महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 55 श्लोक 1-18

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ११:३८, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}")
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

पचपनवाँ अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: पचपनवाँ अध्याय: श्लोक 1-37 का हिन्दी अनुवाद

च्‍यवन का कुशिक के पूछने पर उनके घर में अपने निवास का कारण बताना और उन्‍हें वरदान देना च्यवन बोले- नरश्रेष्ठ। तुम मुझसे वर भी मांग लो और तुम्हारे मन में जो संदेह हो, उसे भी कहो। मैं तुम्हारा सब कार्य पूर्ण कर दूंगा। कुशिक ने कहा- भगवन। भृगुनन्दन। यदि आप मुझ पर प्रसन्न हो तो मुझे यह बताइये कि आपने इतने दिनों तक मेरे घर पर क्यों निवास किया था? मैं इसका कारण सुनना चाहता हूं । मुनिपुंगव। इक्कीस दिनों तक एक करवट से सोते रहना, फिर उठने पर बिना कुछ बोले बाहर चल देना, सहसा अन्तर्धान हो जाना, पुनः दर्शन देना, फिर इक्कीस दिनों तक दूसरी करवट से सोते रहना, उठने पर लेल की मालिश कराना, मालिश कराकर चल देना, पुनः मेरे महल में जाकर नाना प्रकार के भोजन को एकत्र करना और उसमें आग लगाकर जला देना, फिर सहसा रथ पर सवार हो बाहर नगर की यात्रा कराना, धन लुटाना, दिव्य वन का दर्शन कराना, वहां बहुत-से सुवर्णमय महलों को पकट करना, मणि और मूंगों के पाये वाले पलंगों को दिखाना और अन्त में सबको पुनः अदृश्‍य कर देना- महामुने। आपके इन कार्यों का यथार्थ कारण मैं सुनना चाहता हूं। भृगुकुलरत्न। इस बात पर जब मैं विचार करने लगता हूं तब मुझ पर अत्यन्त मोह छा जा जात है। तपोधन। इन सब बातों पर विचार करके भी मैं किसी निश्‍चय पर नहीं पहुंच पाता हूं, अतः इन बातों को मैं पूर्ण एवं यथार्थ रूप से सुनना चाहता हूं। च्यवन ने कहा- भूपाल। जिस कारण से मैंने यह सब कार्य किया था वह सारा वृतांत तुम पूर्ण रूप से सुनो। तुम्हारे इस प्रकार पूछने पर मैं इस रहस्य को बताये बिना नहीं रह सकता। राजन। पूर्वकाल की बात है, एक दिन देवताओं की सभा में ब्रम्हाजी एक बात कह रहे थे जिसे मैंने सुना था उसे बता रहा हूं, सुनो। नरेश्‍वर।ब्रह्माजी ने कहा था कि ब्राह्माण और क्षत्रिय में विरोध होने के कारण दोनों कुलों में संकरता आ जायेगी। (उन्हीं के मुंह से मैंने यह भी सुना था कि तुम्हारे वंश की कन्या से मेरे वंश में क्षत्रिय तेज का संचार होगा और) तुम्हारा एक पौत्र ब्राह्माण- तेज से सम्पन्न तथा पराक्रमी होगा। यह सुनकर मैं तुम्हारे कुल का विनाश करने के लिये तुम्हारे यहां आया था। मैं कुशिक का मूलोच्छेद कर डालना चाहता था। मेरी प्रबल इच्छा थी कि तुम्हारे कुल को जलाकर भस्‍म कर डालूं। भूपाल। इसी उद्वेश्‍य से तुम्हारे नगर में आकर मैंने तुमसे कहा कि मैं एक व्रत का आरम्भ करूंगा। तुम मेरी सेवा करो (इसी अभिप्राय से मैं तुम्हारा दोष ढूंढ रहा था); किंतु तुम्हारे घर में रहकर भी मैंने आज तक तुममें कोई दोष नहीं पाया। राजर्षे। इसीलिये तुम जीवित हो, अन्यथा तुम्हारी सत्ता मिट गयी होती।भूपते। यही विचार मन में लेकर मैं इक्कीस दिनों तक एक करवट से सोता रहा कि कोई मुझे बीच में आकर जगावे। नृपश्रेष्ठ। जब पत्‍नी सहित तुमने मुझे सोते समय नहीं जगाया तभी मैं तुम्हारे ऊपर मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुआ था। भूपते। प्रभो। जिस समय में उठकर घर से बाहर जाने लगा उस समय यदि तुम मुझसे पूछ देते कि कहां जाइयेगा’ तो इतने से ही मैं तुम्हें शाप दे देता। फिर मैं अन्तर्धान हुआ और पुनः तुम्हारे घर में आकर योग का आश्रय ले इक्कीस दिनों तक सोया।नरेश्‍वर। मैंने सोचा था कि तुम दोनों भूख से पीड़ित होकर या परिश्रम से थक कर मेरी निंदा करोगे। इसी उद्वेश्‍य से मैंने तुम लोगों को भूखे रखकर क्लेश पहुंचाया। भूपते। नरश्रेष्ठ। इतने पर भी स्त्री सहित तुम्हारे मन में तनिक भी क्रोध नहीं हुआ। इससे मैं तुम लोगों पर बहुत संतुष्ट हुआ। इसके बाद जो मैंने भोजन मंगाकर जला दिया, उसमें भी यही उद्वेश्‍य छिपा था कि तुम डाह के कारण मुझ पर क्रोध करोगे; परंतु मेरे उस बर्ताव को भी तुमने सह लिया। नरेन्द्र। इसके बाद में रथ पर आरूढ़ होकर बोला, तुम स्त्री सहित आकर मेरा रथ खींचो। नरेश्‍वर। इस कार्य को भी तुमन निःशंक होकर पूर्ण किया। इससे भी मैं तुम पर बहुत संतुष्ट हुआ। फिर जब मैं तुम्हारा धन लुटाने लगा उस समय भी तुम क्रोध के वशीभूत नहीं हुए। इन सब वातों से मुझे तुम्हारे ऊपर बड़ी प्रसन्नता हुई। राजन। मनुजेश्‍वर। अतः मैंने पत्‍नी सहित तुम्हें संतुष्ट करने के लिये ही इस वन में स्वर्ग का दर्शन कराया है। पुनः यह सब कार्य करने का उद्वेश्‍य तुम्हें प्रसन्न करना ही था, इस बात को अच्छी तरह जान लो।नरेश्‍वर।राजन। इस वन में तुमने जो दिव्य दृश्‍य देखे हैं वह स्वर्ग की एक झांकी थी। नृपश्रेष्ठ। भूपाल। तुमने अपनी रानी के साथ इसी शरीर से कुछ देर तक स्वर्गीय सुख का अनुभव किया है। नरेश्‍वर। यह सब मैंने तुम्हें तप और धर्म का प्रभाव दिखलाने के लिये ही किया है। राजन। इन सब बातों को देखने पर तुम्हारे मन में जो इच्छा हुई है, वह भी मुझे ज्ञात हो चुकी है । पृथ्वीनाथ। तुम सम्राट और देवराज के पद की भी अवहेलना करके ब्राह्माणत्व पाना चाहते हो और तप की अभिलाषा रखते हो। तात्। तप और ब्राह्माणत्व के सम्बन्ध में तुम जैसा उद्गार प्रकट कर रहे थे, वह बिलकुल ठीक है। वास्तव में ब्राह्माणत्व दुर्लभ है। ब्राह्माण होने पर भी ऋषि होना और ऋषि होने पर भी तपस्वी होना तो और भी कठिन है। तुम्हारी यह इच्छा पूर्ण होगी। कुशिक से कौषिक नामक ब्राह्माण वंश प्रचलित होगा तथा तुम्हारी तीसरी पीढ़ी ब्राह्माण हो जायेगी। नृपश्रेष्ठ। भृगुवंशियों के तेज से ही तुम्हारा वंश ब्राह्माणत्व को प्राप्त होगा। तुम्हारा पौत्र अग्नि के समान तेजस्वी और तपस्वी ब्राह्माण होगा। तुम्हारा वह पौत्र अपने तप से प्रभाव से देवताओं, मनुष्यों तथा तीनों लोकों के लिये भय उत्पन्न कर देगा। मैं तुमसे यह सच्ची बात कहता हूं। राजर्षे। तुम्हारे मन में जो इच्छा हो उसे वर के रूप में मांग लो। मैं तीर्थ यात्रा को जाऊंगा अब देर हो रही है। कुशिक ने कहा- महामुने। आज आप प्रसन्न हैं, यही मेरे लिये बहुत वड़ा वर है। अनघ। आप जैसा कह रहे हैं, वह सत्य हो- मेरा पौत्र ब्राह्माण हो जाये। भगवन। मेरा कुल ब्राह्माण हो जाये, यही मेरा अभीष्ट वर है। प्रभो। मैं इस विषय को पुनः विस्तार के साथ सुनना चाहता हूं। भृगुनन्दन। मेरा कुल किस प्रकार ब्राह्माणत्व को प्राप्त होगा? मेरा वह बन्धु, वह सम्मानित पौत्र कौन होगा जो सर्वप्रथम ब्राह्माण होने वाला है?

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें च्‍यवन और कुशिका का संवादविषयक पचपनवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।