महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 75 श्लोक 1-15

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पंचसप्ततितम (75) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: पंचसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
राजा के कर्तव्य का वर्णन, युधिष्ठिर का राज्य से विरक्त होना एवं भीष्मजी का पुनः राज्य की महिमा सुनाना

युधिष्ठिर ने पूछा-पितामह ! राजा जिस वृत्ति से रहने पर अपने प्रजाजनों की उन्नति करता हैं और स्वयं भी विशुद्ध लोकों पर विजय प्राप्त कर लेता हैं, वह मुझे बताइये। भीष्मजी ने कहा-भरतनन्दन ! राजा को सदा ही दानशीली, यज्ञशील, उपवास और तपस्या में तत्पर एवं प्र्रजा-पालन में संलग्न रहना चाहियें। समस्त प्रजाओं का सदा धर्मंपूर्वक पालन करने वाले राजा को घर पर आये हुए धर्मांत्मा पुरूषों का खड़ा होकर स्वागत करना चाहिये और उत्तम वस्तुएँ देकर उनका आदर-सत्कार करना चाहिये। राजा द्वारा जब जिस धर्मं का आदर किया जाता हैं उसका फिर सर्वत्र आदर होने लगता हैं, प्रजावर्ग को वही करना अच्छा लगता हैं। राजा को चाहिये कि वह शत्रुओं को यमराज की भाँति सदा दण्ड़ देने के लिये उद्यत रहे। वह ड़ाकुओं और लुटेरों को सब ओर से पकड़कर मार ड़ाले। स्वार्थवश किसी दुष्ट कें अपराध को क्षमा न करे। भारत ! राजा द्वारा सुरक्षित हुई प्रजा यहाँ जिस धर्मं का आचरण करती हैं, उसका चैंथा भाग राजा को भी मिल जाता हैं। प्रजा जो स्वाध्याय, जो दान, जो होम और जो पूजन करती हैं, उन पुण्य कर्मों का एक चैथाई भाग उस प्रजा का धर्मपूर्वक पालन करने वाला नरेश प्राप्त कर लेता हैं। भरतनन्दन ! यदि राजा प्रजा की रक्षा नहीं करता तो उसके राज्य में प्रजा जो कुछ भी अशुभ कार्य करती हैं, उस पापकर्मं का एक चैंथाई भाग राजा को भोगना पड़ता हैं। पृथ्वीपते ! कुछ लोगों का मत हैं कि उपर्युक्त अवस्था में राजा को पूरे पाप का भागी होना पड़ता हैं, और कुछ लोगों का यह निश्चय हैं कि उसको आधा पाप लगता हैं। ऐसा राजा क्रूर और मिथ्यावादी समझा जाता हैं। ऐसे पाप से राजा को किस उपाय से छुटकारा मिलता हैं, वह बताता हूँ, सुनो। चोरों या लुटेरों ने यदि किसी के धन का अपहरण कर लिया हो और राजा पता लगाकर उस धन को लौटा न सके तो उस असमर्थं नरेश को चाहिये कि वह अपने आश्रय में रहने वाले उस मनुष्य को उतना ही धन राजकीय खजाने से दे दे। सभी वर्ण के लोगों को ब्राह्मणों के धन की भी रक्षा उसी प्रकार करनी चाहिये जिस प्रकार स्वयं ब्राह्मणों की। जो ब्राह्मणों को कष्ट पहुँचाता हो, उसे राजा को अपने राज्य में नहीं रहने देना चाहिये। ब्राह्मण के धन की रक्षा की जानेपर ही सब कुछ रक्षित हो जाता है; क्योंकि उन ब्राह्मणों की कृपा से राजा कृतार्थ हो जाता हैं। जैसे सब प्राणी मेघों के और पक्षी वृक्षों के सहारे जीवन-निर्वाह करते हैं, उसी प्रकार सब मनुष्य सम्पूर्णं मनोरथों की सिद्धि करने वाले राजा के आश्रित होकर जीवनयापन करतें हैं। जो राजा कामासक्त हो सदा काम का ही चिन्तन करने वाला, क्रूर और अत्यन्त लोभी होता हैं, वह प्रजा का पालन नहीं कर सकता । युधिष्ठिर ने कहा-पितामह! मैं राज्य से सुख मिलने की आशा रखकर कभी एक क्षण के लिये भी राज्य करने की इच्छा नहीं करता। मैं तो धर्मं के लिये ही राज्य को पसंद करता था; परंतु मालूम होता हैं कि इसमें धर्मं नहीं हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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