महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 20 श्लोक 20-32
विंशो (20) अध्याय: कर्ण पर्व
अश्वत्थामा के ऐसा कहने पर पाण्ड्य नरेश बोले- ‘अच्छा ऐसा ही होगा । पहले तुम प्रहार करो । ‘इस प्रकार आक्षेप युक्त वचन सुनकर अश्वम्थामा ने उनपर अपने बाण का प्रहार किया । तब मलयध्वज पाण्ड्य नरेश ने कर्णी नामक बाण के द्वारा द्रोण पुत्र को बींध डाला।तब आचार्य प्रवर अश्वत्थामा ने अत्यन्त भयंकर तथा अग्निशिखा के समान तेजस्वी मर्मभेदी बाणों द्वारा पाण्ड्य नरेश को मुसकराते हुए घायल कर दिया। तत्पश्चात् अश्वत्थामा ने तीखे अग्रभाग वाले दूसरे बहुत-से मर्मभेदी नाराच चलाये,जो दसवीं गति का आश्रय लेकर छोड़े गये थे [१]। परन्तु पाण्ड्य नरेश ने नौ तीखे सायकों द्वारा उन सब बाणों के टुकड़े-टुकड़े कर दिये । फिर चार बाणों से उसके अश्वों को अत्यन्त पीड़ा दी,जिससे वे शीघ्र ही अपने प्राण छोड़ बैठे। तत्पश्चात् पाण्ड्य राज ने अपने तीखे बाणों द्वारा सूर्य के समान तेजस्वी अश्वत्थामा के उन बाणों को छिन्न-भिन्न करके उसके धनुष की फैली हुई डोरी भी काट डाली। तब शत्रुसूदन द्रोणपुत्र विप्रवर अश्वत्थामा ने अपने दिव्य धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर तथा यह भी देखकर कि मेरे रथ में सेवकों ने शीघ्र ही दूसरे उत्तम घोड़े लाकर जोत दिये हैं,सहस्त्रों बाण छोड़े तथा आकाश और दिशाओं को अपने बाणों से खचाखच भर दिया। पुरुष शिरोमणि पाण्ड्य ने बाण चलाते हुए महामनस्वी अश्वत्थामा के उन सब बाणों को अक्षय जानते हुए भी काट डाला। इस प्रकार अश्वत्थामा के चलाये हुए उन बाणों को प्रयत्नपूर्वक काटकर उसके शत्रु पाण्ड्यनरेश ने पैने बाणों द्वारा रणभूमि में उसके दोनों चक्ररक्षकों को मार डाला। शत्रु की यह फुर्ती देखकर द्रोण कुमार ने अपने धनुष को खींचकर मण्डलाकार बना दिया और जैसे पूषा का भाई पर्जन्य जल की वर्षा करता है,उसी प्रकार उसने बाणों की वृष्टि आरम्भ कर दी। मान्यवर ! आठ बैलों में जुते हुए आठ छकड़ों ने जितने आयुध ढोये थे,उन सबको अश्वत्थामा ने दस दिन के आठवें भाग में चलाकर समाप्त कर दिया। यमराज के समान क्रोध में भरा हुआ अश्वत्थामा उस समय काल का भी काल-सा जान पड़ता था । जिन-जिन लोगों ने वहाँ उसे देखा,वे प्रायः बेहोश हो गये। जैसे वर्षाकाल में मेघ पर्वत और वृक्षों सहित इस पृथ्वी पर जल की वर्षा करता है,उसी प्रकार आचार्य पुत्र अश्वत्थामा ने उस सेना पर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ बाणों की दस गतियाँ बतायी गई हैं,जो इस प्रकार हैं-1-उन्मुखी, 2-अभिमुखी, 3-तिर्यक्, 4-मन्दा, 5-गोमूत्रिका, 6-ध्रुवा, 7-स्खलिता, 8-यमनक्रान्ता, 9-क्रुष्टा,और 10-अतिकुष्ठा । इनमें से पूर्व की तीन गतियाँ क्रमशः मस्तक,हृदय तथा पाश्र्वदेश का स्पर्श करने वाली हैं । अर्थात् उन्मुखी गति से छोड़ा हुआ बाण मस्तक पर,अभिमुखी गति से प्रेरित बाण वक्षःस्थल और तिर्यक् गति से चलाया हुआ बाण पाश्र्वभाग में आघात करता है । मनदा गति से छोड़े गये बाण त्वचा को कुछ-कुद छेद पाते हैं । गोमूत्रिका गति से चलाये गये बाण बायें और दायें दोनो ओर जाते तथा कवच को भी काट देते हैं । ध््राुवा गति निश्चित रूप से लक्ष्य का भेदन कराने वाली होती है । स्खलिता कहते हैं,लक्ष्य से विचलित होने वाली गति को । उसे द्वारा संचालित बाण लक्ष्यभ््राष्ट होते हैं । यमकाक्रन्ता वह गति है,जिसके द्वारा प्रेरित बाण बारंबार लक्ष्य वेधकर निकल जाते हैं । क्रुष्टा उस गति का नाम हे,जो लक्ष्य के एक अवयव भुजा आदि का छेदन कराती है । दसवीं गति का नाम है अतिक्रुष्टा;जिसके द्वारा चलाया गया बाण शत्रु का मस्तक काटकर उसके साथ ही दूर जा गिरता है । ( नीलकण्ठी के आधार पर )