महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 7 श्लोक 20-35

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सप्तम अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)

महाभारत: शान्तिपर्व : सप्तम अध्याय: श्लोक 25- 44 का हिन्दी अनुवाद

मन्त्रियों, सुहृदों तथा वेद-शास्त्रों के ज्ञाता विद्वानों की भी बातें वे नहीं सुन सके। बहुमूल्य रत्न, पृथ्वी के राज्य तथा धन की आय का भी सुख भोगने का उन्हें अवसर नहीं मिला। दुर्योधन हमसे द्वेष रखने के कारण सदा संतत रहकर कभी यहां सुख नहीं पाता था। हम लोगों के पास वैसी समृद्धि देखकर उसकी कान्ति फीकी पड़ गयी थी। वह चिन्ता से सूखकर पीला और दुर्बल हो गया था। सुबलपुत्र शकुनि ने राजा धृतराष्ट्र को दुर्योंधन की यह अवस्था सूचित की। पुत्र के प्रति अधिक आसक्त होने के कारण पिता धृतराष्ट्र ने अन्याय में स्थित हो उसकी इच्छा का अनुमोदन किया। इस विषय में उन्होंने अपने पिता (ताऊ) गड्डानन्दन भीष्म तथा भाई विदुर से राय लेने की भी इच्छा नहीं की। उनकी इसी दुनीति के कारण निःसंदेह राजा धृतराष्ट्र को भी वैसा ही विनाश प्राप्त हुआ है, जैसा कि मुझे। वे अपने अपवित्र आचार-विचार वाले, लोभी एवं कामा-सक्त पुत्र को काबू में न रखने के कारण उसका तथा उसके सहोदर भाइयों का वध करवाकर स्वयं भी उज्जल यश से भ्रष्ट हो गये। हम लोगों के प्रति सदा द्वेष रखने वाला पापबुद्धि दुर्योजन इन दोनों वृद्धों को शो की आग में झोंक कर चला गया। संधि के लिये गये हुए श्री कृष्ण के समीप युद्ध की इच्छा- वाले दुर्या दुर्योधन धन ने जैसी बात कही थी, वैसी कौन भाई -बन्धु कुलीन होकर भी अपने सुहृदों के लिये कह सकता है? हम लोगों ने तेज से प्रकाशित होने वाली सम्पूर्ण दिशाआं में मानों आग लगा दी और अपने ही दोष से सदा के लिये नष्ट हो गये। हमारे प्रति शत्रुता का मूर्तिमान् स्वरूप वह दुर्बुद्धि दुर्योंधन पूर्णःत बन्धन में बॅंध गया । दुर्योधन के कारण ही हमारे इस कुल का पतन हो गया। हम लोग अवध्य नरेशों का बध करके संसार मे निन्दा के पात्र हो गये। राजा धृतराष्ट्र इस कुल का विनाश करने वाले दुर्बुद्धि एवं पापात्मा दुर्योधन को इस राष्ट्र का स्वामी बनाकर आज शो की आग में जल रहे हैं। हमने शूरवीरों को मारा, पाप किया और अपने ही देश का विनाश कर डाला। शत्रुओं को मारकर हमारा क्रोध तो दूर हो गया, परंतु यह शोक मुझे निरन्तर घेरे रहता है। धनंजय! किया हुआ पाप कहने से, शुभ कर्म करने से, पछताने से, दान करने से और तपस्या से भी नष्ट होता है। निवृत्तिपरायण होने, तीर्थयात्रा करने तथा’ वेद- शास्त्रों का स्वाध्याय एवं जप करने से भी पाप दूर हाता है। श्रुतिका कथन है कि त्यागी पुरूष पाप नहीं कर सकता तथा वह जन्म और मरण के बन्धन में भी नहीं पड़ता। धंनजय! उसे मोक्ष का मार्ग मिल जाता है और वह ज्ञानी एवं स्थिर बुद्धि मुनि द्वन्द्वरहित होकर तत्काल ब्रहम साक्षात्कार कर लेता है। शत्रुओं को तपाने वाले अर्जुन! मैं तुम सब लोगों से बिदा लेकर बन में चला जाऊॅंगा। शत्रु सूदन! (परमात्मा का दर्शन ) नहीं प्राप्त कर सकता ।’ इसका मुझे प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है। मैंने परिग्रह (राज्य और धन के संग्रह) की इच्छा रखकर केवल पाप बटोरा है, जो जन्म और मृत्यु का मुख्य कारण है। श्रुतिका कथन है कि ’परिग्रह से पाप ही प्राप्त हो सकता है’। अतः मैं परिग्रह छोड़कर सारे राज्य और इसके सुखों का लात मारकर बन्धनमुक्त हो शोक और ममता से ऊपर उठ कर, कहीं बन में चला जाऊँगा। कुरूनन्दन! तुम इस निष्टकण्टक एवं कुशल-क्षेम से युक्त पृथ्वी का शासन करो। मुझे राज्य और भोगों से कोई मतलब नहीं है। इतना कहकर करूराज युधिष्ठिरचुप हो गये। तब कुन्ती के सबसे छोटे पुत्र अर्जुन ने भाषण देना आरम्भ किया।

इस प्रकार श्री महाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानु शासन पर्व में युधिष्ठिरका खेद पूर्ण उद्वार नामक सातवां अध्याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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