एकचत्वारिंशदधिकशततम (141) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: एकचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
- 'ब्राह्मण भयंकर संकटकाल में किस तरह जीवन–निर्वाह करे’ इस विषय में विश्वामित्र मुनि और चाण्डाल का संवाद
युधिष्ठिर ने पूछा- प्रजानाथ! भरतनंदन! भूपाल– शिरोमणे! जब सब लोगों द्वारा धर्म का उल्लंघन होने के कारण श्रेष्ठ धर्म क्षीण हो चले, अधर्म को धर्म मान लिया जाय और धर्म को अधर्म समझा जान लगे, सारी मर्यादाएं नष्ट हो जाय, धर्म का निश्चय डांवाडोल हो जाय, राजा अथवा शत्रु प्रजा को पीड़ा देने लगे, सभी आश्रम किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाय, धर्म–कर्म नष्ट हो जाय, काम, लोभ तथा मोह के कारण सबको सर्वत्र भय दिखायी देने लगे, किसी का किसी पर विश्वास न रह जाय, सभी सदा डरते रहे, लोग धोखे से एक–दूसरे को मारने लगे, सभी आपस में ठगी करने लगे, देश में सब ओर आग लगायी जाने लगे, ब्राह्मण अत्यंत पीड़ित हो जाय, वृष्टि न हो, परस्पर वैर–विरोध और फूट बढ़ जाय और पृथ्वी पर जीविका के सारे साधन लुटेरों के अधीन हो जाय, तब ऐसा अधम समय उपस्थित होने पर ब्राह्मण किस उपाय से जीवन निर्वाह करे ? नरेश्वार! पितामह! यदि ब्राह्मण ऐसी आपत्ति के समय दयावश अपने पुत्र–पौत्रों का परित्याग करना न चाहे तो वह कैसे जीविका चलावे, यह मुझे बताने की कृपा करें। परंतप! जब लोग पापपरायण हो जाय, उस अवस्था में राजा कैसा बर्ताव करे, जिससे वह धर्म और अर्थ से भी भ्रष्ट न हो ? भीष्मजी ने कहा-महाबाहों! प्रजा के योग, क्षेम, उत्तम वृष्टि, व्याधि, मृत्यु और भय-इन सबका मूल कारण राजा ही है। भरतश्रेष्ठ! सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग-इन सबका मूल कारण राजा ही है, ऐसा मेरा विचार है। इसकी सत्यता में मुझे तनिक भी संदेह नहीं है। प्रजाओं के लिये दोष उत्पन्न करने वाले ऐसे भयानक समय के आने पर ब्राह्मण को विज्ञान बल का आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करना चाहिये। इस विषय में चाण्डाल के घर में चाण्डाल और विश्वामित्र का जो संवाद हुआ था, उस प्राचीन इतिहास का उदाहरण लोग दिया करते हैं। त्रेता और द्वापर के संधि की बात है, दैववश संसार में बारह वर्षों तक भयंकर अनावृष्टि हो गयी (वर्षा हुई ही नहीं)। त्रेतायुग प्राय: बीत गया था, द्वापर का आरंभ हो रहा था, प्रजाएं बहुत बढ़ गयी थीं, जिनके लिये वर्षा बंद हो जाने से प्रलयकाल–सा उपस्थित हो गया। इन्द्र ने वर्षा बंद कर दी थी, बृहस्पति प्रतिलोम (वक्री) हो गया था, चंद्रमा विकृत हो गया था और वह दक्षिण मार्ग पर चला गया था। उन दिनों कुहासा भी नहीं होता था, फिर बादल कहां से उत्पन्न होते। नदियों का जलप्रवाह अत्यन्त क्षीण हो गया और कितनी ही नदियां अदृश्य हो गयीं। बड़े–बड़े सरोवर, सरिताएं, कूप और झरने भी उस दैवविहित अथवा स्वाभाविक अनावृष्टि से श्रीहीन होकर दिखायी ही नहीं देते थें। छोटे–छोटे जलाशय सर्वथा सूख गये। जलाभाव के कारण पौंसलें बंद हो गये। भूतल पर यज्ञ और स्वाध्याय का लोप हो गया। वषट्कार और मांगलिक उत्सवों का कहीं नाम भी नहीं रह गया। खेती और गोरक्षा चौपट हो गयी, बाजार–हाट बंद हो गये। यूप और यज्ञों का आयोजन समाप्त हो गया तथा बड़े–बड़े उत्सव नष्ट हो गये।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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