महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 59 श्लोक 33-41

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ११:३८, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}")
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

उनसठवॉं अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: उनसठवॉं अध्याय: श्लोक 27-41 का हिन्दी अनुवाद

इतना ही नहीं, तुम्हें उन ब्राह्माणों को सदा नमस्कार करना चाहिये।।वे अपनी रूची के अनुसार जैसे चाहे रहें। तुम्हारे पास पुत्र की भांति उन्हें स्नेह प्राप्त होना चाहिये तथा वे सुख और उत्साह के साथ आनन्दपूर्वक रहें, ऐसी चेष्ठा करनी चाहिये । कुरूश्रेष्ठ। जिनकी कृपा अक्षय है, जो अकारण ही सबका हित करने वाले और थोड़े में ही संतुष्ट रहने वाले हैं, उन ब्राह्माणों को तुम्हारे सिवा दूसरा कौन जीविका दे सकता है। जैसे इस संसार में स्त्रियों का सनातन धर्म सदा पति की सेवा पर ही अवलम्बित है, उसी प्रकार ब्राह्माण ही सदैव हमारे आश्रय हैं। हम लोगों के लिये उनके सिवा दूसरे कोई सहारा नहीं है। तात। यदि ब्राह्माण क्षत्रियों के द्वारा सम्मानित न हो तथा क्षत्रिय में सदा रहने वाले निष्ठुर कर्म को देखकर ब्राह्माण भी उनका परित्याग करदे तो वे क्षत्रिय वेद, यज्ञ, उत्तम लोक और आजीविका से भी भ्रष्ट हो जायें। उस दशा में ब्राह्माणों का आश्रय लेने वाले तुम्हारे सिवा उन दूसरे क्षत्रियों के जीवित रहने का क्या प्रयोजन है?राजन। अब मैं तुम्हें सनातन काल का धार्मिक व्यवहार कैसा है, यह बताऊंगा। हमने सुना है पूर्व काल में क्षत्रिय ब्राह्माणों की वैश्‍य क्षत्रियों की और शूद्र वैश्‍यों की सेवा किया करते थे। ब्राह्माण अग्नि के समान तेजस्वी हैं; अतः शूद्र को दूर से ही उनकी सेवा करनी चाहिये। उनके शरीर से स्पर्श पूर्वक सेवा करने का अधिकार केवल क्षत्रिय और वैश्‍य को ही है। ब्राह्माण स्वभावतः कोमल, सत्यवादी और सत्यधर्म का पालन करने वाले होते हैं, परंतु जब वे कुपित होते हैं तब विषैले सर्प के समान भयंकर हो जाते हैं। अतः तुम सदा ब्राह्माणों को सेवा करते रहो । छोटे-बड़े और बड़ों से भी बड़े जो क्षत्रिय तेज और बल से तप रहे हैं, उन सब के तेज और तप ब्राह्माणों के पास जाते ही शांत हो जाते हैं।तात्। मुझे ब्राह्माण जितने प्रिय हैं, उतने मेरे पिता, तुम, पितामह, यह शरीर और जीवन भी प्रिय नहीं है।। भरतश्रेष्ठ। इस पृथ्वी पर तुमसे अधिक प्रिय मेरे लिये दूसरा कोई नहीं है; परंतु ब्राह्माण तुमसे भी बढकर प्रिय हैं। पाण्डुनन्दन। मैं यह सच्ची बात कह रहा हूं और चाहता हूं कि इस सत्य के प्रभाव से मैं उन्हीं लोकों में जाऊं जहां मेरे पिता शान्तनु गये हैं। इस सत्य के प्रभास से ही मैं सत्पुरूषों के उन पवित्र लोकों का दर्शन कर रहा हूं जहां ब्राह्माणों और ब्रह्माजी की प्रधानता है। तात्। मुझे शीघ्र ही चिरकाल के लिये उन लोकों में जाना है। भरतश्रेष्ठ। पृथ्वीनाथ।ब्राह्माणों के लिये मैंने जो कुछ किया है, उसके फलस्वरूप ऐसे पुण्य लोकों का दर्शन करके मुझे संतोष हो गया है। अब मैं इस बात के लिये संतप्त नहीं हूं कि दूसरा कोई पुण्य क्यों नहीं किया ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें का उनसठवॉं अध्‍याय पूरा हुआ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।