महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 342 श्लोक 13-25

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तीन सौ बयालीसवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (मोक्षधर्मपर्व)

महाभारत: शान्तिपर्व : तीन सौ बयालीसवाँ अध्याय: श्लोक 21-35 का हिन्दी अनुवाद


संयमकाल में सबके हितैषी, वरदाता, देवाधिदेव ब्रह्माजी के द्वारा सबसे पहले ब्राह्मण उत्पन्न हुए। फिर ब्राह्मणों से शेष वर्णों का प्रादुर्भाव हुआ। इस प्रकार ब्राह्मण देवताओं और असुरों से भी श्रेष्ठ हैं। पूर्वकाल में मैंने स्वयं ही ब्रह्मारूप होकर उन ब्राह्मणों को उत्पन्न किया था। देवता, असुर और महर्षि आदि जो भूतविशेष हैं, उन्हें ब्राह्मणों ने ही उनके अधिकार पर स्थापित किया और उनके द्वारा अपराध होने पर उन्हें दण्ड दिया। अहल्या पर बलात्कार करने के कारण गौतम के शाप से इन्द्र को हरिश्मश्रु (हरी दाड़ी-मूछों से युक्त) होना पड़ा था तथा विश्वामित्र के शाप से इन्द्र को अपना अण्डकोष खो देना पडत्रा और उनके भेड़े के अण्डकोष जोड़े गये। अश्विनीकुमारों के लिये नियत यज्ञ भाग का निषेष करने के लिये वज्र उठाये हुए इन्द्र की दोनों भुजाओं को महर्षि च्यवन ने स्तम्भित कर दिया था। इसी प्रकार दक्ष प्रजापति ने रुद्र द्वारा किये गये अपने यज्ञ के विध्वंस से कुपित हो बड़ी भारी तपस्या की और रुद्रदेव के ललाट में एक तीसरा नेत्र-चिन्ह प्रकअ कर दिया था। जिस समय रुद्र ने त्रिपुरवासी दैत्यों के वध के लिये दीक्षा ली थी, उस समय शुक्राचार्य ने अपने मसतक से जटाएँ उखाड़कर उन्हीं का महादेवजी पर प्रयोग किया। फिर तो उन जटाओं से बहुतेरे सर्प उत्पन्न हुए, जिन्होंने रुद्रदेव के कण्ठ में डँसना आरम्भ किया। इससे उनका कण्ठ नीला हो गया तथा पहले स्वायम्भुव मन्वन्तर में नारायण ने अपने हाथ से उनका कण्ठ पकड़ा था, इसलिये भी कण्ठ का रंग नीला हो जाने से वे रुद्रदेव नीलकण्ठ हो गये। अंगिरा पुत्र बृहस्पति ने अमृत उत्पन्न करने के समय नरश्चरण आरम्भ किया। उस समय जब वे आचमन करने लगे, तब जल स्वच्छ नहीं हुआ। इससे बृहस्पति जल के प्रति कुपित हो उठे और बोले - ‘मेरे आचमन करते समय भी तुम स्वच्छ न हुए, मैले ही बने रह गये; इसलिये आज से मत्स्य, मकर और कछुए आदि जन्तुओं द्वारा तुम कलुषित होते रहो।’ तभी से सारे जलाशय जल-जन्तुओं से भरे रहने लगे। त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप देवताओं के पुरोहित थे। वे असुरों के भानजे लगते थे; अतः देवताओं को प्रत्यक्ष और असुरों को परोक्ष रूप से यज्ञों का भाग दिया करते थे। कुछ काल के अनन्तर हिरण्यकशिपु को आगे करके सब असुर विश्वरूप की माता के पास गये और उनसे वर माँगने लगे - ‘बहिन ! यह तुम्हारा पुत्र विश्वरूप, जिसके तीन सिर हैं, देवताओं को पुरोहित बना हुआ है। यह देवताओं को तो प्रत्यक्ष भाग देता है और हम लोगों को परोक्ष रूप से भाग समर्पित करता है। इससे देवता तो बढ़ते हैं और हम लोग निरन्तर क्षीण होते चले जा रहे हैं। तुम इसे मना कर दो, जिससे यह देवताओं को छोड़कर हमारा पक्ष ग्रहण करे’। तब एक दिन माता ने नन्दनवन में गये हुए विश्वरूप से कहा - ‘बेटा ! क्यों तुम दूसरे पक्ष की वृद्धि करते हुए मामा के पक्ष का नाश कर रहे हो ? तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिये।’ विश्वरूप ने माता की आज्ञा को अलंघनीय मानकर उनका सम्मान करके विदा कर दिया और वे स्वयं हिरण्यकशिपु के पास चले गये। ( हिरण्यकशिपु ने उन्हें अपना होता बना लिया) इधर ब्रह्माजी के पुत्र वसिष्ठ की ओर से हिरण्यकशिपु को शाप प्राप्त हुआ- ‘तुमने मेरी अवहेलना करके दूसरा होता चुन लिया है; इसलिये इस यज्ञ की समाप्ति होने सक पहले ही किसी अभूतपूर्व प्राणी के हाथ से तुम्हारा वध हो जायगा।।’ वसिष्ठजी के वैसा शाप देने से हिरण्यकशिपु वध को प्राप्त हुआ। तदनन्तर विश्वरूप मातृपक्ष की वृद्धि करने के लिये बड़ी भारी तपस्या में संलग्न हो गये। यह देख उनके व्रत को भंग करने के लिये इन्द्र ने बहु सी सुन्दरी अप्सराओं को नियुक्त कर दिया। उन अप्सराओं को देखते ही विश्वरूप का मन चंचल हो गया और वे तुरंत ही उनमें आसक्त हो गये। उन्हें आसक्त जानकर अप्सराओं ने कहा - ‘अब हम लोग जहाँ से आयी हैं, नहीं जा रही हैं’। तब त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप ने उनसे कहा - ‘कहाँ जाओगी ? अभी यहीं मेरे साथ रहो। इससे तुम्हारा भला होगा।’ यह सुनकर वे अप्सराएँ बोलीं- ‘हम सब देवांगना-अप्सराएँ हैं। हमने पहले से ही वरदायक देवता प्रभावशाली इन्द्र का वरण कर लिया है’। तब विश्वरूप ने उनसे कहा- ‘आज ही इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवताओं का अभाव हो जायगा।’ ऐसा कहकर वे मन्त्रों का जप करने लगे। उन मन्त्रों से उनकी शक्ति बहुत बढ़ गयी। तीन सिरों वाले विश्वरूप अपने एक मुख से सारे संसार के क्रियानिष्ठ ब्राह्मणों द्वारा विधिपूर्वक यज्ञों में होमे गये सोमरय को पी लेते थे, दूसरे से अन्न खाते थे और तीसरे से इन्द्र आदि देवताओं के तेज को पी लेते थे। इन्द्र ने देखा, विश्वरूप का सारा शरीर सोमपान से परिपुष्ट हो रहा है। यह देखकर देवताओं सहित इन्द्र को बड़ी चिन्ता हुई। तदनन्तर इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता ब्रह्माजी के पास गये और इस प्रकार बोले- ‘भगवन् ! विश्वरूप सम्पूर्ण यज्ञों में विधिपूर्वक होमे गये सोमरस को पी लेते हैं। हम यज्ञभाग से वंचित हो गये। असुर पक्ष बढत्र रहा है और हम लोग क्षीण होते जा रहे हैं; अतः आपको अब हम लोगों का कल्याण-साधन करना चाहिये’।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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