महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 165 श्लोक 14-29

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०८:३०, १८ जुलाई २०१५ का अवतरण ('==पञ्चषष्‍टयधिकशततम (165) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

पञ्चषष्‍टयधिकशततम (165) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: पञ्चषष्‍टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 14-29 का हिन्दी अनुवाद

राजा उसके शास्‍त्रज्ञान और स्वभाव का परिचय प्राप्‍त करके उसके लिये उचित आ‍जीविका की व्यवस्था करे और जैसे पिता अपने औरस पुत्र की रक्षा करता है, उसी प्रकार वह उस ब्राह्मण की रक्षा करे। प्रतिवर्ष किये जाने वाले आग्रयण आदि यज्ञ यदि न किये जा सके हो तो उनके बदले प्रतिदिन वैश्‍वानरी इष्टि समर्पित करे। मुख्‍य कर्म के स्थान में जो गौण कार्य किया जाता है, उसका नाम अनुकल्प है, धर्मज्ञ पुरूषोंद्वारा बताया गया अनुकल्‍प भी परम धर्म ही है। क्योंकि विश्‍वेदेव, साध्‍य, ब्राह्मण और महर्षि–इन सब लोगों ने मृत्यु से डरकर आपत्काल के विषय में प्रत्येक विधि का प्रतिनिधि नियत कर दिया है। जो मुख्‍य विधि के अनुसार कर्म करने में समर्थ होकर भी गौण विधि से काम चलाता है, उस दुर्बुद्धि मनुष्‍य को पारलौकि‍क फल की प्राप्त्‍िा नहीं होती। वेदज्ञ ब्राह्मण को चाहिये कि वह राजा के निकट अपनी आवश्‍यकता निवेदन न करे; क्योंकि ब्राह्मण की अपनी शक्ति तथा राजा की शक्ति में से उसकी अपनी ही शक्ति प्रबल है। अत: ब्रह्मवादियों का तेज राजा के लिये सदा दु:सह है। ब्राह्मण इस जगत् का कर्ता, शासक, धारण-पोषण करने वाला और देवता कहलाता है। अत: उसके प्रति अमङग्‍लसूचक बात न कहे। रूखे वचन न बोले। क्षत्रिय अपने बाहुबल से, वैश्‍य और शूद्र धन के बल से तथा ब्राह्मण मन्‍त्र एवं हवन की शक्ति से अपनी विपत्ति से पार हो सकता है । न कन्‍या, न युवती, न मन्‍त्र न जानने वाला, न मूर्ख और न संस्‍कार हीन पुरूष ही अग्नि में हवन करने का अधिकारी है। यदि ये हवन करते हैं तो स्‍वयं तो नरक में पड़तें ही है, जिसका वह यज्ञ है, वह भी नरक में गिरता है। अत: जो यज्ञ कर्म में कुशल और वेदों का पारङग्‍ विद्वान् हो, वहीं होता हो सकता है। जो अग्निहोत्र आरम्‍भ करके प्रजापति देवता के लिये अश्‍वरूप दक्षिणा का दान नहीं करता, धर्मदर्शी पुरूष उसे अनाहिताग्नि कहते[१] हैं। मनुष्‍य जो भी पुण्‍यकर्म करे उसे श्रद्धापूर्वक और जितेन्द्रिय भाव से करे। पर्याप्‍त दक्षिणा दिये बिना किसी तरह यज्ञ न करे। बिना दक्षिणा का यज्ञ प्रजा और पशु का नाश करता है; और स्‍वर्ग की प्राप्ति में भी विध्‍न डाल देता है। इतना ही नहीं वह इन्द्रिय, यश, कीर्ति तथा आयुको भी क्षीण करता है। जो ब्राह्मण रजस्‍वला स्‍त्री के साथ समागम करते हैं, जिन्‍होने घर में अग्नि की स्‍थापना नहीं की है, तथा जो अवैदिक रीति से हवन करते है, वे सभी पापाचारी है। जिस गांव में एक ही कुएं का पानी सब लोग पीते हैं, वहां बारह वर्षों तक निवास करने से तथा शूद्रजाति की स्‍त्री के साथ विवाह कर लेने से ब्राह्मण भी शुद्र हो जाता है। यदि ब्राह्मण अपनी पत्‍नी के सिवा दूसरी स्त्री को श्‍य्‍यापर बिठा ले अथवा बड़े–बुढे़ शूद्र को या ब्राह्मणेतर–क्षत्रिय या वैश्‍य को सम्‍मान देता हुआ ऊंचे आसनपर बैठाकर स्‍वयं चटाई पर बैठे तो वह ब्राह्मणत्‍व से गिर जाता है। राजन्! उसकी शुद्धि जिस प्रकार होती है, वह मुझसे सुनो। यदि ब्राह्मण एक रात भी किसी नीच वर्ण के मनुष्‍य की सेवा करे अथवा उसके साथ एक जगह रहे या एक आसनपर बैठे तो इससे जो पाप लगता है, उसको वह तीन वर्षों तक व्रत का पालन करते हुए पृथ्‍वीपर विचरने से दूर सकता है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जिसने अग्नि की स्थापना नहीं की है, उसे ‘अनाहिताग्नि’ कहा जाता है। तात्पर्य यह कि उक्त दक्षिणा दिये बिना उसके द्वारा की हुई अग्नि स्थापना व्यर्थ हो जाती है।

संबंधित लेख