महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 44 श्लोक 50-56

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चौवालीसवाँ अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: चौवालीसवाँ अध्याय: श्लोक 42-56 का हिन्दी अनुवाद

महाराज! मेरे ऐसा कहने पर धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ मेरे चाचा बाहलीक इस प्रकार बोले- ‘यदि तुम्‍हारे मत में मूल्‍य देने मात्र से ही विवाह का पूर्ण निश्‍चय हो जाता है, पाणिग्रहण से नहीं, तब तो स्‍मृति का यह कथन ही व्यर्थ होगा कि कन्‍या का पिता एक वर से शुल्‍क ले लेने पर भी दूसरे गुणवान वर का आश्रय ले सकता है।' अर्थात पहले को छोड़कर दूसरे गुणवान वर से अपनी कन्‍या का विवाह कर सकता है। जिनका यह मत है कि शुल्‍क से ही विवाह का निश्‍चय होता है, पाणिग्रहण से नहीं, उनके इस कथन को धर्मज्ञ पुरुष प्रमाण नहीं मानते हैं। ‘कन्‍यादान के विषय में तो लोगों का कथन भी प्रसिद्ध है ‘अर्थात सब लोग यही कहते हैं कि कन्‍यादान हुआ है।' अत: जो शुल्‍क से ही विवाह निश्‍चय मानते हैं उनके कथन की प्रतीति कराने वाला कोई प्रमाण उपलब्‍ध नहीं होता। जो क्रय और शुल्‍क को मान्‍यता देते हैं वे मनुष्‍य धर्मज्ञ नहीं हैं। ‘ऐसे लोगों को कन्‍या नहीं देनी चाहिये और जो बेची जा रही हो ऐसी कन्‍या के साथ विवाह नहीं करना चाहिये, क्‍योंकि भार्या किसी प्रकार भी खरीदने या विक्रय करने की वस्‍तु नहीं है।' जो दासियों को खरीदते और बेचते हैं वे बड़े लोभी और पापात्‍मा हैं। ऐसे ही लोगों में पत्‍नी को भी खरीदने-बचेने की निष्‍ठा होती है। इस विषय में पहले के लोगों ने सत्‍यवान से पूछा था कि ‘महाप्राज्ञ ! यदि कन्‍या का शुल्‍क देने के पश्‍चात शुल्‍क देने वाले की मृत्‍यु हो जाये तो उसका पाणिग्रहण दूसरा कोई कर सकता है या नही? इसमें हमें धर्म विषयक संदेह हो गया है। आप इसका निवारण कीजिये, क्‍योंकि आप ज्ञानी पुरुषों द्वारा सम्‍मानित हैं। ‘हम लोग इस विषय में यथार्थ बात जानना चाहते हैं। भीष्‍म जी काशिराज की तीन कन्‍याओं को हरकर लाये थे, उनमें से दो को एक श्रेणी में रखकर एक वचन का प्रयोग किया गया है, यह मानना चाहिये, तभी आदिपर्व अध्‍याय 102 के वर्णन की संगति ठीक लग सकती है। आप हमारे लिये पथ प्रदर्शक होइये। 'उन लोगों के इस प्रकार कहने पर सत्‍यवान ने कहा-‘जहाँ उतम पात्र मिलता हो वहीं कन्या देनी चाहिये।' इसके विपरीत कोई विचार मन में नहीं लाना चाहिये। मूल्‍य देने वाला यदि जीवित हो तो भी सुयोग्‍य वर के मिलने पर सज्‍जन पुरुष उसी के साथ कन्‍या का विवाह करते हैं। फिर उसके मर जाने पर अन्‍यत्र करें- इसमें तो संदेह ही नहीं है। ‘शुल्‍क देने वाले की मृत्‍यु हो जाने पर उसके छोटे भाई को वह कन्‍या पति रूप में ग्रहण करे अथवा जन्‍मान्‍तर में उसी पति को पाने की इच्‍छा से उसी का अनुसरण ((चिन्‍तन)करती हुई आजीवन कुमारी रहकर तपस्‍या करे। ‘किन्‍हीं मत में अक्षत योनि कन्‍या को स्‍वीकार करने का अधिकार है। दूसरों के मत में यह मन्‍द प्रवृति- अवैध कार्य है। इस प्रकार जो विवाद करते हैं, वे अन्‍त में इसी निश्‍चय पर पहुँचते हैं कि कन्‍या का पाणिग्रहण होने से पहले का वैवाहिक मंगलाचार और मन्‍त्र प्रयोग हो जाने पर जहाँ अन्‍तर या व्‍यवधान पड़ जाये, अर्थात अयोग्‍य वर को छोड़कर किसी दूसरे योग्‍य वर के साथ कन्‍या ब्‍याह दी जाये तो दाता को केवल मिथ्‍या भाषण का पाप लगता है (‍पाणिग्रहण से पूर्व कन्‍या विवाहित नहीं मानी जाती है)। ‘सप्‍तपदी के सातवें पद में पाणिग्रहण के मन्‍त्रों की सफलता होती है (और तभी पति-पत्‍नी भाव का निश्‍चय होता है)। जिस पुरुष को जल से संकल्‍प करके कन्‍या का दान दिया जाता है वही उसका पाणिग्रहीता पति होता है और उसी की वह पत्‍नी मानी जाती है। विद्वान पुरुष इसी प्रकार कन्‍यादान की विधि बताते हैं। वे इसी निश्‍चय पर पहुँचे हुए हैं। ‘जो अनुकुल हो, अपने वंश के अनुरूप हो, अपने पिता-माता या भाई के द्वारा दी गयी हो और प्रज्‍वलित अग्नि के समीप बैठी हो, ऐसी पत्‍नी को श्रेष्‍ठ द्विज अग्नि की परिक्रमा करके शास्‍त्र विधि के अनुसार ग्रहण करें।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तर्गत दानधर्मपर्व में विवाह धर्म का वर्णनविषयक चौवालीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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