महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 156 श्लोक 1-19
षट्पञ्चाशदधिकशततम (156) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
नारद जी की बात सुनकर वायु का से मल को धमकाना और सेमलका वायु को तिरस्कृत करके विचारमग्न होना
भीष्मजी कहते हैं- राजेन्द्र! सेमलसे ऐसा कहकर ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ नारद जी ने वायु देव के पास आकर उसकी सब बातें कह सुनायीं। नारदजी ने कहा–वायुदेव! हिमालय के पृष्ठ भाग पर एक सेमल का वृक्ष है, जो बहुत बडे़ परिवार के साथ है। उसकी छाया विशाल और घनी है और जडे़ बहुत दूर तक फैली हैं। वह तुम्हारा अपमान करता है। उसे तुम्हारे प्रति बहुत–से ऐसे आक्षेपयुक्त वचन कहे हैं, जिन्हें तुम्हारे सामने मुझे कहना उचिन नहीं है। पवनदेव! मैं तुम्हें जानता हूं। तुम समस्त प्राणधारियों में श्रेष्ठ, महान् एवं गौरवशाली हो तथा क्रोध में वैवस्वत यम के समान हो। भीष्मजी कहते हैं-राजन्! नारदजी की यह बात सुनकर वायुदेव ने शाल्मलि के पास जा कुपित होकर कहा। वायु बोले- सेमल! तुमने इधर से जाते हुए नारदजी से मेरी निन्दा की है। मैं वायु हूं। तुम्हें अपना बल और प्रभाव दिखाता हूं। वृक्ष! मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हॅूं। तुम्हारे विषय में मुझे सब कुछ ज्ञात है। भगवान् ब्रह्माजी ने प्रजा की सृष्टि करते समय तुम्हारी छाया में विश्राम किया था। दुर्बुद्धे! उनके विश्राम करने से ही मैंने तुम पर यह कृपा की थी, इसी से तुम्हारी रक्षा हो रही है। द्रुमाधम! तुम अपने बल से नहीं बचे हुए हो। परंतु तुम अन्य प्राकृतिक मनुष्य की भांति जो मेरा अपमान कर रहे हेा, इससे कुपित होकर मैं अपना वह स्वरूप दिखाऊंगा, जिससे तुम फिर मेरा अपमान नहीं करोगे। भीष्मजी कहते हैं-राजन्! पवनदेव के ऐसा कहने पर सेमल ने हंसते हुए–से कहा–‘पवन! तुम कुपित होकर स्वयं ही अपनी सारी शक्ति दिखाओ ‘मेरे ऊपर अपना क्रोध उतारो। तुम कुपित होकर मेरा क्या कर लोगे। पवन! यद्यपि तुम स्वयं बडे़ प्रभावशाली हो; फिर भी मैं तुमसे डरता नहीं हूं। ‘मैं बल में तुमसे बहुत बढ़–चढ़कर हूं; अत: मुझे तुमसे भय नहीं मानना चाहिये। जो बुद्धि के बली होते हैं, वे ही बलिष्ट माने जाते हैं। जिनमें केवल शारीरीक बल होता है, वे वास्तव में बलवान् नहीं समझे जाते’। सेमल के ऐसा कहने पर वायु ने कहा-‘अच्छा, कल मैं तुम्हें अपना पराक्रम दिखाऊंगा। ‘इतने में ही रात आ गयी। उस समय सेमल ने वायु के द्वारा जो कुछ किया जाने वाला था, उस पर मन–ही–मन विचार करके तथा अपने आपको वायु के समान बलवान् न देखकर सोचा- ‘अहो! मैंने नारदजी से जो बातें कहीं थीं, वे सब झूठी थीं। मैं वायु का सामना करने में असमर्थ हूं क्योंकि वे बल में मुझसे बढे़ हुए हैं। ‘जैसा कि नारदजी ने कहा था, वायुदेव नित्य बलवान् हैं। मैं तो दूसरे वृक्षों से भी दुर्बल हूं, इसमें संशय नहीं है; परंतु बुद्धि में कोई भी वृक्ष मेरे समान नहीं है। ‘मैं बुद्धि का आश्रय लेकर वायु के भय से छुटकारा पाऊंगा। यदि वन में रहने वाले दूसरे वृक्ष भी उसी बुद्धि का सहारा लेकर रहें तो नि:संदेह कुपित वायुसे उनका कोई अनिष्ट नहीं होगा। ‘परंतु वे मूर्ख हैं; अत: वायुदेव जिस प्रकार कुपित होकर उन्हें दबाते हैं, उसका उन्हें ज्ञान नहीं है। मैं यह सब अच्छी तरह जानता हूं’।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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