महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 130 श्लोक 1-18

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त्रिंशदधिकशततम (130) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: त्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
दुर्योधन के षड्यन्त्र का सात्यकि द्वारा भंडाफोड़, श्रीकृष्ण कि सिंहगर्जना तथा धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन समझाना

वैशंपायनजी कहते हैं – जनमजेय ! माता के कहे हुए उस नीतियुक्त वचन का अनादर करके दुर्योधन पुन: क्रोधपूर्वक वहाँ से उठकर उन्हीं अजितात्मा मंत्रियों के पास चला गया। तत्पश्चात सभाभवन से निकालकर दुर्योधन ने द्यूतविद्या के जानकार सुबल पुत्र राजा शकुनि के साथ गुप्त रूप से मंत्रणा की। उस समय दुर्योधन, कर्ण, सुबल पुत्र शकुनि तथा दु:शासन – इन चारों का निश्चय इस प्रकार हुआ। वे परस्पर कहने लगे – ‘शीघ्रतापूर्वक प्रत्येक कार्य करनेवाले श्रीकृष्ण राजा धृतराष्ट्र और भीष्म के साथ मिलकर जबतक हमें कैद करें, उसके पहले हम लोग ही बलपूर्वक इन पुरुषसिंह हृषीकेश को बंदी बना लें । ठीक उसी तरह, जैसे इन्द्र ने विरोचन पुत्र बलि को बांध लिया था। ‘श्रीकृष्ण को कैद हुआ सुनकर पांडव दाँत तोड़े हुए सर्पों के समान अचेत और हतोत्साह हो जाएँगे ‘ये महाबाहु श्रीकृष्ण ही समस्त पांडवों के कल्याण-साधक और कवच की भांति रक्षा करनेवाले हैं । सम्पूर्ण यदुवंशियों के शिरोमणि तथा वरदायक इस श्रीकृष्ण के बंदी बना लिए जाने पर सोमकों सहित सब पांडव उद्योगशून्य हो जाएँगे। ‘इसलिए हम यहीं शीघ्रतापूर्वक कार्य करनेवाले केशव को राजा धृतराष्ट्र के चीखने-चिल्लाने पर भी कैद करके शत्रुओं के साथ युद्ध करें। विद्वान सात्यिक इशारे से ही दूसरों के मन की बात समझ लेनेवाले थे । वे उन दुष्टचित्त पापियों के उस पापपूर्ण अभिप्राय को शीघ्र ही ताड़ गए। फिर उसके प्रतीकार के लिए वे सभा से बाहर निकलकर कृतवर्मा से मिले और इस प्रकार बोले – ‘तुम शीघ्र ही अपनी सेना को तैयार कर लो और स्वयं भी कवच धारण करके व्युहाकार खड़ी हुई सेना के साथ सभाभवन के द्वार पर डटे रहो। ‘तब तक मैं अनायास ही महान् कर्म करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण को कौरवों के षड्यंत्र की सूचना दिये देता हूँ’ । ऐसा कहकर वीर सात्यकी ने सभा में प्रवेश किया, मानो सिंह पर्वत की कन्दरा में घुस रहा हो । वहाँ जाकर उन्होनें महात्मा केशव से कौरवों का अभिप्राय बताया । फिर धृतराष्ट्र और विदुर को भी इसकी सुचना दी। सात्यकी ने किंचित मुस्कराते हुए से उन कौरवों के इस अभिप्राय को इस प्रकार बताया – ‘सभासदों ! कुछ मूर्ख कौरव एक ऐसा नीच कर्म करना चाहते हैं, जो धर्म, अर्थ और काम सभी दृष्टियों से साधु पुरुषों द्वारा निंदित है । यद्यपि इस कार्य में उन्हें किसी प्रकार सफलता नहीं प्राप्त हो सकती। ‘क्रोध और लोभ के वशीभूत हो काम एवं रोष से तिरस्कृत होकर कुछ पापात्मा एवं मूढ़ मानव यहाँ आकार भारी बखेड़ा पैदा करना चाहते हैं । ‘जैसे बालक और जड़ बुद्धि वाले लोग जलती आग को कपड़े में बाँधना चाहें, उसी प्रकार ये मंदबुद्धि कौरव इन कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण को यहाँ कैद करना चाहते हैं। सात्यकि का यह वचन सुनकर दूरदर्शी विदुर ने कौरव-सभा में महाबाहु धृतराष्ट्र से कहा – ‘परंतप नरेश ! जान पड़ता है, आपके सभी पुत्र सर्वथा काल के अधीन हो गए हैं । इसीलिए वे यह अकीर्तिकारक और असंभव कर्म करने को उतारू हुए हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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