अधर्म से अकेले धर्मात्मा साम्ब को हरा दिया और बंदी कर लिया है। यह सब हम इसलिये सह लेते हैं कि हम सम्बन्धियों में परस्पर फूट न पड़े, एकता बनी रहे। (अतः अब झगड़ा मत बढ़ाओ, साम्ब को उसकी नववधु के साथ हमारे पास भेज दो) ।

परीक्षित्! बलरामजी की वाणी वीरता, शूरता और बल-पौरुष के उत्कर्ष से परिपूर्ण और उनकी शक्ति के अनुरूप थी। यह बात सुनकर कुरुवंशी क्रोध से तिल-मिला उठे। वे कहने लगे— ‘अहो, यह तो बड़े आश्चर्य की बात है! सचमुच काल की चाल को कोई टाल नहीं सकता। तभी जो आज पैरों की जूती उस सिर पर चढ़ना चाहती है, जो श्रेष्ठ मुकुट से सुशोभित है । इन यदुवंशियों के साथ किसी प्रकार हम लोगों ने विवाह-सम्बन्ध कर लिया। ये हमारे साथ सोने-बैठने और एक पंक्ति में खाने लगे। हम लोगों ने ही इन्हें राजसिंहासन देकर राजा बनाया और अपने बराबर बना लिया । ये यदुवंशी चँवर, पंखा, शंख, श्वेतछत्र, मुकुट, राजसिंहासन और राजोचित शय्या का उपयोग-उपभोग इसलिये कर रहे हैं कि हम ने जान-बूझकर इस विषय में उपेक्षा कर रखी है । बस-बस, अब हो चुका। यदुवंशियों के पास अब राजचिन्ह रहने की आवश्यकता नहीं, उन्हें उनसे छीन लेना चाहिये। जैसे साँप को दूध पिलाना पिलाने वाले के लिये ही घातक है, वैसे ही हमारे दिये हुए राजचिन्हों को लेकर ये यदुवंशी हमने ही विपरीत हो रहे हैं। देखो तो भला हमारे ही कृपा-प्रसाद से तो इनकी बढती हुई और अब ये निर्लज्ज होकर हमीं पर हुकुम चलाने चले हैं। शोक है! शोक है! ॥ २७ ॥ जैसे सिंह का ग्रास कभी भेडा नहीं छीन सकता, वैसे ही यदि भीष्म, द्रोण, अर्जुन आदि कौरव वीर जान-बुझकर न छोड़ दें, न दे दें तो स्वयं देवराज इन्द्र भी किसी वस्तु का उपभोग कैसे कर सकते हैं ?




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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