महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 51 श्लोक 1-20

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ११:३७, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}")
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

इक्‍यावनावॉं अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: इक्‍यावनावॉं अध्याय: श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद

राजा नहुषका एक गौके मोलपर च्‍यवन मुनिको खरीदना, मुनिके द्वारा गौओंका महात्‍म्‍य-कथन तथा मत्‍स्‍यों और मल्‍लाहोंकी सद्गति भीष्‍मजी कहते हैं-भरतनन्‍दन ! च्‍यवनमुनिको ऐसी अवस्‍थामें अपने नगरके निकट आया जान राजा नहुष अपने पुरोहित और मन्त्रियोंको साथ ले शीघ्र वहॉं आ पहुँचे। उन्‍होंने पवित्रभावसे हाथ जोड़कर मनको एकाग्र रखते हुए न्‍यायोचित रीतिसे महात्‍मा च्‍यवनको अपना परिचय दिया। प्रजानाथ ! राजाके पुरोहितने देवताओंके समान तेजस्‍वी सत्‍यव्रती महात्‍मा च्‍यवनमुनिका विधिपूर्वक पूजन किया। तत्‍पश्‍चात् राजा नहुष बोले-द्विजश्रेष्‍ठ ! बताइये, मैं आपको कौन-सा प्रिय कार्य करुँ ?भगवन् ! आपकी आज्ञासे कितना ही कठिन कार्य क्‍यों न हो, मैं सब पूरा करुँगा।। च्‍यवनने कहा-राजन् ! मछलियोंसे जीविका चलानेवाले इन मल्‍लाहोंने बड़े परिश्रमसे मुझे अपने जालमें फँसाकर निकाला है, अत: आप इन्‍हें इन मछलियोंके साथ-साथ मेरा भी मूल्‍य चुका दीजिये। तब नहुषने अपने पुरोहितसे कहा-पुरोहितजी ! भृगुनन्‍दन चयवनजी जैसी आज्ञा दे रहे हैं, उसके अनुसार इन पूज्‍यपाद महर्षिके मूल्‍यके रुपमें मल्‍लाहोंको एक हजार अशफियॉं दे दिजिये। च्‍यवनने कहा-नरेश्‍वर ! मैं एक हजार मुद्राओंपर बेचने योग्‍य नहीं हूँ।क्‍या आप मेरा इतना ही मूल्‍य समझते है, मेरे योग्‍य मूल्‍य दीजिये और वह मूल्‍य कितना होना चाहिये-वह अपनी ही बुध्दिसे विचार करके निश्चित कीजिये। नहुष बोले- व्रिपवर ! इन निषादोंको एक लाख मुद्रा दीजिये।(यों पुरोहितको आज्ञा देकर वे मुनिसे बोले-)भगवन् ! क्‍या यह आपका उचित मूल्‍य हो सकता है या अभी आप कुछ और देना चा‍हते हैं ? च्‍यवनने कहा-नृपश्रेष्‍ठ ! मुझे एक लाख रुपयेके मूल्‍य में ही सिमित मत किजिये। उचित मूल्‍य चुकाइये। इस विषयमें अपने मन्त्रियोंके साथ विचार किजिये। नहुषने कहा-पुरोहितजी ! आप इन विषादोंको एक करोड़ मुद्राके रुप में दीजिये और यदि यह भी यह भी ठीक मूल्‍य न हो तो और अधिक दीजिये। च्‍यवनने कहा-महातेजस्‍वी नरेश ! मैं एक करोड़ या उससे भी अधक मुद्राओंमें बेचने योग्‍य नहीं हूँ। जो मेरे लिये उचित हो वही मूल्‍य दीजिये और इस विषयमें ब्राहामणोंके साथ विचार किजिये। नहुष बोले- ब्रहान् ! यदि ऐसी बात है तो इन मल्‍लाहोंको मेरा आधा या सारा राज्‍य दे दिया जाय! इस ही मैं आपके लिए उचित मूल्‍य मानता हूँ।आप इसके अतिरिक्‍त औरक्‍या चाहते हैं। च्‍यवनने कहा- पृथ्‍वीनाथ ! आपका आधा या सारा राज्‍य भी मेरा उचित मूल्‍य नही है।आप उचित मूल्‍य दिजिये और वह मूल्‍य आपके ध्‍यानमें न आता हो तो ॠषियोंके साथ विचार कीजिये। भीष्‍मजी कहते हैं-युधिष्ठिर ! म‍्हर्षिका यह वचन सुनकर राजा दु:खसे कातर हो उठे और मन्‍त्री तथा पुरोहितके साथ इस विषयमें विचार करने लगे। इतनेहीमें फल-मूलका भोजन करनेवाले एक वनवासी मुनि, जिनका जन्‍म गायके पेटसे हुआ था, राजा नहुषके समीप आये और वे द्विज श्रेष्‍ठ उन्‍हें सम्‍बोधित करके कहने लगे- ‘राजन् ! ये मुनि कैसे संतुष्‍ट होंगे-इस बातको मैं जानता हूँ। मैं इन्‍हें शीघ्र संतुष्‍ट कर दूँगा। मैंने कभी हँसी-परिहासमें भी झूठ नहीं कहा हैं, फिर ऐसे समयमे असत्‍य कैसे बोल सकता हूँ ?मैं आपसे जो कहूँ, वह आपको नि:शंक होकर करना चाहिये’। नहुषने कहा-भगवन् ! आप मुझे भृगुपुत्र महर्षि च्‍यवनका मूल्‍य, जो इनके योग्‍य हो बता दिजिये और ऐसा करके मेरा, मेरे कुलका तथा समस्‍त राज्‍यका संकटसे उध्‍दार कीजिये। वे भगवान् च्‍यवन मुनि यदि कुपित हो जायँ तो तीनों लोकोंको जलाकर भस्‍म कर सकते हैं, फिर मुझ- जैसे तपोबलशून्‍य केवल बाहुबलका भरोसा रखनेवाले नरेशको नष्‍ट करना इनके लिये कौन बड़ी बात है?।।महर्षे! मैं अपने मन्‍त्री और पुरोहितके साथ संकटके अगाध महासागरमे डूब रहा हूँ। आप नौका बनकर मुझे पार लगाइये। इनके योग्‍य मूल्‍यका निर्णय कर दीजिये। भीष्‍मजी कहते हैं-राजन् ! नहुषकी बात सुनकर गायके पेटसे उत्‍पन्‍न हुए वे प्रतापी महर्षि राजा तथा उनके समस्‍त मन्त्रियोंको आनन्दित करते हुए बोले-‘महाराज ! ब्राहामणों और गौओंका एक कुल है, पर ये दो रुपोंमें विभक्‍त हो गये हैं। एक जगह मन्‍त्र स्थित होते हैं। और दूसरी जगह हविष्‍य! ब्राहामण सब प्राणियों में उतम है। उनका और गौओंका कोई मूल्‍य नहीं लगाया जा सकता; इसलिये आप इनकी कीमतमें एक गौ प्रदान कीजिये’। ‘नरेश्‍वर ! महर्षिका यह वचन सुनकर मन्‍त्री और पुरोहितसहित राजा नहुषको बडी प्रसन्‍नता हुई । राजन् ! वे कठोर व्रतका पालन करनेवाले भृगुपुत्र महर्षि च्‍यवनके पास जाकर उन्‍हें अपनी वाणीद्वारा तृप्‍त करते हुए-से बोले। नहुषने कहा- धर्मात्‍माओंमें श्रेष्‍ठ ब्रहार्षे ! भृगुनन्‍दन ! मैंने एक गौ देकर आपको खरीद लिया, अत: उठिये, उठिये, मैं यही आपका उचित मूल्‍य मानता हूँ। च्‍यवन ने कहा-निष्‍पाप राजेन्‍द्र ! अब मैं उठता हूँ। आपने उचित मूल्‍य देकर मुझे खरीदा हैं। अपनी मर्यादासे कभी च्‍युत न होनेवाले नरेश ! मैं इस संसारमें गौओंके सामन दूसरा कोई धन नहीं देखता हूँ। वीर भूपाल ! गौओंके नाम और गुणोंका कीर्तन तथा श्रवण करना, गौओेंका दान देना और उनका दर्शन करना-इनकी शास्‍त्रोंमें बड़ी प्रशसा की गयी है। ये सब कार्य सम्‍पूर्ण पापोंको दूर करके परम कल्‍याणकी प्राप्ति करानेवाले हैं।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।