षट्षष्टयधिकशततम (166) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: षट्षष्टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 23-41 का हिन्दी अनुवाद
भृगु, अत्रि और अड़िग्रा–ये सिद्ध मुनि, तपस्या के धनी काश्यपगण, वसिष्ठ, गौतम, अगस्त्य, देवर्षि नारद, पर्वत, वालखिल्य ॠषि, प्रभास, सिकत, घृतप (घी पीकर रहने वाले), सोमप (सोमपान करने वाले), वायव्य (वायु पीकर रहने वाले), मरीचिप (सूर्य की किरणों का पान करने वाले) और वैश्वानर तथा अकृष्ट (बिना जोते-बोये उत्पन्न हुए अन्न से जीविका चलाने-वाले), हंसमुनि (संन्यासी), अग्नि से उत्पन्न होने वाले ॠषिगण, वानप्रस्थ और पृश्निगण-ये सभी महात्मा ब्रह्माजी की आज्ञा के अधीन रहकर सनातन धर्म का पालन करने लगे। परंतु दानवेश्वरों ने क्रोध और लोभ से युक्त हो ब्रह्माजी की उस आज्ञा का उल्लंधन करके धर्म को हानि पहुंचाना आरम्भ किया। हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष, विरोचन, शम्बर, विप्रचिति, विराध, नमुचि और बलि–ये तथा और भी बहुत-से दैत्य और दानव अपने दल के साथ धर्ममर्यादा का उल्लंड़घ्न करके अधर्म करने का ही दृढ़ निश्चय लेकर आमोद–प्रमोद में जीवन व्यतीत करने लगे। वे सभी दैत्य कहते थे कि ‘हम और देवता एक ही जाति के है; अत: जैसे देवता हैं वैसे हम हैं।‘ इस प्रकार जातीय धर्म का आश्रय लेकर दैत्यगण देवर्षियों के साथ स्पर्धा रखने लगे। भरतनन्दन! वे न तो प्राणियों का प्रिय करते थे और न उन पर दयाभाव ही रखते थे। वे साम, दाम और भेद–इन तीनों उपायों को लांघकर केवल दण्ड के द्वारा समस्त प्रजाओं को पीडा़ देने लगे। वे असुरश्रेष्ठ घमण्ड में भरकर उन प्रजाओं के साथ बातचीत भी नहीं करते थे। तदनन्तर ब्रह्मर्षियों सहित भगवान् ब्रह्मा हिमालय के सुरम्य शिखर पर उपस्थित हुए। वह इतना ऊंचा था कि आकाश के तारे उस पर विकसित कमल के समान जान पड़ते थे। उसका विस्तार सौ योजन का था। वह मणियों तथा रत्नसमूहों से व्याप्त था। बेटा नकुल! जहां के वृक्ष और वन फूलों से भरे हुए थे, उस श्रेष्ठ पर्वतशिखर पर सुरश्रेष्ठ ब्रह्माजी सम्पूर्ण जगत का कार्य सिद्ध करने के लिये ठहर गये। तदनन्तर कई सहस्त्र वर्ष व्यतीत होने पर भगवान् ब्रह्मा ने शास्त्रोक्त विधि के अनुसार वहां एक यज्ञ आरम्भ किया। यज्ञकुशल महर्षियों तथा अन्य कार्यकर्ताओं ने यथावत् विधि के अनुसार उस यज्ञ का सम्पादन किया। वहां यज्ञवेदियों पर समिधाएं फैली हुई थी। जगह–जगह अग्निदेव प्रज्वलित हो रहे थे। चमचमाते हुए सुवर्णनिर्मित यज्ञपात्र यज्ञमण्डप की शोभा बढाते थे। वह यज्ञमण्डल श्रेष्ठ देवताओं तथा सभासद् बने हुए महर्षियों से सुशोभित होता था। उस समय वहां एक अत्यन्त भयंकर घटना घटित हुई, जिसे मैंने ॠषियों के मुंह से सुना था। जैसे ताराओं के उगने पर निर्मल आकाश में चन्द्रमा का उदय हो, उसी प्रकार उस यज्ञमण्डप में अग्नि को इधर–उधर बिखेरकर एक भयंकर भूत प्रकट हुआ, ऐसा सुना जाता है । उसके शरीर का रंग नीलकमल के समान श्याम था, दाढे़ं अत्यन्त तीखी दिखायी देती थीं; और उसका पेट अत्यन्त कृश था। वह बहुत ऊंचा, परम दुर्धर्ष और अमित तेजस्वी जान पड़ता था। उसके उत्पन्न होते ही धरती डोलने लगी, समुद्र क्षुब्ध हो उठा और उसमें उताल तरंगों के साथ भंवरें उठने लगी। आकाश से उल्काएं गिरने लगी, बडे़–बडे़ उत्पात प्रकट होने लगे, वृक्ष स्वयं ही अपनी शाखाओं को गिराने लगे, सम्पूर्ण दिशाएं अशान्त हो गयी और अमड़ग्लकारी वायु प्रचण्ड वेग से बहने लगी।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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